सोमवार, 31 जनवरी 2011

कौन कहाँ से कहाँ (१५)

                          पूर्वकथा :                आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला . पिता और सौतेली माँ के एक्सीडेंट में निधन के बाद उसने खुद पापा की तरह आई ए एस बनने का संकल्प लिया   पहली पोस्टिंग वाले बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया. आशु ने नितिन को शामली के वैरिफिकेशन के लिए उन्नाव से बुलवा लिया था.  आशु ने बातों हइ बातों में ये जान लिया कि क्या शामली वह घर छोड़ सकती है.. उसके बाद आशु ने अपने , अपनी दीदी और नितिन के नाम से आब्जेक्शन लगा कर सारे कागज़ भेज दिए , जिससे की शामली के पति को कुछ मिल न सके लेकिन वह संदीप के तरफ से किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार था. उसकी पत्नी से आकर धमकाया और बताया की शामली से शादी उसकी सहमति से और जायदाद के लिए ही की गयी है. इसके बाद आशु ने पापा के मकान के लिए कोशिश शुरू की की उस मकान को नई माँ के भाइयों के हाथों से लेकर उसका कब्ज़ा नितिन और शामली को दिलवा दिया जाय.  ..............
गतांक से आगे... 





           अब मेरी समझ में ये बात पूरी तरह से आ चुकी थी कि ये जंग लम्बी तो है लेकिन अजेय नहीं है. इसके कई मुकाबले होने थे. इसमें लखनऊ से नितिन को मकान दिलाने की मुहिम, शामली को उस घर से निकालने की मुहिम और फिर नितिन को पापा के स्थान पर कोई नौकरी दिलाने की मुहिम. इन सब में कितना समय लगने वाला है ये तो मैं नहीं जानता था लेकिन अब जब जंग शुरू कर दी है तो पीछे हटाने का कोई सवाल नहीं था. मैं अब इस काबिल था कि  इन सब जंगों को एक साथ लड़ सकता हूँ.
                        मेरी पहली लड़ाई नितिन को पापा के बदले में कोई नौकरी दिलानी थी. उसको स्थापित करके ही तो शामली को बाहर ला सकता हूँ ताकि वह आगे की जिन्दगी के लिए एक मजबूत सहारे के साथ कुछ अलग सोच सके. इसके लिए मुझे बार बार लखनऊ  के चक्कर लगाने पड़ेंगे. नितिन की ग्रेजुएशन  की  आखिरी साल है . अब सही   मौका है जब  कि  उसको  नौकरी  के  लिए   आगे  बढ़ाना  होगा . पापा  की  मौत  के  इतने  साल  बाद  यह  काम आसान नहीं था  फिर  भी  असंभव  तो  कुछ  भी  नहीं  है 
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                  नितिन के सारे कागजों के साथ पापा के उत्तराधिकारी होने का दवा मैंने पापा के नौकरी से सम्बंधित ऑफिस में जमा कर दिए. ये बात मैंने नितिन और दीदी को भी बता दी थी. इस प्रक्रिया में कई महीने लग गए. इस काम में मुझे पापा के कई समकालीन अफसरों का पूरा सहयोग मिला. मुझे उनको अपना असली परिचय भी देना पड़ा कि मैं भी उनका ही बेटा हूँ लेकिन ये नौकरी मैं अपने छोटे भाई के लिए चाहता हूँ. वैसे तो इस पर बड़े बेटे का हक़ होता है लेकिन मैं स्वयं समर्थ था और मुझे इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी. मेरी बात से सभी सहमत हो गए और इस विषय में जो भी सहायता वे कर सकते थे उसके लिए उन्होंने मुझे आश्वासन दिया. नितिन के सारे काम के लिए मैंने अपने द्वारा ही सारा पत्र व्यवहार किया था और इससे सम्बंधित सारी कार्यवाही मेरे द्वारा ही हो रही थी इसलिए मैंने हर जगह पर उसके समुचित प्रमाण और कागज़ उपलब्ध करा रहा था. 
                               दस महीने तक मेरी मेहनत के बाद नितिन को लखनऊ में डी एम ऑफिस में क्लर्क की पोस्ट मिलने  की सूचना मेरे पास आई. उस कागज को पढ़ कर मेरी आँखों में आँसू आ गए कि कभी मेरे बंगले में मैंने अपने उस भाई को मिट्टी में सने हाथ देख कर ऐसा कुछ नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा कुछ करना है लेकिन आज जो परिणाम मेरे सामने है . वह मेरी सबसे बड़ी सफलता है. मैंने नितिन को फ़ोन करके बुलाया. नितिन दूसरे दिन सुबह मेरे पास तक पहुँच गया. 
"जी, आपने मुझे बुलाया था."
"हाँ, नितिन अब तुमको वहाँ नौकरी करने कि जरूरत नहीं है.." 
"क्या मुझे यहाँ पर नौकरी मिल जायेगी?" उसने उत्सुकता से मुझसे सवाल किया.
"नहीं."
"फिर ?" 
"तुम्हें नई नौकरी लखनऊ में मिल रही है और वह भी तुम्हारे पापा के ऑफिस में. वहाँ पर तुम्हें उनके वारिस होने के नाते नौकरी दी जा रही है."
"पर ये हुआ कैसे?" उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित भाव उभर आये थे. 
".क्या कैसे हुआ? इसको मत जानो. बस इतना है कि तुमको अगले महीने की १७ तरीक से लखनऊ आकर अपनी नौकरी ज्वाइन करनी है." 
"फिर उन्नाव से कैसे आऊंगा?" 
"वो मैं देख लूँगा, तुम १६ को मेरे पास आओगे और मैं तुमको लेकर लखनऊ चलूँगा. वहाँ पर तुम्हारी जोइनिंग करवा कर मैं वापस आ जाऊँगा." मैंने संक्षेप में उसको सब कुछ बता दिया.
"मैं अब वापस उन्नाव जाऊं क्या?"
"नहीं , तुम शामली के घर जाकर उससे मिल कर आओ और उसको अपनी नौकरी की खबर भी सुना कर आना." मेरा ये विचार था कि शामली नितिन की नौकरी के बारे में सुनकर खुश होगी और उसको अपने अँधेरे जीवन में एक मजबूत सहारे के आशा का दीपक जलता हुआ दिखाई देगा. 
"और हाँ , वहाँ से लौटकर तुम यहाँ मेरे पास आओगे और उसके बाद ही उन्नाव जाओगे. "
"जी ठीक है." 
                         दूसरे दिन जब नितिन मेरे पास आया तो उसका चेहरा उतारा हुआ था. उसके चेहरे पर निराशा झलक रही थी. 
"क्या हुआ नितिन, शामली से मुलाकात हुई कि नहीं.? " 
"नहीं?"
"क्यों?"
"उनके घर में बाहर से ताला लगा हुआ था, जो कई महीनों से लगा हुआ है"
"क्या ? वे लोग वहाँ से कहाँ गए?"
"वे कहीं नहीं गए? उन्होंने किन्ही कारणों से बाहर ताला डाल दिया और पीछे के दरवाजे से ही निकलते है और बाहर भी कम ही निकलते हैं. "
ये तुम्हें पता कैसे चला?" 
"जब मैंने ताला देखा तो आस पास लोगों से पूछा तो सबने यही बताया और मैं पीछे कि ओर वाले दरवाले से अन्दर गया , उस हिस्से में सिर्फ जानवर रहते हैं और उसमें उन लोगों ने एक खिड़की जैसे बना कर उस रास्ते से निकलने लगे हैं."
"फिर शामली से मुलाकात क्यों नहीं हुई?"
"उसके ससुर ने मुझे मिलने ही नहीं दिया कि वह तो अपने पति के साथ चली गयी है और मुझे बाहर गाँव वालों से पता चला कि वो घर में ही रहती है." 
"ओह तो ये बात है, छोडो फिर कोई दूसरा रास्ता निकालते हैं उससे मिलने का. अभी तुम उन्नाव जाओ, मुझे कुछ इसी बात का अंदेशा था और इसी लिए मैंने तुम्हें वहाँ भेजा था."
"फिर दीदी कैसे मिलेगी हम लोगों को?" 
"मिलेगी , तुम परेशान मत हो. "
                        इसके बाद नितिन वापस उन्नाव चला गया और मुझे आगे के बारे में सोचने का समय मिल गया.