शाम को मैं ऑफिस से वापस घर आया तो सीधे ड्राइंग रूम में दीदी के पास दरवाजे पर ही पहुंचा था कि मैंने टेबल पर पापा की फोटो रखी देख मेरे मुँह से सहसा निकल गया - 'दी, ये पा' इससे आगे मैं एक शब्द भी बोल पाता कि दीदी ने मुझे टोक दिया - "आशु मैंने आज नितिन को बुलाया है, इसके बारे में कुछ बात करनी है." मैंने पलट कर देखा तो दरवाजे के बगल में नितिन स्टूल पर बैठा हुआ था.अब मेरी समझ आ चुका था कि पापा की ये फोटो या तो दीदी ने नितिन से मंगवाई होगी या फिर ये खुद ही लेकर आया होगा. विश्वास न करने की कोई गुंजाइश ही न थी क्योंकि नितिन अपने आप में खुद ही इस बात का प्रमाण था. भाग्य भी कैसे निराले खेल खेलता है? जिसकी माँ ने हमारा सब कुछ छीन लिया , जिनके आने से पापा हम दोनों से इतने दूर चले गए और रही सही कसर तो उनके ही बच्चों ने पूरी कर दी थी कि पापा को हमारी जरूरत ही नहीं रही. वही आज पापा की तस्वीर लिए हमारे सामने बैठा है और वह भी इस हाल में. कितने दुःख झेले होंगे इसने इन इतने सालों में? जबकि जो क्यारियां ये खोद रहा है, इसके घर में कोई और खोदता होगा. वह तो इतनी संपत्ति का मालिक होगा कि ऐसे कितने माली खुद रख सकता है लेकिन इसे कुछ भी नहीं मालूम और न मिला. पापा के सारे खाते सीज हो चुके होंगे और ये बचपन के अभागे इस बारे में न जानते होंगे और न ही वहाँ तक पहुँच सकते हैं.
जिस क्वार्टर में आज ये रह रहा है , इसके घर में और लोग रहते होंगे. कुछ भी हो एक बंगले का मालिक तो यह आज भी है ही, यह बात और है कि भाग्य की ठोकरों ने इसको फुटबाल बना दिया. बंगले से गाँव के घर में और वहाँ से फिर बेघर होकर इस आशियाने में आकर शरण मिली. दिमाग कुछ इतनी तेजी से सोचने लगा कि मैं वहाँ रुक नहीं सकता था और मैंने उसको देखा तो वापस कमरे से बाहर निकल गया और दीदी को बोला - 'मैं अभी आता हूँ."
मैं बाहर तो निकल आया और फिर बाथरूम में चला गया बड़ी देर तक मुँह पर सिर पर ठन्डे पानी से धोता रहा मुझे थोड़ी सी राहत चाहिए थी. मुझे ऐसा क्यों हुआ ? मैं खुद नहीं जानता था लेकिन कहीं कुछ अंतरमन में चल जरूर रहा था कि मैं उस कमरे में खुद को रोक पाने में असमर्थ पा रहा था. लेकिन खुद को कब तक इस स्थिति बचा सकता था. दीदी ने उसको बुलाया है तो उसको सुनना ही पड़ेगा. मैं फ्रेश होकर कमरे में पहुँच गया, अब मैं काफी सामान्य हो चुका था. दीदी ने नितिन को पास आकर बैठने को कहा क्योंकि मेरे आने के बाद से वह खड़ा ही था. वह वहाँ से उठ कर मेरे सामने की तरफ आकर फर्श पर बैठने लगा. शायद इसकी मानसिकता अपने काम के अनुरुप साहब वाली थी और फिर वह कैसे ऊपर बैठे? किन्तु मेरा जमीर इसके लिए तैयार नहीं था कि मेरे ही पापा का बेटा जमीं पर बैठा हो और उसी पिता के दो और बच्चे ऊपर बैठे हों.
"नहीं नितिन यहाँ इस कुर्सी पर आकर बैठ जाओ." मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया और उसने मेरे सामने हाथ जोड़कर
"साहब, मैं यही ठीक हूँ." कहकर बैठने का उपक्रम किया लेकिन दीदी ने टोका -- "नितिन , वहाँ बैठो , मैं कह रही हूँ न."
"जी अच्छा." कहकर वह सकुचाते हुए कुर्सी पर बैठ गया.
इसके बाद मैंने दीदी की ओर देखा कि इसको क्या कहना है? दीदी मेरे आशय को समझ गयी तो वह नितिन की ओर मुखातिब होने से पहले मुझसे बोली - " आशु, ये नितिन के फादर की फोटो है, दिखाने के लिए लाया था. तुन्हें पता है इसके फादर डी एम थे."
"हाँ, शायद इसने मुझे भी बताया था."
"नितिन और कौन कौन है तुम्हारे घर में?" मुझे ही बात शुरू करनी चाहिए ये सोच कर मैंने उससे प्रश्न किया.
"कोई नहीं?"
"और बहन तो है न?" दीदी ने उसको बीच में ही टोका.
"है भी और नहीं भी." नितिन ने बड़े निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया था.
"क्या मतलब" मेरे और दीदी दोनों के मुँह से एक साथ निकला.
"इसकी भी बहुत अजीब कहानी है, क्या क्या आपको बताऊंगा?"
"फिर भी थोड़ा सा तो बता ही सकते हो." मैंने उससे थाह लेने की कोशिश की.
"नाना ने दीदी के शादी ये बता कर की थी की हमारे पापा डी एम थे और हमारी लखनऊ में काफी प्रोपर्टी है . उसके ससुराल वालों ने मुझसे लिखवा लिया था कि मैं अगर दीदी को खुश देखना चाहता हूँ तो पापा की प्रापर्टी पर अधिकार नहीं दिखाऊंगा."
"ऐसा क्यों?"
"शायद उन्होंने लालच में दीदी से शादी की थी कि नाना कुछ न भी दे पायें उनको वह प्रापर्टी तो मिल ही जायेगी. फिर उन्होंने दीदी को कभी वापस नहीं भेजा. "
"तुम कभी अपनी दीदी के पास गए ही नहीं."
"नहीं, दीदी के शादी के बाद नाना जी बीमार हो गए और फिर मेरी पढ़ाई भी छूट गयी , उसके एक साल बाद नानाजी नहीं रहे."
"नाना जी के न रहने पर तो दीदी आई होगी."
"नहीं , उन लोगों ने नहीं भेजा और खुद आ गए थे. मुझे नहीं मालूम की क्या हुआ था? मैंने उस तरफ सोचना ही छोड़ दिया है."
बड़े दुखी स्वर में वह बोला था.
"फिर, यहाँ कैसे आये?"
"नाना के न रहने के बाद मामा ने आकर गाँव की सारी जमीन और घर बेच दिया और कहा जाओ अपना कमाओ खाओ, मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है. मैं वहाँ से सीधा दीदी के घर गया क्योंकि मैं ये सोचता था कि अब मेरा सहारा दीदी के घर तो बनही सकता है . मुझे वहाँ पहन मिल जायेगी तो आगे फिर क्या करना है देख लूँगा. लेकिन उन लोगों ने मुझे दीदी से मिलने नहीं दिया और मैं वापस गाँव आ गया, कोई घर तो बचा नहीं था हाँ नाना के भाई जरूर थे उनके घर रहा और उन्होंने मुझे यहाँ पत्र देकर भेजा था कि साहब नौकरी पर रख लेंगे. यहाँ आकर मुझे काम मिल गया और तब से यहीं पर हूँ." अपनी कहानी सुना कर जैसे वह हल्का हो गया था और वह चुप हो कर अपने सिर को दरवाजे की ओर घुमा कर बैठ गया. शायद उसको सब कुछ बताना अच्छा नहीं लग रहा हो या फिर अपने एक एक कर छूटते घर और घर वालों के दर्द से आँखें नाम हो आयीं थी. जिनको छिपाने के उपक्रम में वह बाहर देखने लगा था.
उसकी कहानी सुनकर मेरा मन भर आया था जीवन में कौन कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा ये कोई नहीं जानता. जीवन के इस पहले ही मुकाम पर नितिन को भाग्य ने कहाँ से कहाँ लगा दिया. ऐसा तो मैंने कभी न सुना था और न देखा था. वह तो शानदार बंगले से निकाल कर उसी बंगले के एक क्वार्टर तक पहुंचा दिया गया.
"आशु , मैं चाहती हूँ की नितिन आगे पढ़े." अब दीदी ने उस चुप्पी को तोडा था.
"वो कैसे?" अब मेरी बारी थी.
"अगर तुम इसके लिए कुछ कर सकते हो तो इसको बगीचे से हटा कर किचेन में लगा दो और इसको दोपहर का समय पढ़ने के लिए दे सकते हो." ये दीदी का प्रस्ताव था.
"आप ऐसा क्यों चाहती हैं." अब मेरा ये सवाल दीदी से था और दीदी मेरा मुँह देखती रह गयी शायद उन्हें मुझसे इस तरह के प्रश्न की आशा नहीं होगी लेकिन मुझे हर काम अपने नियम के अनुसार और आपसी विमर्श के बाद करना होगा.
"आशु, ये लखनऊ में सिटी मौंतेसरी स्कूल का पढ़ा है, बचपन में इसकी शिक्षा वही शुरू हुई थी और वक्त ने इसको यहाँ पहुंचा दिया है. अभी भी देर नहीं हुई है अगर ये आगे की पढ़ाई शुरू कर देगा तो जीवन भर इस काम में तो नहीं लगा रहेगा."
"नितिन तुम क्या चाहते हो?" अब मैंने नितिन की ही मर्जी जाननी चाही.
"ठीक है साहब, अगर मौका मिले तो मैं मेहनत से दोनों काम करूंगा."
"ठीक है, मैं देखता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ.?" मैंने नितिन से कह दिया
"ठीक है साहब." और वह हाथ जोड़ कर चला गया लेकिन पापा की फोटो वही भूल गया. मैंने पापा की तस्वीर उठा ली और फिर उसी को देखता रहा . मैंने मन ही मन पापा से वादा किया कि मुझसे जो भी होगा मैं नितिन को अच्छी जिन्दगी देने की कोशिश करूंगा और तस्वीर उठा कर फिर मेज पर रख दी.
शनिवार, 18 सितंबर 2010
शनिवार, 11 सितंबर 2010
कौन कहाँ से कहाँ ? (समापन)
पूर्वकथा : आशु एक डी एम का बेटा, अपनी पहली पोस्टिंग में ही सौतेले भाई से मिला और दूसरी जगह पर सौतेली बहन से, माँ के निधन के बाद वह नाना नानी के पास रहा। किन्तु हालात ने उसे फिर से उनसे मिलाया जो न उसे जानते थे और वह तो जान गया। उसने पहले नितिन के लिए पढ़ाई और फिर नौकरी कि व्यवस्था की और फिर बहन को उस नरक से निकलने का प्रयास किया। पापा कि जायदाद के लिए भागदौड़ पापा के मकान से उनके सालों को निकल कर बाहर करना और फिर उसे पापा कि धरोहर कि तरह सहेज कर तैयार करवाना। बहन से दौलत के लालच में शादी करने वाले इंसान से उसको मुक्ति दिलाने के फैसले को उसने कानूनी जामा पहना कर अंजाम दिया।
गतांक से आगे:
किसी भी चीज का आरम्भ और अंत क्या अपने सोचने से होता है शायद नहीं। मैं भी तो भटक रहा हूँ कि किसी तरह से शामली के बारे में फैसला ले सकूं लेकिन क्या ये मेरे वश में है ? मैंने दीदी को यहाँ आने के लिए कहा क्योंकि मैं खुद को इस मामले में सामने नहीं लाना चाहता था। दीदी ने अगले हफ्ते आने की बात कही थी। तब तक मैंने महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग कि नजर में शामली बारे में जानकारी लिखित तौर पर भेज दी थी क्योंकि सिर्फ अपने ऊपर ये काम लेना शायद ठीक नहीं होगा। उसको अगर इन लोगों से सहयोग मिलेगा तो उसको अपने थोपे हुए वैवाहिक जीवन से भी मुक्ति मिल सकेगी ।
दीदी के आने तक मैंने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। और उसके आते ही मैंने नितिन को शामली के गाँव भेजने का प्रबंध कर दिया। पहले दीदी ने वहाँ जाकर गाँव में उस घर और परिवार के बारे में सारी जानकारी ले ली थी। घर उनका आज भी बाहर से ताला लगा था और उनके इस रहस्यमय व्यवहार से गाँव वालों को भी हैरानी थी। इस विषय में खुसपुस होती रहती थी। शामली को आजतक किसी ने बाहर नहीं देखा था। वह जिन्दा है या मर गयी इसके बारे में भी कोई बता नहीं पाया।
महिला पुलिस , आयोग के कुछ सदस्य दीदी और नितिन के साथ ही शामली के घर पर छापा मारा गया। पिछले दरवाजे से घुस कर ही उनके घर में जाया जा सका लेकिन वहाँ से अन्दर आने पर ये पता नहीं चल सकता था कि इसमें कोई इंसान भी रहते हैं क्योंकि उस जगह से सिर्फ जानवरों की आवाजाही ही हो सकती थी। उनके रिहायशी घर के लिए सिर्फ एक खिड़की थी जिसके रास्ते अन्दर प्रवेश किया गया। सबसे पहले सामना शामली के ससुर से ही हुआ। इतने सारे लोगों को देख कर वह एकदम घबरा गए और उन्होंने अन्दर जाने के रास्ते को बंद कर दिया। फिर वह अन्दर से अपने बेटे की बन्दूक उठा लाये बगैर ये सोचे समझे की ये लोग कौन हैं?
"आप लोग कौन हैं?"
"हम लोग महिला आयोग से आये हैं और अपने साथ ये पुलिस भी लेकर आये हैं। इनको आप जानते होंगे ये आपकी बहू के भाई हैं।"
"इससे क्या मतलब? मेरे घर में घुस आने का आपका उद्देश्य क्या है? "
"हमें सूचना मिली है की आपने अपनी बहू को जबरन घर में रखा है और उसके पति को उससे कोई भी मतलब नहीं है। साथ ही उसकी पहली पत्नी भी है इस लिए हम आपकी बहू से कुछ पूछना चाहते हैं।"
"ये सब गलत है, हमारी बहू हमारे साथ रहती है और लड़का हमारा शहर में धंधा करता है।"
"क्या धंधा करता है?
"ठेकेदारी का।"
"चार सौ बीसी का भी तो करता है। किस अपराध में वह जेल में बंद है?"
"मुझे कुछ नहीं मालूम है, वह शहर में रहकर काम करता है।"
"अच्छा फिर आप अपनी बहू को बुला दें , हम कुछ उससे पूछना चाहते हैं।"
"हमारी बहू किसी बाहर वाले के सामने नहीं निकलती है."
"लेकिन हमारे सामने तो उसको लाना ही पड़ेगा, क्योंकि हमें उसके बारे में मिली सूचना की तहकीकात करनी है।"
"अगर मैं न बुलाऊँ तो?"
"फिर तो हमें जबरन अन्दर जाकर उससे बात करनी होगी और आपको हमारे काम में दखल देने के आरोप में अन्दर भी किया जा सकता है।"
इतना सब सुनकर दबंग बेटे के दबंग बाप के पैरों तले जमीन खिसक गयी। वह अन्दर गया और शामली को बुलाकर ले आया। शामली के रूप को देख कर नितिन का भी सर चकरा गया क्योंकि जब उसने देखा था तो शामली ठीक थी अब तो वह एकदम काली सी, आँखें गड्ढे में घुसी हुई और बीमार सी लग रही थी। उन्हें शायद इतना मौका नहीं मिला कि वे उसको कुछ सिखा पाते। इतने सारे लोगों को देख कर वह घबरा सा गए थे। शामली भी इतने सारे लोगों के साथ नितिन को देख कर घबरा गयी । पता नहीं उसके मन में क्या विचार आया हो? वह पत्ते के तरह से काँप रही थी। फिर दीदी ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ रखा और बोली -
"घबराओ नहीं , हम सब तुम्हें यहाँ से लेने आये हैं। अगर तुम चलना चाहो तो चल सकती हो?"
एक घर के अन्दर दबी हुई लड़की कल लिए ये आसान न था कि वह ये सब सुनकर शांत रहती , वह रोने लगी और तब नितिन ने उसको आगे बढ़ कर समझाया - दीदी , हम लोग तुम्हें इस घर से ले जाने आये हैं और इसी लिए हम सारे कानूनी कागज भी लाये हैं ताकि यहाँ से आपको निकल सकें।'
"फिर हम कहाँ जायेंगे? वह वहाँ तो नहीं पहुँच जायेंगे? " भय उसके चेहरे पर पूरी तरह से परिलक्षित हो रहा था। यहाँ से बाहर निकलने के लिए सोचना उसके लिए सपना था। सिर्फ एक बार निकली थी जब कि उसको वैरिफिकेशन के लिए ले जाया गया था। उसके बाद फिर उसी कैद में बंद। नौकरों की तरह से काम करते रहो और रोटी खाते रहो। न कोई बोलने वाला न सुख दुःख को पूछने वाला। जब से संदीप जेल चला गया तब से उसको और अधिक प्रताड़ित किया जाने लगा था। उसकी दशा इस बात को खुद ही जाहिर कर रही थी।
"नहीं ऐसा कुछ भी नहीं होगा, तुम्हें हम अपने साथ रखेंगे , कहीं अकेले नहीं रहना है।" महिला आयोग कि सदस्य ने उसको आश्वासन दिया ताकि वह साथ जाने के लिए तैयार हो सके। बाहर पुलिस ने गाँव के कुछ और लोगों को बुलाकर गवाह बनाया और शामली के बयान करवा कर उन सब से दस्तखत लेकर एक प्रति उसके ससुर को देकर और खुद बाकी लेकर शामली को उसी हालात में लेकर चल दिए।
रास्ते भर शामली नितिन से सट कर बैठी रही क्योंकि उसको ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस कैद में वह बरसों से बंद थी और उससे वह कभी आजाद भी हो सकती है। उसको अभी महिला आयोग के अधीन ही रहना था और इसके लिए दीदी ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए उसको अपने साथ रखने कि पेशकश की। कानूनी कार्यवाही के के बाद उसकोi दीदी को सौप दिया गया।
अभी तो शामली को मुक्त करने होने ये पहले अभी तो उसको संदीप के साथ हुए विवाह से भी मुक्त कराना था उसकी तो अवैध वैसे भी था फिर भी वो रास्ते इतने सरल नहीं होते ,जो हिन्दू धर्म में अग्नि को साक्षी बनाकर सात फेरे के साथ बाँध दिए जाते हैं।
* * * * * * *
पूरा एक साल लगा था उस प्रक्रिया से गुजर कर शामली को फिर से शामली बनने में। वह दीदी के साथ ही रही। दीदी ने तो उसको बहन बनाकर रखा लेकिन वह शायद इसको सपना माँ कर जी रही थी। कभी नितिन से बात करती तो कहती कि नितिन ये दीदी बहुत अच्छी हैं बिल्कुल मम्मी जैसा प्यार करती हैं। अपने साथ घुमाने ले जाती हैं। मुझे तो बहुत सारे कपड़े और सामान भी दिलाये हैं। वह जब बच्ची थी जब उसको पापा और माँ ने अकेले छोड़ कर दुनियाँaसे कूच कर लिया था। प्यार जैसी चीज उसने अपने होश में तो देखी ही नहीं थी। बीच बीच में उसको लखनऊ भी जाता उसकी पेशी और केस के लिए उसका आना जरूरी होता था। आखिर वह दिन भी आया जब कि अदालत ने भी शामली माथुर को संदीप माथुर कि पत्नी होने के कलंक से मुक्त कर दिया। संदीप को भी लाया गया था। उसकी पहली पत्नी भी साथ आती थी। उसे क्या पता था ? कि न तो संपत्ति मिलेगी और कलंक के साथ जेल अलग जाना पड़ेगा। मैं इस दृश्य के दौरान कहीं भी सामने नहीं आया था।
उसके एक महीने के अन्दर ही मैंने नितिन और शामली को पापा के घर में रहने के लिए सोची क्योंकि अब कभी तो उसको वहाँ रहने के लिए तैयार होना ही पड़ेगा। मुझे इसके लिए एक प्रायवेट सिक्योरिटी भी भी व्यवस्था करनी पड़ी।
* * * * * *
ये सारी व्यवस्था मुझे ही करनी थी। मैंने घर को साफ करवा कर उसमें पूजा करके उन दोनों को वहाँ रखने की सोची थी। इसके लिए मैंने नाना और नानी को भी बोला कि मैं पापा के घर को खाली करवा कर उसे नई माँ के बच्चों को सौपने जा रहा हूँ। वे दोनों भड़क गए कि तू भी तो उसमें हक़दार है और मेरा कदम उन्हें पसंद नहीं आया और ये तो स्वाभाविक था क्योंकि उनकी बेटी के बच्चे भटके रहे और मकान कोई और ले । लेकिन ये उनकी सोच थी जो ममता से भरी थी और गलत भी नहीं थी मैं उनके भावों को समझ सकता था लेकिन मेरे लिए पापा के सपनों और उनके बच्चोंके प्रति जो भी फर्ज बनता था उसको पूरा करना ही था।
पूजा में मैं दीदी नितिन और शामली ही थे और साक्षी थे पापा और नई माँ के चित्र। जब मैंने हवनपूरा किया तो उठा कर पापा के चित्र के आगे सर नवाया कि पापा जो मेरी समझ आया वो मैंने किया है और शेष जोबचा है वह मैं आगे भी करूंगा। आप चिंता न करें अब तो जंग जीत ही ली है। शायद नितिन और शामली को ये समझनहीं आ रहा था कि मैं उनके पापा के आगे क्यों सर झुका रहा हूँ? नितिन ने भी पापा के फोटो के पैर छुए और फिर मेरे , दीदी और शामली के। शामली भी मेरे पैरों कि तरफ झुकी तो मैंने उसको बीच में ही थाम लिया - 'बेटियाँ पैर नहीं छूती।'
'साब आपने मेरे और नितिन के लिए इतना किया , तो मैं पैर क्यों नहीं छू सकती ?'
'मैंने नितिन और शामली को अपने दोनों हाथों से थाम कर सीने से लगा लिया और कहा - 'क्योंकि मैं तुम्हारा बड़ाभाई हूँ।' दोनों बच्चे चेहरा ऊपर उठा कर मुझे देखने लगे कि मैं क्या कह रहा हूँ और फिर कस के चिपट कर फफकफफक कर रो दिए। उस समय शायद पापा की आँखों में भी आंसूं आ गए होंगे। मैं और दीदी सबकी आँखों से आंसूं हीबह रहे थे। इस जगह मैं सिर्फ एक बड़ा भाई रह गया था।
गतांक से आगे:
किसी भी चीज का आरम्भ और अंत क्या अपने सोचने से होता है शायद नहीं। मैं भी तो भटक रहा हूँ कि किसी तरह से शामली के बारे में फैसला ले सकूं लेकिन क्या ये मेरे वश में है ? मैंने दीदी को यहाँ आने के लिए कहा क्योंकि मैं खुद को इस मामले में सामने नहीं लाना चाहता था। दीदी ने अगले हफ्ते आने की बात कही थी। तब तक मैंने महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग कि नजर में शामली बारे में जानकारी लिखित तौर पर भेज दी थी क्योंकि सिर्फ अपने ऊपर ये काम लेना शायद ठीक नहीं होगा। उसको अगर इन लोगों से सहयोग मिलेगा तो उसको अपने थोपे हुए वैवाहिक जीवन से भी मुक्ति मिल सकेगी ।
दीदी के आने तक मैंने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। और उसके आते ही मैंने नितिन को शामली के गाँव भेजने का प्रबंध कर दिया। पहले दीदी ने वहाँ जाकर गाँव में उस घर और परिवार के बारे में सारी जानकारी ले ली थी। घर उनका आज भी बाहर से ताला लगा था और उनके इस रहस्यमय व्यवहार से गाँव वालों को भी हैरानी थी। इस विषय में खुसपुस होती रहती थी। शामली को आजतक किसी ने बाहर नहीं देखा था। वह जिन्दा है या मर गयी इसके बारे में भी कोई बता नहीं पाया।
महिला पुलिस , आयोग के कुछ सदस्य दीदी और नितिन के साथ ही शामली के घर पर छापा मारा गया। पिछले दरवाजे से घुस कर ही उनके घर में जाया जा सका लेकिन वहाँ से अन्दर आने पर ये पता नहीं चल सकता था कि इसमें कोई इंसान भी रहते हैं क्योंकि उस जगह से सिर्फ जानवरों की आवाजाही ही हो सकती थी। उनके रिहायशी घर के लिए सिर्फ एक खिड़की थी जिसके रास्ते अन्दर प्रवेश किया गया। सबसे पहले सामना शामली के ससुर से ही हुआ। इतने सारे लोगों को देख कर वह एकदम घबरा गए और उन्होंने अन्दर जाने के रास्ते को बंद कर दिया। फिर वह अन्दर से अपने बेटे की बन्दूक उठा लाये बगैर ये सोचे समझे की ये लोग कौन हैं?
"आप लोग कौन हैं?"
"हम लोग महिला आयोग से आये हैं और अपने साथ ये पुलिस भी लेकर आये हैं। इनको आप जानते होंगे ये आपकी बहू के भाई हैं।"
"इससे क्या मतलब? मेरे घर में घुस आने का आपका उद्देश्य क्या है? "
"हमें सूचना मिली है की आपने अपनी बहू को जबरन घर में रखा है और उसके पति को उससे कोई भी मतलब नहीं है। साथ ही उसकी पहली पत्नी भी है इस लिए हम आपकी बहू से कुछ पूछना चाहते हैं।"
"ये सब गलत है, हमारी बहू हमारे साथ रहती है और लड़का हमारा शहर में धंधा करता है।"
"क्या धंधा करता है?
"ठेकेदारी का।"
"चार सौ बीसी का भी तो करता है। किस अपराध में वह जेल में बंद है?"
"मुझे कुछ नहीं मालूम है, वह शहर में रहकर काम करता है।"
"अच्छा फिर आप अपनी बहू को बुला दें , हम कुछ उससे पूछना चाहते हैं।"
"हमारी बहू किसी बाहर वाले के सामने नहीं निकलती है."
"लेकिन हमारे सामने तो उसको लाना ही पड़ेगा, क्योंकि हमें उसके बारे में मिली सूचना की तहकीकात करनी है।"
"अगर मैं न बुलाऊँ तो?"
"फिर तो हमें जबरन अन्दर जाकर उससे बात करनी होगी और आपको हमारे काम में दखल देने के आरोप में अन्दर भी किया जा सकता है।"
इतना सब सुनकर दबंग बेटे के दबंग बाप के पैरों तले जमीन खिसक गयी। वह अन्दर गया और शामली को बुलाकर ले आया। शामली के रूप को देख कर नितिन का भी सर चकरा गया क्योंकि जब उसने देखा था तो शामली ठीक थी अब तो वह एकदम काली सी, आँखें गड्ढे में घुसी हुई और बीमार सी लग रही थी। उन्हें शायद इतना मौका नहीं मिला कि वे उसको कुछ सिखा पाते। इतने सारे लोगों को देख कर वह घबरा सा गए थे। शामली भी इतने सारे लोगों के साथ नितिन को देख कर घबरा गयी । पता नहीं उसके मन में क्या विचार आया हो? वह पत्ते के तरह से काँप रही थी। फिर दीदी ने आगे बढ़ कर उसके कंधे पर हाथ रखा और बोली -
"घबराओ नहीं , हम सब तुम्हें यहाँ से लेने आये हैं। अगर तुम चलना चाहो तो चल सकती हो?"
एक घर के अन्दर दबी हुई लड़की कल लिए ये आसान न था कि वह ये सब सुनकर शांत रहती , वह रोने लगी और तब नितिन ने उसको आगे बढ़ कर समझाया - दीदी , हम लोग तुम्हें इस घर से ले जाने आये हैं और इसी लिए हम सारे कानूनी कागज भी लाये हैं ताकि यहाँ से आपको निकल सकें।'
"फिर हम कहाँ जायेंगे? वह वहाँ तो नहीं पहुँच जायेंगे? " भय उसके चेहरे पर पूरी तरह से परिलक्षित हो रहा था। यहाँ से बाहर निकलने के लिए सोचना उसके लिए सपना था। सिर्फ एक बार निकली थी जब कि उसको वैरिफिकेशन के लिए ले जाया गया था। उसके बाद फिर उसी कैद में बंद। नौकरों की तरह से काम करते रहो और रोटी खाते रहो। न कोई बोलने वाला न सुख दुःख को पूछने वाला। जब से संदीप जेल चला गया तब से उसको और अधिक प्रताड़ित किया जाने लगा था। उसकी दशा इस बात को खुद ही जाहिर कर रही थी।
"नहीं ऐसा कुछ भी नहीं होगा, तुम्हें हम अपने साथ रखेंगे , कहीं अकेले नहीं रहना है।" महिला आयोग कि सदस्य ने उसको आश्वासन दिया ताकि वह साथ जाने के लिए तैयार हो सके। बाहर पुलिस ने गाँव के कुछ और लोगों को बुलाकर गवाह बनाया और शामली के बयान करवा कर उन सब से दस्तखत लेकर एक प्रति उसके ससुर को देकर और खुद बाकी लेकर शामली को उसी हालात में लेकर चल दिए।
रास्ते भर शामली नितिन से सट कर बैठी रही क्योंकि उसको ये विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस कैद में वह बरसों से बंद थी और उससे वह कभी आजाद भी हो सकती है। उसको अभी महिला आयोग के अधीन ही रहना था और इसके लिए दीदी ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए उसको अपने साथ रखने कि पेशकश की। कानूनी कार्यवाही के के बाद उसकोi दीदी को सौप दिया गया।
अभी तो शामली को मुक्त करने होने ये पहले अभी तो उसको संदीप के साथ हुए विवाह से भी मुक्त कराना था उसकी तो अवैध वैसे भी था फिर भी वो रास्ते इतने सरल नहीं होते ,जो हिन्दू धर्म में अग्नि को साक्षी बनाकर सात फेरे के साथ बाँध दिए जाते हैं।
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पूरा एक साल लगा था उस प्रक्रिया से गुजर कर शामली को फिर से शामली बनने में। वह दीदी के साथ ही रही। दीदी ने तो उसको बहन बनाकर रखा लेकिन वह शायद इसको सपना माँ कर जी रही थी। कभी नितिन से बात करती तो कहती कि नितिन ये दीदी बहुत अच्छी हैं बिल्कुल मम्मी जैसा प्यार करती हैं। अपने साथ घुमाने ले जाती हैं। मुझे तो बहुत सारे कपड़े और सामान भी दिलाये हैं। वह जब बच्ची थी जब उसको पापा और माँ ने अकेले छोड़ कर दुनियाँaसे कूच कर लिया था। प्यार जैसी चीज उसने अपने होश में तो देखी ही नहीं थी। बीच बीच में उसको लखनऊ भी जाता उसकी पेशी और केस के लिए उसका आना जरूरी होता था। आखिर वह दिन भी आया जब कि अदालत ने भी शामली माथुर को संदीप माथुर कि पत्नी होने के कलंक से मुक्त कर दिया। संदीप को भी लाया गया था। उसकी पहली पत्नी भी साथ आती थी। उसे क्या पता था ? कि न तो संपत्ति मिलेगी और कलंक के साथ जेल अलग जाना पड़ेगा। मैं इस दृश्य के दौरान कहीं भी सामने नहीं आया था।
उसके एक महीने के अन्दर ही मैंने नितिन और शामली को पापा के घर में रहने के लिए सोची क्योंकि अब कभी तो उसको वहाँ रहने के लिए तैयार होना ही पड़ेगा। मुझे इसके लिए एक प्रायवेट सिक्योरिटी भी भी व्यवस्था करनी पड़ी।
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ये सारी व्यवस्था मुझे ही करनी थी। मैंने घर को साफ करवा कर उसमें पूजा करके उन दोनों को वहाँ रखने की सोची थी। इसके लिए मैंने नाना और नानी को भी बोला कि मैं पापा के घर को खाली करवा कर उसे नई माँ के बच्चों को सौपने जा रहा हूँ। वे दोनों भड़क गए कि तू भी तो उसमें हक़दार है और मेरा कदम उन्हें पसंद नहीं आया और ये तो स्वाभाविक था क्योंकि उनकी बेटी के बच्चे भटके रहे और मकान कोई और ले । लेकिन ये उनकी सोच थी जो ममता से भरी थी और गलत भी नहीं थी मैं उनके भावों को समझ सकता था लेकिन मेरे लिए पापा के सपनों और उनके बच्चोंके प्रति जो भी फर्ज बनता था उसको पूरा करना ही था।
पूजा में मैं दीदी नितिन और शामली ही थे और साक्षी थे पापा और नई माँ के चित्र। जब मैंने हवनपूरा किया तो उठा कर पापा के चित्र के आगे सर नवाया कि पापा जो मेरी समझ आया वो मैंने किया है और शेष जोबचा है वह मैं आगे भी करूंगा। आप चिंता न करें अब तो जंग जीत ही ली है। शायद नितिन और शामली को ये समझनहीं आ रहा था कि मैं उनके पापा के आगे क्यों सर झुका रहा हूँ? नितिन ने भी पापा के फोटो के पैर छुए और फिर मेरे , दीदी और शामली के। शामली भी मेरे पैरों कि तरफ झुकी तो मैंने उसको बीच में ही थाम लिया - 'बेटियाँ पैर नहीं छूती।'
'साब आपने मेरे और नितिन के लिए इतना किया , तो मैं पैर क्यों नहीं छू सकती ?'
'मैंने नितिन और शामली को अपने दोनों हाथों से थाम कर सीने से लगा लिया और कहा - 'क्योंकि मैं तुम्हारा बड़ाभाई हूँ।' दोनों बच्चे चेहरा ऊपर उठा कर मुझे देखने लगे कि मैं क्या कह रहा हूँ और फिर कस के चिपट कर फफकफफक कर रो दिए। उस समय शायद पापा की आँखों में भी आंसूं आ गए होंगे। मैं और दीदी सबकी आँखों से आंसूं हीबह रहे थे। इस जगह मैं सिर्फ एक बड़ा भाई रह गया था।
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