सोमवार, 23 मई 2011

अग्नि-परीक्षा !whole

           कुछ ही दिन पहले वह मुझे नर्सिंग होम कि लिफ्ट में टकरा गयी। एक लम्बे अरसे बाद मिली । सारी चीजें वही लेकिन बस चेहरे से उम्र झलकने लगी थी और हो भी क्यों न करीब १९ वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद वह मुझे मिली थी।
इस बीच कभी उसकी कोई सहेली मिल गयी और जिक्र हुआ तो कुछ समाचार उसका मिलता रहा , बस इतना जानती थी कि निमिषा बेंगलोरे में किसी संस्थान में प्रोफेसर है।
"निमिषा" मैं तो उसको देख कर चीख ही पडी थी।
"हाय दीदी, आप यहाँ कहाँ?"
"यहाँ मेरा भांजा एडमिट है - उन्हीं के साथ हूँ और तुम?"
"सासू माँ एडमिट है - उनसे पास हूँ।" उसकी मंजिल आ गयी और वह रूम नं बता कर आगे बढ़ गयी और मैं ऊपरचली गयी।
लिफ्ट तो ऊपर जा रही थी और मैं अतीत के सागर में गोते लगाने लगी। हम भूल जाते हैं कभी कभी ऐसे लोगों को जिनको कुछ कहा जा सकता है और ऐसी ही निमिषा थी। ३ वर्षों तक वह मुझसे बराबर मिलती रही थी जिसमें से एक साल तो हम साथ ही बैठते थे और हर बात भी शेयर करते थे लेकिन तब वह सिर्फ एक पढ़ने वाली लड़की ही थी।
          आज से २४ साल पहले कि बात है तब मैंने अपनी नौकरी नई नई ज्वाइन की थी। आई आई टी के मानविकी विभाग में मेरी पहली नियुक्ति हुई थी। निमिषा वहीं पर मनोविज्ञान  में पी एच डी कर रही थी । उसके गाइड का कमरा मेरे कमरे के ठीक सामने था और वह अक्सर आती और वहाँ से निकल कर हमारे कमरे में बैठ जाती और कभी अपना काम करती और कभी बातें करने लगती।
              इस दुनियाँ में उपहास करने वाले बहुत होते हैं और उसकी फिजिक कुछ ऐसी थी कि अक्सर लड़के कम लड़कियाँ यहाँ तक की उसके साथ ही पढ़ने वाली उसकी हंसी उड़ाया करती थीं। मैं सुनती सब रहती लेकिन मेरी बोलने की आदत कम ही है तो उनके प्रति मेरे भाव कभी अच्छे न रहे। वह सामान्य से कुछ अलग थी । चेहरा में उसके भोलापन और छोटा सा चेहरा लेकिन कंधे से लेकर नीचे तक उसका शरीर काफी बेडौल और मोटा था। कंधे पर बैग टांग कर वह अक्सर आकर बैठ जाती। धीरे धीरे वह कब इतनी करीब आ गयी पता नहीं लगा। फिर उसने ही बताया कि बचपन में एक बार उसे रीढ़ की हड्डी में कोई समस्या हुई थी और डॉक्टर ने आपरेशन किया जिसमें कोई गड़बड़ी आ गयी और फिर उसका शरीर इस तरह से बेडौल हो गया। वह अच्छे सम्पन्न घर की लड़की तीन बहनों में सबसे छोटी थी और भाई उससे भी छोटा। सोच और व्यवहार से बड़ी समझदार और सहृदय थी। भगवान ने उसे सोने सा दिल दिया था , तभी उसे किसी से कोई शिकायत नहीं होती और अगर किसी ने कह दिया तो उसने कभी उसका काम करने से इनकार नहीं किया। संस्थान के नियमानुसार उसने हॉस्टल में ही कमरा लिया था और छुट्टी में वह घर चली जाती ।
              मैं घर से लंच बना कर ले जाती और गर्मियों में वह इतनी धूप में पैदल हॉस्टल जाने के डर से अपना खाना पैक करवाकर वहीं मंगवा लेती थी। फिर हम लोग साथ बैठ कर खाना खाते। अपनी कमी पर विजय पाने के लिए ही उसने आईआईटी से पीएचडी करने का संकल्प लिया और उसमें सफल भी हुई। आलोचना करने वालों कि कहीं भी कमी नहीं होती है और ऐसे ही मेरे ही साथ काम करने वाली और भी लड़कियाँ और महिलायें थी। जिनकी चर्चा का विषय कभी कभी निमिषा ही होती थी।
"कौन करेगा इससे शादी? अच्छे अच्छों का तो ठिकाना नहीं है।"
"कोई दुहाजू या फिर तलाकशुदा मिल जायेगा। कुंवारा तो मिलने से रहा और न कोई करेगा। "
"इसकी शादी हो ही नहीं सकती है।"
"बाकी बहनों की हो जायेगी और ये उनके घर में बच्चे सँभालेगी।"
           इस तरह से जुमले मेरे ही कमरे में उछाले जाते थे और जब वह न होती तो हमारे कमरे में बैठने वाली लड़कियाँ ही ऐसा करती । मेरी सोच शुरू से ही ऐसी ही रही , किसी की आलोचना या फिर उसकी कमी पर कमेन्ट करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा। प्रपंच और गाशिप भी मुझे कभी पसंद नहीं रही। मैं सोचती कि भगवान ने उसके लिए भी तो कुछ सोचा होगा , ईश्वर करे इसको भी मनचाहा वर मिले आख़िर उसके भी तो सपने होंगे। फिर ये ईश्वर के दिए यह  दंड उसके जीवन का अभिशाप क्यों बने?
              सारे लोग लंच में घर या फिर हॉस्टल चले जाते मैं ही कमरे में अकेली रहती थी और निमिषा आ जाती क्योंकि वह साइकिल नहीं चला पाती और हॉस्टल विभाग से बहुत दूर था। वह अकेले में बैठ कर बातें करने लगती।
        "मम्मी पापा को मेरी ही चिंता है, दीदी की शादी हो गयी , दूसरी की भी हो जाएगी। मुझसे कौन करेगा?"
"ऐसा नहीं होता है, कोई तो वर तेरे लिए भी रचा गया होगा।"
"हाँ है न, पर मम्मी पापा पता नहीं माने या न माने?"
"क्यों?"
"वह हमारे दूर का रिश्ते का है, उसकी एक्सीडेंट में एक हाथ कट गया था और उसने नकली लगवाया हुआ है। वैसे सब अच्छा है।
"फिर"
":नहीं लगता कि घर वाले राजी होंगे, घर आता जाता है, एक दिन उसने ही प्रस्ताव रखा - "निमिषा, हम लोगों को कोई सामान्य तो समझता नहीं है , फिर क्यों न हम लोग एक दूसरे का हाथ थाम लें।" मैंने उससे सोचने का समय माँगा और उससे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कहा है।
"फिर परेशानी क्या है?"
"मेरे और उसके घर वाले कभी राजी नहीं होंगे। मेरी शादी न हो ये तो घर वालों को मंजूर है लेकिन कुमार से नहीं।"
"कभी पूछा तुमने इस बारे में?"
"पूछना क्या है? मैं जानती हूँ न, अभी तो अपनी डिग्री पर ध्यान देना है फिर कुछ और सोचूंगी।"
ये बात आई गयी हो गयी। उसने एक बार कुमार से मुझे मिलवाया भी था। उसके हॉस्टल की  कुछ लड़कियों ने बताया भी कि इसके पास कोई इसका रिश्तेदार आता है, शायद दोनों में कुछ चल रहा है। एक साल तक मैं उस विभाग में रही और फिर मशीन अनुवाद में कंप्यूटर साइंस में आ गयी। रोज का मिलना बंद हो गया और फिर वह कभी कभी आ जाती। उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी तो फिर कभी बहुत  दिनों तक उससे मुलाकात नहीं हुई।
                   वह यहाँ रही समय मिलने पर मिलने के लिए  जाती थी लेकिन मेरा विभाग दूसरा और साथ के लोग भी दूसरे तो वह उतने खुल कर बात नहीं कर पाती थी। फिर एक दिन वह अपनी थीसिस जमा करके चली गयी । महीनों के बाद जब उसका डिफेंस हुआ तब आई थी । उसमें उसने लंच पर मुझे भी बुलाया था। लंच में कुमार भी था किन्तु आगे के विषय में  मैंने कुछ पूछना ठीक समझा और  इतने लोगों के बीच कुछ बताना उसने सही समझा होगा उसके बाद बहुत लम्बे समय तक उससे मुलाकात नहीं हुई और  कोई समाचार ही मिला। उन दिनों मोबाइल भी  थे कि एक दूसरे से संपर्क कर पाते और नहीं नेट कि सुविधा इतनी अच्छी थी। सफर के मुसाफिर की तरह से हम बिछुड़ चुके थे         
                         कई वर्ष के बाद मुझे उसकी एक सहेली मिली तो उसने बताया कि निमिषा और कुमार ने कोर्ट मैरिज कर ली और दोनों घरों के दरवाजे दोनों के लिए बंद हो गए। शादी करके वह सीधे मेरे ही घर आई थी और फिर मेरी मम्मी ने उसका बेटी कि तरह से स्वागत किया और विदाई की। सुनकर बहुत अच्छा लगा कि उसको मंजिल तो मिली लेकिन वह मन्जिल थी या फिर अग्नि परीक्षा देना अभी बाकी था ये तो मुझे पता ही नहीं था।
        फिर एक लम्बा अंतराल और कोई खोज खबर नहीं। उसकी अपनी व्यक्तिगत बातों को तो उसके अलावा और कोई नहीं बता सकता था और मैं उससे बिल्कुल ही अनभिज्ञ थी। फिर एक बार दुबारा उसकी मित्र से मुलाकात हुई क्योंकि वह कैम्पस की ही रहने वाली थी तो कभी जब भी आती तो आ जाती थी। उससे ही पता चला कि निमिषा की जॉब लग गयी बेंगलोरे में और उसके एक बेटी भी है। कुमार ने भी वही पर जॉब कर ली है। उसका फ़ोन नंबर तो मैंने लिए लेकिन फिर भूल गयी ।
इधर कुछ महीने पहले ही फेसबुक पर
 उसका कमेन्ट देखा - हाय दी मैंने आपको खोज ही लिया। उसमें ही उसके परिवार के फोटो भी देखे और एक दो बातें हुई लेकिन फिर सब अपने अपने में।

             हम लोगों को कई दिन तक नर्सिंग होम में रहना पड़ा लेकिन अधिक मुलाकात नहीं हो सकी। एक दिन वह आ गयी कि चलिए कहीं बैठते हैं। उसे शायद कहने के लिए बहुत कुछ था और मुझे उससे सुनने के लिए भी। नहीं तो शायद ये कहानी भी न लिखी जाती। हम सामने एक कैफेटेरिया में जाकर बैठ गए।
"और सुनाओ कैसे कट रही है? "
"अब तो सब ठीक हो चुका है, लेकिन बहुत झेला है मैंने।"
"वही तो सुनने कि इच्छा है, कहाँ तो दोनों के परिवार इतने खिलाफ थे और कहाँ सब ठीक ।"
"आप सुनेंगी तो कहेंगी कि तुमने इतना सारा किया कैसे?"
"ये तो मैं जानती थी कि निमिषा तेरे में बहुत सहनशक्ति है और तू विपरीत धाराओं को भी मोड कर ला सकती है। "
"वो कैसे?"
"बस इंसान को परखने की समझ होनी चाहिए।"
"अब छोड़ ये सब बस मुझे शॉर्ट में बता दे कि कैसे ये सब हुआ?"
"दी , मैंने अपनी पीएचडी पूरे होते ही, सबसे पहले अपने घर में कहा, लेकिन घर में तो कोई सवाल ही नहीं था। मैंने घर छोड़ कर कुछ महीने हॉस्टल में ही बिताये। मैं इस चक्कर में थी कि यहीं कोई प्रोजेक्ट में मुझे जॉब मिल जाय तो मैं फिर अपनी बात के लिए इन्तजार कर सकती हूँ लेकिन जॉब नहीं मिली और फिर एक दिन मैंने कुमार से कहा कि अब हमें निर्णय लेना ही पड़ेगा नहीं तो कब तक हम सबके मुँह को देख कर बैठे रहेंगे।
           कुमार ने भी खुद को तैयार कर रखा था , उसने अपनी माँ से पहले ही बात कर ली थी और वे कतई राजी नहीं थीं। वे नौकरी करती थी और बहुत ही तेज तर्रार थीं। हम दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली और शादी करके मैं  शुभ्रा के घर सीधे आई थी। आंटी ने मुझे सपोर्ट दिया था और उन्होंने मुझे माँ की तरह से ही लिया। उन्होंने कहा भी कि तुम कुछ दिन यहाँ रह सकती हो लेकिन मैंने इसके लिए मना कर दिया ।
हम यहाँ से बाहर जाकर रह नहीं सकते थे क्योंकि कुमार की जॉब यही पर थी लेकिन हमने अपने घरों से दूर एक घर लेकर रहना शुरू कर दिया। कुमार की माँ का कहना था कि वह रोज वहाँ आएगा। कुमार अपने घर दिन में एक बार जरूर जाते। कुछ महीने के बाद उनकी माँ ने कहा कि तुम उसको ला  सकते हो लेकिन मैं उससे कुछ भी कहूं या करूँ तुम बोलोगे नहीं। कुमार को ये मंजूर नहीं था। उन्होंने मना कर दिया और मेरे पास आकर ये बात बतलाई। मैंने कुमार से कहा कि क्यों नहीं मान लेते उनकी बात।
"इस लिए कि मैं जानता हूँ कि मेरी माँ कितनी जिद्दी और कड़क स्वभाव की है। उसने अगर दुर्व्यवहार किया तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगा और फिर जो लिहाज के पर्दा बना हुआ था वह उठ जाएगा। "
"ऐसा कुछ भी नहीं होगा, मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि मैं सब कुछ सह लूंगी।"
"तुम सह लोगी ये मैं जानता हूँ लेकिन शायद मैं सहन नहीं कर पाऊँगा। हमने शादी की है कोई गुनाह नहीं किया, जिसकी सजा तुमको मिले। मैं भी तो बराबर का हकदार हूँ। फिर वही मेरे लिए होना चाहिए।"
             "कुमार, एक बार उन्हें मौका दो, घर छोड़ कर हम भी तो सुख से नहीं रह पा रहे हैं, उनकी आत्मा भी मुझे कोसती होंगी कि मेरे बेटे को छीन लिया।"
"अगर मुझसे सहन नहीं हुआ तो फिर मैं उस घर को जीवन भर के लिए त्याग दूँगा। अगर इस बात पर तुम राजी होतो मैं तुम्हें वहाँ ले जा सकता हूँ। "
"ठीक है, मुझे मंजूर है."
"दी हम लोग उस घर में चले गए लेकिन लगता ऐसा था कि वे मुझसे कोई बदला लेने की सोच रखी थी। उन्होंने सारे काम वाले निकाल कर बाहर कर दिए। मैं अपने शरीर के कारण नीचे बैठ कर कोई काम नहीं कर पाती थी. फिर मैंने अपने को इसके लिए तैयार किया। वह जल्दी अपने ऑफिस चली जाती थी और फिर कुमार भी मेरे साथ काम करवा लेते । इस जंग में कुमार ने जिस तरह से मेरा साथ दिया है तभी मैं उनकी माँ की परीक्षा में सफल हो पाई नहीं तो शायद मैं कब की टूट जाती?"
                 " मैंने दो साल उस घर में नौकरानी से भी बदतर स्थिति में गुजारे और मैं अकेले मैं खूब रोती कि क्या मैं इतनी पढ़ाई करके यही करती रहूंगी। मेरे पास जो डिग्री थी उसकी बहुत कीमत थी लेकिन जब तक कुछ नहीं तो बेकार ही थी। फिर शायद ईश्वर को मेरे ऊपर तरस आ गया और मुझे बेंगलोर से इंटरव्यू के लिए कॉल आ गयी। घर में मचा बवंडर कि इतनी दूर क्यों जाएगी यही कहीं कॉलेज में मिले तो कर लेना। लेकिन नहीं मुझे यहाँ से निकलने का मौका मिल रहा था और मैं उसको छोड़ना नहीं चाहती थी। ईश्वर ने भी साथ दिया और मुझे वहाँ जॉब मिल गयी। मैं वहाँ से वापस ही नहीं लौटी , पहले वहीं पर गेस्ट हाउस में रहने की जगह मिल गयी। कुमार ने यहाँ आकर सबको बता दिया। घर में कुहराम मच गया कि क्या जरूरत थी इतनी दूर जाने की। मैं तुमको तो वहाँ जाने नहीं दूँगी। कुमार तुरंत ही आने को तैयार थे कि वहीं कोई जॉब देख लूँगा लेकिन मैंने उसको मना किया कि मुझे कन्फर्म हो जाने दो फिर कोई कदम उठना । मैं कन्फर्म हो गयी और फिर कुमार भी यहीं आ गए। यही क्षिति का जन्म हुआ। लोगों को ये था कि मेरे शरीर के वजह से मैं कभी माँ नहीं बन पाऊँगी लेकिन ईश्वर ने वह भी रास्ता खोल दिया।
         
              क्षिति के जन्म के बाद सासु माँ ने वहाँ बुलाना चाहा लेकिन मैं ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया - "वे यहाँ आकर रह सकती हैं लेकिन मैं वापस नहीं आऊँगी।"
"तेरे मम्मी पापा का क्या रूख रहा।"
"मेरे मम्मी पापा भी सालों तक माफ नहीं कर सके लेकिन जब पापा को कैंसर हुआ तो भाई तो बाहर जाकर बस गया था। दीदी लोग भी बाहर ही थी लेकिन उनको भरोसा था अपनी बच्ची पर सो मेरे पास खबर भेजी - "क्या आखिरी समय भी नहीं आएगी?"  
         
                 "मैं वहाँ रहती थी तो छुट्टी नहीं लेती थी इसलिए मैं लम्बी छुट्टी लेकर आई और फिर पापा की बहुत सेवा की किन्तु वह उनका आखिरी समय था और वे भी चले गए । "
         
             "बहनें  मेरी पहले भी मेरी बहुत विरोधी न थी , सबके साथ औपचारिक सम्बन्ध बने हुए थे और आज भी बने हुए हैं।"

         फिर हम लोग उठ कर जब नर्सिंग होम आये तो मैंने सोचा कि निमिषा की सासू माँ से मिलती ही चलूँ। और मैं उसके साथ उसकी सास के पास चली गई। उनसे मेरा परिचय करवाया - "मम्मी जी, ये कीर्ति दी है, आईआईटी में ही काम करती थी, ये तो अभी भी वहीं है। ऊपर इनका कोई घर वाला भर्ती है तो मिल गयी औरआपसे मिलने के लिए आयीं है।"

           उनसे नमस्ते करके मैं वहीं बैठ गयी। चेहरे से बड़ी ही खुर्राट लग रही थी, इस उम्र में भी उनके चेहरे पर चमक थी। मैं इतना कुछ इनके बारे में सुन चुकी थी कि मुझे लग रहा था कि निमिषा कैसे इनके साथ रह रही है?

"आप की तबियत कैसी है?"

"हाँ अब तो ठीक हूँ, काफी आराम हो रहा है।"

"ये आपकी सेवा करती है या फिर ऐसे ही।"

"नहीं, ये मेरी बेटी है तो और बहू है तो इसने मेरी बहुत सेवा की है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये मेरी इतनी सेवा करेगी।"
                  
          उनके इन्हीं शब्दों के साथ मुझे लगा कि निमिषा ने वाकई अग्नि परीक्षा पास ही नहीं की बल्कि उसमें तपकर खरा सोना बन कर निकली। 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कौन कहाँ से कहाँ (१६)

पूर्वकथा: आशु एक डी एम का बेटा , जो अपनी माँ के निधन के बाद नाना नानी के यहाँ रहा। अपनी पहली पोस्टिंग वाली जगह पर सौतेले भाई से मिला , खून के रिश्ते ने उसको मजबूर कर दिया कि वह उसके लिए कुछ करे , नितिन का भविष्य बनने के लिए अपनी ओर से प्रयास किये और अपनी दूसरी पोस्टिंग वाली जगह पर सौतेली बहन के दुर्भाग्य से भी अवगत हो गया। एक डी एम के बच्चों की इस छोटी उम्र में होती हुई दुर्गति और अपने पापा से जुड़े भावों एन उसको मजबूर कर दिया कि पापा की सभी चीजें वह उन दोनों के लिए वापस दिलवाए । और फिर उसी के लिए नितिन को पापा के ऑफिस में नौकरी और शामली को उस नरक से वापस लाने के लिए प्रतिबद्ध आशु की आगे की कहानी.............।

सोचा तो ये है कि नितिन और शामली के जीवन को इस काबिल बना दूं कि वे फिर से एक नया जीवन जीसकें. उन्हें भाग्य ने धोखा तो दिया लेकिन उनके लिए इतना कुछ शेष है कि वे उसके सहारे ही एक बहुत अच्छाजीवन जी सकते हैं. इसके लिए मैं कहाँ से शुरू करूँ ये मुझको सोचना था. अभी एक महीने का समय था कि नितिनको नौकरी मिल जाएगी और मैं इतनी जल्दी सब कुछ करना चाह रहा हूँ कि वे अब और इस दल दल में जियें.
मेरा पहला पड़ाव पापा के घर पर ही हुआ, मुझे सबसे पहले उसको खाली करवा कर उसके हक़ कोदिलवाना था. यद्यपि यह काम इतना आसान था. जो लोग इस घर में वर्षों से रह रहे हों वे उसको छोड़ेंगे तो नहींबल्कि उसके लिए साम दाम दंड भेद सब अपना लेंगे. मैंने भी ठान लिया था कि इन लोगों ने जैसे पापा के रहने परमुझे डराया था उसका मजा तो उनको मिलना ही चाहिए. मुझे वहाँ से निकाल दिया था लेकिन कम से कम इन बच्चोंको तो वहाँ रहने दिया होता. लेकिन उनके लिए रिश्ते थे ही कहाँ? जो अपनी बहन को विधवा बना कर संपत्ति कोकब्ज़ा करने केलिए तैयार थे उससे अधिक नीचता और संवेदनहीनता और क्या हो सकती है? उन लोगों को बहन याउसके बच्चों के प्रति कोई भाव हो ही नहीं सकता है.
मैंने पापा के मकान के सारे कागजों के डुप्लीकेट लाने के लिए अपने सारे स्रोत प्रयोग किये क्योंकि मैंसारे प्रमाण के साथ सिर्फ और सिर्फ एक बार उनके सामने जाकर उस मकान को खाली करवाना चाहता था. 'भगवती ' नाम था उसका जिसने मुझे उस दिन फ़ोन किया था.
मैंने पुलिस का सहारा लेकर मकान खाली करने का नोटिस उस तक भेजा लेकिन वो लोग उनमें से तोथे नहीं कि इतनी आसानी से खाली कर देते और फिर कोर्ट का आदेश लेकर उस मकान पर कब्ज़ा करके ताला लगवादिया. लेकिन वे यह पता नहीं लगा सके कि ये काम किसने किया है? मुझे तो अब तक भूल भी चुके होंगे. नितिन केबारे में उनको कोई सूचना थी ही नहीं. शामली जिन्दा है या मुर्दा इससे उनको कोई मतलब नहीं था. मकान में तालालगाने साथ ही उसको तोड़ने पर कानूनी कार्यवाही का नोटिस भी वहाँ चस्पा करवा दिया था.
मेरे दिल में उस घर में रहकर पापा के अहसास को जीने का मन कर रहा था लेकिन उस घर में कैसे औरकब रह सकता हूँ. सारे अधिकार मेरे कब्जे में थे फिर भी मुझे लगा रहा था कि उस पर नितिन का ही हक़ है उसमें मैंकैसे रहूँगा.?
उस घर के हर कमरे में जाकर पापा पापा कह कर चिल्लाने का मन भी कर रहा था. एक बचपने जैसे ख्वाहिशपता नहीं क्यों मन में उमड़ने लगी थी. वो मेरे पापा का घर था शायद इसी लिए. मैं अपने आपको काबू नहीं रख सकाऔर फिर अगले ही सन्डे को मैं वहाँ जा पहुंचा. चाबी मेरे पास थी. माली को मैंने वहाँ से नहीं हटाया था. जैसे ही मैं वहाँपहुंचा और गाड़ी से उतरा तो माली दौड़ कर आया.
'साब , नमस्ते.' उसने पूरी तरह से झुक कर नमस्ते किया.
'कहो कैसे हो?' तुम्हारे मालिक कहाँ गए?'
'साब , एक दिन पुलिस आई थी तो सब को बाहर करके ताला डाल कर चली गयी.'
'फिर वो लोग नहीं आये क्या?'
'आए थे , लेकिन ये कागज पढ़ कर लौट गए , कह गए थे कि फिर आयेंगे.'
'अच्छा इस मकान की अच्छी तरह से सफाई करनी होगी तुम्हें, मैं शाम को फिर से आता हूँ. ' और मैंने उसको मकानकी चाबी पकड़ा दी.
दिन में मुझे और भी काम करने थे, मुझे पापा के बैंक के अकाउंट भी देखने थे. उनके लिए जरूरी कागजभी जुटाने थे. शामली का भविष्य शायद इससे सुरक्षित किया जा सके. शाम तक घर साफ हो चुका था और मैं उसकोबंद करके फिर से वापस फतेहपुर गया .

* * * * *
एक महीने के बाद नितिन को मैंने नौकरी दिलवा दी और अभी उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसको मकानकहीं और लेकर लेने के लिए बोला था. क्योंकि उसके मामा लोगों को उसके लखनऊ आने और नौकरी ले लेने के बारेमें प़ता चल चुका था . उस घर में रहने पर वे उसके लिए कुछ बुरा कर और करवा भी सकते थे. इस लिए मुझे उसकोफिलहाल उस घर से दूर ही रखना था. पापा के एकाउंट का काम होना इतना आसान नहीं था लेकिन मुझे करवाना तोथा ही और फिर वो सारा पैसा शामली के नाम भी कर देना था . जब मैं बैंक मेनेजर के सामने अधिकार के दावे कोलेकर पहुंचा तो उसने मुझे जलील करते हुए यही कहा - मि. माथुर की इस संपत्ति के कितने और दावेदार सामनेआयेंगे. अब तक मैंने दो दावेदारों से मिल चुका हूँ और उनमें से कोई भी दावेदारी के पुख्ता सबूत पेश नहीं कर सकाहै. अब आप एक नए दावेदार बन कर रहे हैं."
"मि. शुक्ल, मैं उन दावेदारों से नहीं हूँ और इसका दावेदार होते हुए भी मुझे इसमें से कुछ भी नहीं चाहिए है लेकिनइसके हक़दार होने के नाते आखिरी बार ये दावा आपके सामने आया है." मुझे कुछ गुस्सा तो आया लेकिन फिर यादआया कि वे भी गलत नहीं है . पहले नितिन के मामा आये होंगे और उसके बाद शामली का पति संदीप. मैंने अपनाविजिटिंग कार्ड मैनेजर को दिया तो वह मेरा चेहरा देखता रह गयाउसके बाद उसने मुझे इज्जत से बिठाया औरमेरी पूरी बात भी सुनीमैंने उसको स्पष्ट कर दिया की मुझे पापा की संपत्ति का क्या करना है? वह संतुष्ट हो गया औरउसने आगे की कार्यवाही देखने के लिए आश्वासन दिया
मुझे शामली के बारे में भी कुछ सोचना था लेकिन उससे पहले उसको उस विवाह से कानूनी रूप से मुक्त भीकरवाने कि प्रक्रिया शुरू करनी थी और उससे पहले उसको उस घर से भी निकलना था. उसको पुख्ता कानूनी तरीकेसे ही उस घर से निकलना होगा और फिर उस विवाह से मुक्ति
अब उसके लिए वह घर सिर्फ यातना घर बन चुका था. चारों तरफ से बंद मकान में वह कैसे रहती होगी? लेकिन उस घर के लिए एक बेपैसे कि नौकरानी भी तो बहुत जरूरी थी. अपने नाना के गैर जिम्मेदाराना निर्णय काखामियाजा वह भुगत रही थी या क्या कहा जा सकता है कि नाना ने अपने जीते जी उस लड़की को ये सोच कर शादीकी होगी कि वह एक एक दिन अपना अधिकार पा लेगी तो सुखी रहेगी क्या प़ता उसके बेटे उसके साथ कैसासलूक करें ? ऐसे लोगों का कोई भी ठिकाना नहीं होता है. जिनके लिए रिश्ते की कोई कीमत होती है और ही खूनका मोल.


सोमवार, 31 जनवरी 2011

कौन कहाँ से कहाँ (१५)

                          पूर्वकथा :                आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला . पिता और सौतेली माँ के एक्सीडेंट में निधन के बाद उसने खुद पापा की तरह आई ए एस बनने का संकल्प लिया   पहली पोस्टिंग वाले बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया. आशु ने नितिन को शामली के वैरिफिकेशन के लिए उन्नाव से बुलवा लिया था.  आशु ने बातों हइ बातों में ये जान लिया कि क्या शामली वह घर छोड़ सकती है.. उसके बाद आशु ने अपने , अपनी दीदी और नितिन के नाम से आब्जेक्शन लगा कर सारे कागज़ भेज दिए , जिससे की शामली के पति को कुछ मिल न सके लेकिन वह संदीप के तरफ से किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार था. उसकी पत्नी से आकर धमकाया और बताया की शामली से शादी उसकी सहमति से और जायदाद के लिए ही की गयी है. इसके बाद आशु ने पापा के मकान के लिए कोशिश शुरू की की उस मकान को नई माँ के भाइयों के हाथों से लेकर उसका कब्ज़ा नितिन और शामली को दिलवा दिया जाय.  ..............
गतांक से आगे... 





           अब मेरी समझ में ये बात पूरी तरह से आ चुकी थी कि ये जंग लम्बी तो है लेकिन अजेय नहीं है. इसके कई मुकाबले होने थे. इसमें लखनऊ से नितिन को मकान दिलाने की मुहिम, शामली को उस घर से निकालने की मुहिम और फिर नितिन को पापा के स्थान पर कोई नौकरी दिलाने की मुहिम. इन सब में कितना समय लगने वाला है ये तो मैं नहीं जानता था लेकिन अब जब जंग शुरू कर दी है तो पीछे हटाने का कोई सवाल नहीं था. मैं अब इस काबिल था कि  इन सब जंगों को एक साथ लड़ सकता हूँ.
                        मेरी पहली लड़ाई नितिन को पापा के बदले में कोई नौकरी दिलानी थी. उसको स्थापित करके ही तो शामली को बाहर ला सकता हूँ ताकि वह आगे की जिन्दगी के लिए एक मजबूत सहारे के साथ कुछ अलग सोच सके. इसके लिए मुझे बार बार लखनऊ  के चक्कर लगाने पड़ेंगे. नितिन की ग्रेजुएशन  की  आखिरी साल है . अब सही   मौका है जब  कि  उसको  नौकरी  के  लिए   आगे  बढ़ाना  होगा . पापा  की  मौत  के  इतने  साल  बाद  यह  काम आसान नहीं था  फिर  भी  असंभव  तो  कुछ  भी  नहीं  है 
                            *                          *                            *                             *
                  नितिन के सारे कागजों के साथ पापा के उत्तराधिकारी होने का दवा मैंने पापा के नौकरी से सम्बंधित ऑफिस में जमा कर दिए. ये बात मैंने नितिन और दीदी को भी बता दी थी. इस प्रक्रिया में कई महीने लग गए. इस काम में मुझे पापा के कई समकालीन अफसरों का पूरा सहयोग मिला. मुझे उनको अपना असली परिचय भी देना पड़ा कि मैं भी उनका ही बेटा हूँ लेकिन ये नौकरी मैं अपने छोटे भाई के लिए चाहता हूँ. वैसे तो इस पर बड़े बेटे का हक़ होता है लेकिन मैं स्वयं समर्थ था और मुझे इसकी कोई जरूरत भी नहीं थी. मेरी बात से सभी सहमत हो गए और इस विषय में जो भी सहायता वे कर सकते थे उसके लिए उन्होंने मुझे आश्वासन दिया. नितिन के सारे काम के लिए मैंने अपने द्वारा ही सारा पत्र व्यवहार किया था और इससे सम्बंधित सारी कार्यवाही मेरे द्वारा ही हो रही थी इसलिए मैंने हर जगह पर उसके समुचित प्रमाण और कागज़ उपलब्ध करा रहा था. 
                               दस महीने तक मेरी मेहनत के बाद नितिन को लखनऊ में डी एम ऑफिस में क्लर्क की पोस्ट मिलने  की सूचना मेरे पास आई. उस कागज को पढ़ कर मेरी आँखों में आँसू आ गए कि कभी मेरे बंगले में मैंने अपने उस भाई को मिट्टी में सने हाथ देख कर ऐसा कुछ नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा कुछ करना है लेकिन आज जो परिणाम मेरे सामने है . वह मेरी सबसे बड़ी सफलता है. मैंने नितिन को फ़ोन करके बुलाया. नितिन दूसरे दिन सुबह मेरे पास तक पहुँच गया. 
"जी, आपने मुझे बुलाया था."
"हाँ, नितिन अब तुमको वहाँ नौकरी करने कि जरूरत नहीं है.." 
"क्या मुझे यहाँ पर नौकरी मिल जायेगी?" उसने उत्सुकता से मुझसे सवाल किया.
"नहीं."
"फिर ?" 
"तुम्हें नई नौकरी लखनऊ में मिल रही है और वह भी तुम्हारे पापा के ऑफिस में. वहाँ पर तुम्हें उनके वारिस होने के नाते नौकरी दी जा रही है."
"पर ये हुआ कैसे?" उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित भाव उभर आये थे. 
".क्या कैसे हुआ? इसको मत जानो. बस इतना है कि तुमको अगले महीने की १७ तरीक से लखनऊ आकर अपनी नौकरी ज्वाइन करनी है." 
"फिर उन्नाव से कैसे आऊंगा?" 
"वो मैं देख लूँगा, तुम १६ को मेरे पास आओगे और मैं तुमको लेकर लखनऊ चलूँगा. वहाँ पर तुम्हारी जोइनिंग करवा कर मैं वापस आ जाऊँगा." मैंने संक्षेप में उसको सब कुछ बता दिया.
"मैं अब वापस उन्नाव जाऊं क्या?"
"नहीं , तुम शामली के घर जाकर उससे मिल कर आओ और उसको अपनी नौकरी की खबर भी सुना कर आना." मेरा ये विचार था कि शामली नितिन की नौकरी के बारे में सुनकर खुश होगी और उसको अपने अँधेरे जीवन में एक मजबूत सहारे के आशा का दीपक जलता हुआ दिखाई देगा. 
"और हाँ , वहाँ से लौटकर तुम यहाँ मेरे पास आओगे और उसके बाद ही उन्नाव जाओगे. "
"जी ठीक है." 
                         दूसरे दिन जब नितिन मेरे पास आया तो उसका चेहरा उतारा हुआ था. उसके चेहरे पर निराशा झलक रही थी. 
"क्या हुआ नितिन, शामली से मुलाकात हुई कि नहीं.? " 
"नहीं?"
"क्यों?"
"उनके घर में बाहर से ताला लगा हुआ था, जो कई महीनों से लगा हुआ है"
"क्या ? वे लोग वहाँ से कहाँ गए?"
"वे कहीं नहीं गए? उन्होंने किन्ही कारणों से बाहर ताला डाल दिया और पीछे के दरवाजे से ही निकलते है और बाहर भी कम ही निकलते हैं. "
ये तुम्हें पता कैसे चला?" 
"जब मैंने ताला देखा तो आस पास लोगों से पूछा तो सबने यही बताया और मैं पीछे कि ओर वाले दरवाले से अन्दर गया , उस हिस्से में सिर्फ जानवर रहते हैं और उसमें उन लोगों ने एक खिड़की जैसे बना कर उस रास्ते से निकलने लगे हैं."
"फिर शामली से मुलाकात क्यों नहीं हुई?"
"उसके ससुर ने मुझे मिलने ही नहीं दिया कि वह तो अपने पति के साथ चली गयी है और मुझे बाहर गाँव वालों से पता चला कि वो घर में ही रहती है." 
"ओह तो ये बात है, छोडो फिर कोई दूसरा रास्ता निकालते हैं उससे मिलने का. अभी तुम उन्नाव जाओ, मुझे कुछ इसी बात का अंदेशा था और इसी लिए मैंने तुम्हें वहाँ भेजा था."
"फिर दीदी कैसे मिलेगी हम लोगों को?" 
"मिलेगी , तुम परेशान मत हो. "
                        इसके बाद नितिन वापस उन्नाव चला गया और मुझे आगे के बारे में सोचने का समय मिल गया.