मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

कलम का ईमान !

                                                       कलम का ईमान !

                             अख़बारों में निकल रहे लेखों और शोध रिपोर्टों के चलते वह कई सम्पादकों की निगाह में चढ़ गया था। अपनी कलम की बेबाक गति के चलते  लोगों में लोकप्रिय भी हो रहा था। 

                             एक दिन उसके पास फ़ोन आया , एक अखबार के संपादक की तरफ से था - 

"जी मयंक जी बोल रहे हैं। "

"जी, बोल रहा हूँ, कहिये आप कौन?"

"मैं युवाजंग पत्र का ओनर बोल रहा हूँ।"

"कहिए मैं आपके किस काम आ सकता हूँ?"

"कल आप मेरे ऑफिस आने का कष्ट करेंगे? गाड़ी मैं भेज दूँगा, बस आप लोकेशन बता दें।"

"आप बतलाइये, मैं खुद आता हूँ।"

"जी धन्यवाद!"

                    मयंक पत्र के कार्यालय पहुँचा तो उसका बड़ा स्वागत हुआ।  फिर वह मुद्दे की बात पर आये तो कहा गया कि आप पत्र का संपादन सँभाल लें।  वर्तमान संपादक की कलम उतनी दमदार नहीं है कि...। 

"लेकिन मैं किसी की जगह कैसे ले सकता हूँ?"

"मैं आपको दुगुना वेतन दे सकता हूँ।"

"सोच कर बताऊँगा। "

          यह कहकर मयंक घर आ गया।  पत्र के वर्तमान संपादक को ये बात पता चल गयी, लेकिन वह विवश था फिर भी उसने एक बार मयंक से बात करने की हिम्मत की - "भाई मेरे पेट पर लात मत मारिएगा। जीवन भर उनकी सेवा की और अब चंद सालों के लिए न शहर छोड़ सकता हूँ और न परिवार।"

"भाई बेफिक्र रहो मैं वहाँ नहीं जा रहा हूँ।"

         एक हफ़्ते बाद मालिक का फ़ोन आया कि आपने क्या सोचा ?

"सर आपको मेरी कलम पसंद है और वह सच्चाई और बेबाकी मेरी अपने कलम का ईमान है, लेकिन वो किसी और की रोटी नहीं छीन सकती।"

शनिवार, 20 नवंबर 2021

अहम् !

अहम् !

       शानू हमेशा गुमसुम रहता था । किसी के साथ रहना या खेलना उसको पसंद नहीं था ।उसकी टीचर और वार्डन ने बहुत कोशिश की, लेकिन शानू क्लास के बाद अकेले रहना पसंद करता ।  

        मम्मी-पापा के बीच बढ़ती दूरियाँ कहीं उसे न छू लें क्योंकि बच्चे संवेदनशील होते हैं वह अपने आस पास की आहटों को पहचान लेते हैं । इसीलिए उसे हॉस्टल में रखा गया था। वह एक भावनात्मक चक्रव्यूह में फंसा हुआ था।

           वार्डन ने उससे उसकी खामोशी का कारण जानना चाहा, लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला ।  हॉस्टल में कभी पापा मिलने आते तो कभी मम्मी , दोनों एक साथ कभी न आये । वार्डेन इसको दोनों के कामकाजी होने को इसका कारण मानने को तैयार न थी ।

            वह हॉस्टल जरूर आ गया था लेकिन वह मम्मी पापा की लड़ाई में ख़ुद को कहीं नहीं पाता था । उनकी अपने अहं की लड़ाई थी और जब उनके कमरे से गलत शब्दों की आवाज़ें कान में पड़ती तो वह कान में अँगुली ठूँस कर लेटा रहता । उस बाल मन को कोई रास्ता न सूझ रहा था । वह इस लायक था भी नहीं।

          स्कूल की काउंसलर ने शानू के पास आकर बात की और फिर उसको बताये बिना ही उसके माता पिता को बुलाकर काउंसलिंग की और कहा - "इसके बचपन को अपने अहं की बलि न चढ़ायें । साथ रहें या न रहें लेकिन इसके जीवन सँवरने तक यहाँ साथ आयें और मिलें । उसके समझदार होने तक छुट्टियों में उसके घर होने पर साथ जरूर रहें । बस किशोर वय निकलने तक ।"

     इस बार मम्मी पापा को साथ आया देख कर उसकी आँखों में चमक दिखाई दी , जो एक नयी आशा से भरी थीं । वह अपने मन के चक्रव्यूह को भेदने से खुश था.

रविवार, 7 नवंबर 2021

आठ हाथ !

                  नीना की लापरवाही से उसकी तबियत बिगड़ गयी और स्थानीय डॉक्टर्स ने हाथ खड़े कर दिए,  तब  ललित ने अपनी बहन को फ़ोन किया - "दीपा तेरी भाभी की तबियत कुछ समझ नहीं आ रही है , क्या करें ? भैयाजी से पूछ कर कुछ राय दे। "

- " भैया आप ऐसा करें कि भाभी तो यहाँ मेरे पास ले आइये। "

                               नीना को बहुत भयंकर पीलिया हुआ था, जिसे डॉक्टर समझ नहीं पाए और वह दवा लेते ही लेते और बढ़ गया। ललित की बाकी तीनों बहनें भी बारी बारी से देखने के लिए आ रही थीं और अपने भाई को सांत्वना देती कि भाभी ठीक हो जाएंगी।  उसे भी अपनी बहनों पर बहुत भरोसा था , कैसी भी परेशानी हो वे चारों और उनके पति कंधे से कन्धा मिला कर खड़े होते। इसी लिए वह आश्वस्त था कि  नीना यहाँ से ठीक होकर ही घर जायेगी। 

               ललित अस्पताल में नीना के सिरहाने बैठा था और उसका हाथ में हाथ लेकर बोला - " तुम्हें अपने तीन भाइयों पर फ़ख्र हो न हो लेकिन मुझे अपनी चारों बहनों पर फ़ख्र है।  कभी जिन्हें मैं जिम्मेदारी समझता था, उन्हीं के आठ हाथ आज तुम्हारे लिए दुआ कर रहे हैं। "

                  नीना आँखें नहीं मिला पा रही थी क्योंकि एक दिन उसी ने कहा था - "इन चार चार ननदों  को कहाँ तक निभाऊंगी ?"

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

मुर्दों का त्यौहार !

                                                     जब तक नितिन रहे नीलिमा ने श्राद्ध के दिनों में रोज ही कुछ नहीं तो दुकान के लिए निकलते हुए एक पैकेट जरूर देती और कहती इसे किसी गरीब को देते जाना।

                    नितिन को पता था कि श्राद्ध तो माँ और बाबूजी की तिथि पर ही कराती है, लेकिन ये पंद्रह दिन तक रोज ही इस तरह से सीधा निकाल कर और पाँच रुपये किसी न किसी गरीब को भेजती रहती है।  वह चुपचाप लेकर चला जाता।  उसको इन सब से ज्यादा मतलब नहीं था, ये काम महिलाओं के हैं कि क्या क्या करना है?

                                 अचानक नितिन के चले जाने पर नीलिमा ने सब बंद कर दिया क्योंकि श्राद्ध बहू बेटे के वश की बात नहीं है और वह किसी को यहाँ जानती नहीं तो किसको देगी ? गाँव में  होती तो और बात होती।  फिर भी संस्कार कहाँ जाते हैं ? नितिन की तिथि उसको याद हमेशा रहती है और इस बार उसने सोचा कि तीसरी साल है , बेटा - बहू कुछ करने वाले नहीं है तो वह ही कुछ नितिन की पसंद की चीज बना कर बाहर निकल कर किसी गरीब को दे आएगी।
                 सुबह बहू बेटे के ऑफिस निकलने के पहले ही उसने कहा कि - "बेटा कुछ पैसे चाहिए , आज तेरे पापा की पुण्य तिथि है तो मैं किसी  गरीब को कुछ फल दान करना चाहती हूँ। "

          "क्या माँ आप कब तक इस को मानती रहेंगी ? इंसान मरने के बाद भी खाने आता है क्या ?" बेटे ने पलट कर कहा।

           इससे पहले कि नीलिमा कुछ कहती बहूरानी बोल उठी - "हम दिन भर मेहनत करते इस लिए नहीं कमाते कि इसे मुर्दों के नाम पर खर्च किया जाय। सो इसे तो आप भूल ही जाइये कि जो आप अब तक पापा की कमाई से उड़ाती रही हैं , हम भी आप को उड़ाने देंगे। "

                    बहू - बेटा के जाने के बाद नीलिमा के कानों में नितिन के लिए "मुर्दा" शब्द देर तक गूंजता रहा।