गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (११)

पिछला  कथा सारांश    --
                                           आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला और फिर पिता की दूसरी शादी ने उससे उसके पिता को भी दूर कर दिया. अपने पापा को बहुत मिस करता था. जीवन के एक मोड़ पर एक एक्सीडेंट में उसके पापा और नई माँ दोनों स्वर्गवासी हो गए . उस खबर को सुन कर आशु अपने नाना के साथ लखनऊ भागा लेकिन उसकी नई माँ के भाइयों ने उसको पापा की अंतिम क्रिया भी नहीं करने दी और दुबारा वहाँ न आने कि हिदायत भी दी. वह अपने पापा के तरह से बनने के लिए आई ए एस की तैयारी करने लगा और फिर उसकी पहली पोस्टिंग उसी जगह हुई जहाँ वह पैदा हुआ था. उसी बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  एक माली के रूप में काम करता हुआ. उसके भविष्य के लिए उसको पढ़ने की व्यवस्था की. ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया ..................
इसके आगे.




                     मैंने घर आकर उन्नाव के डी एम को फ़ोन किया कि मुझे सन्डे को नितिन से कुछ काम है इसलिए वह उसको सन्डे को यहाँ भेज दें. इस विषय में मैंने किसी को भी नहीं बताया दी को भी नहीं कि मेरा अगला कदम क्या होगा? और मैं क्या निर्णय लेने वाला हूँ. मुझे तो ये किसी फिल्मी कहानी की तरह लगने लगा था . क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता है? जिन्दगी में ऐसे मोड़ और ऐसे कठिन  परीक्षा के क्षण- जिसमें इंसान खुद ही दब कर रह जाए.
                      क्या ईश्वर किसी की जिन्दगी इस तरह से पूरी तरह से तहस नहस कर देता है कि महलों से उठा कर इंसान को सड़क पर खड़ा कर दे और कहे कि अब अपने हाथ से सब कुछ कर. मैंने इसी लिए शामली को भी सन्डे को ही बुलाया था कि उस दिन नितिन के यहाँ होने पर उससे वेरीफाई तो करवा ही सकता हूँ और फिर ये भी देखना होगा कि ये लोग जायदाद के लिए उसको किस तरह से रखे हुए हैं. गलत तो वह कर ही रहे हैं और इसके लिए वे अपराध भी कर रहे हैं कि पापा के तीन और वारिस होते हुए भी सबको नकार रहे हैं. हम दो न सही नितिन को तो उसका हक मिलना ही चाहिए. बहन तो उससे छीन ही ली है और वह दरवाजा भी जहाँ वह कभी जाकर अपनी बहन से सुख दुःख तो बाँट सकता. सोचते ये हैं कि सारी संपत्ति उनको मिल जाये और फिर शामली से तो उनके पास आ ही जाएगी.
                      दूसरे दिन जब मैं ऑफिस पहुंचा तो संदीप बाहर ही खड़ा था. मैं अन्दर चला गया , मुझे अब यकीन होने लगा था कि ये लोग शामली को सिर्फ पैसे हथियाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं तभी तो उसको लाने में इसने इतनी आनाकानी की और जब बात नहीं बनती लगी तो लाने के लिए तैयार हुआ और आज आकर फिर खड़ा हो गया. मैंने बैठते ही सबसे पहले चपरासी को बुलाया और कहा की बाहर जो खड़ा है उसको अन्दर भेज दे.
                    संदीप जब अन्दर आया तो उसके चेहरे पर कुछ  घबडाहट दिख रही थी. मैंने उसको इग्नोर करते हुए खुद को व्यस्त दिखाने लगा.
"साहब, आपने परसों बुलाया है और उस दिन तो इतवार है."
"हाँ , उस दिन सन्डे है, फिर आने में कोई परेशानी."  मैंने बिना सिर उठाये ही उससे प्रश्न किया.
"नहीं , साहब उस दिन तो आपका ऑफिस बंद रहेगा."
"हाँ , ऑफिस बंद रहेगा लेकिन मैं आपके केस  को घर पर ही देखूँगा. ये काम इतना आसन नहीं है जितना कि आप समझ रहे हैं. आप जिसके वारिस के लिए मुझसे वेरीफाई करवाना चाह रहे हैं वह मेरे ही कैडर का इंसान था. इस लिए मुझे उस लड़की से विस्तार से पूछताछ करनी पड़ेगी. आप सन्डे को ही लेकर मेरे बंगले पर आ रहे हैं." मैंने उसको स्पष्ट कर दिया कि वह जितना आसन इस काम को समझ रहा है , उतना वह है नहीं.
"जी , साहब बहुत अच्छा." कहते हुए वह बाहर निकल गया.
                   *                       *                     *                        *                      *
             सन्डे का मुझे भी इन्तजार बहुत था. पता नहीं मन में कितनी सारी बातें उमड़ रही थी कि कहीं इन लोगों ने शामली मार न दिया हो क्योंकि ये तो जल्दी दौलत हासिल करने के चक्कर में तभी से थे. तभी तो  नितिन से इन लोगों ने उसी वक्त  लिखवा लिया था कि वह पापा की संपत्ति में कोई दावा नहीं करेगा. ये सब तो जायदाद के लिए होता है लेकिन एक वह जिस बच्चे का कोई न हो उसको इस तरह से बेघर और सब कुछ उससे छीन लेने की कोई सोच कैसे सकता है? अब मैं दी को पूरा निर्णय लेने के बाद ही बताऊंगा कि मैं भी उनका भाई हूँ और ऐसे ही नहीं पूरी डिस्ट्रिक्ट का काम संभाल रहा हूँ.
               उस दिन पहले नितिन आ गया . उसको कुछ मालूम नहीं था लेकिन अब उसके चेहरे पर कुछ आत्मविश्वास आ गया था शायद ये उसके पढ़ने से या फिर उसको जो मालियों वाले माहौल से अलग माहौल  मिलने लगा था उससे.
  उसने आते ही पता नहीं क्यों मेरे पैर छुए? वैसे दिल से कहूं तो ये हक़ बनता है मेरा . बड़ा भाई जो हूँ और क्या पता कि इन दोनों नन्हे से बच्चों को हम दोनों को ही अपने छत्रछाया में न लेना पड़ जाय. अपने आप तो सभी जी लेते हैं लेकिन किसी सहारे से लता अधिक ऊपर चढ़ती है जमीन पर फैल कर वह अधिक फलवती नहीं हो पाती. बिल्कुल अनाथ समझने वाला जिसका न आगे कोई  और न पीछे. , क्या करना है और क्या नहीं ? ये भी तो उसको बताने वाला कोई नहीं है.
"ठीक हो नितिन, वहाँ कोई परेशानी तो नहीं."
"नहीं सब ठीक है, नए साहब ने मुझे पढ़ने के लिए किताबे भी मंगवा कर दी हैं और काम कम ही करवाते हैं. " वह खुश होकर बता रहा था और मुझे लगा कि मेरे  दिए दायित्व को उन्होंने ठीक से पूरा किया है.
"देखो नितिन , मेरे पास तुम्हारी बहन का शामली का केस वेरीफाई करने के लिए आया है और मैं शामली को नहीं पहचानता. उसका पति मेरे पास आया था. मैंने उसको आज ही बंगले पर बुलाया है और तुमको अन्दर ही रहना है . जब मैं तुमको बुलाऊंगा तभी तुम आना और अपनी बहन से मिलना. उससे बारे में सब कुछ तुम्हें उससे पूछना है. वे लोग तुम्हारे पापा की जायदाद के लिए ये सब कर रहे हैं ."
"क्या दीदी आएगी यहाँ?" नितिन बच्चे की तरह से चहक पड़ा.
"हाँ, उसे मैंने वेरीफाई करने के लिए बुलाया है."
"कौन उसको लेकर आने वाला है?"
"उसका पति संदीप."
"देखता हूँ, मुझे तो उन लोगों ने दरवाजे से भगा दिया था और दीदी से मिलने भी नहीं दिया था."
"कोई बात नहीं, इसी लिए तो मैंने तुमको बुलवाया है कि तुम उससे सारी बातें जान लोगे.मुझे सच पता चल जाना चाहिए और फिर सारी संपत्ति पर उन्हें हक़ कैसे मिल सकता है? तुम्हारा हक़ तो तुम्हें मिलेगा न."
"नहीं, वे पहले ही मुझसे लिखवा चुके हैं."
"कोई बात नहीं, ये कागज़ कोई मतलब नहीं रखते क्योंकि वे ये साबित कर रहे हैं कि शामली के अलावा और कोई वारिस है ही नहीं." मैंने बात उसके सामने स्पष्ट कर दी.
"वे लोग दीदी को परेशान न करें? " नितिन को अपनी बहन की बड़ी चिंता हो रही थी.
"नहीं, अभी तो हम यह भी नहीं कह सकते कि वे शामली को कैसे रखते हैं? उसकी उस घर में क्या हालत है? मुझे उसके ढंग से सही नहीं लगा क्योंकि वह शामली को लाना नहीं चाहता था."
"आज तो लायेंगे न, बहुत दिन हो गए शादी के बाद से उन लोगों ने उसको भेजा ही नहीं और न मुझे मिलने दिया." नितिन के स्वर में दुःख झलक रहा था क्योंकि उसके लिए तो अपने के नाम पर एक वही बहन ही थी नहीं तो एकदम से अनाथ.
"लायेंगे और जरूर लायेंगे. इसी लिए मैंने उन्हें सन्डे को बुलाया है कि घर पर हम उससे बहुत सी बातें जान सकते हैं. ऑफिस में ये संभव नहीं हो पाता. "
                  बाहर किसी गाड़ी के रुकने कि आवाज आई तो मैंने सोचा कि वही आई होगी. मैंने नितिन को पीछे जाने के लिए बोल दिया. घर में रहने वाले चपरासी ने आकर बताया कि कोई आपसे मिलने आया है. और मैंने उसको अन्दर भेज देने कि बात कही.
                  थोड़ी ही देर में संदीप एक दुबली पतली शरीर वाली लड़की के साथ मेरे सामने खड़ा था. वह लड़की तो लग रही थी मानो कि महीनों की बीमार हो.
"साहब मैं इसको ले आया हूँ और आप जो चाहें इससे पूछ लें." इतना कहने के बाद वह अपने साथ आई युवती के तरफ मुखातिब हुआ और बोला - "ये साहब जो भी पूछें ठीक से सोच समझ कर उत्तर देना. और अपनी तरफ से कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है."
                  मैंने उन दोनों को वही बैठने का इशारा किया. फिर सोचने लगा कि क्या ये लड़की इस लड़के सामने वो सारे सवालों के जबाव दे पायेगी जिनका कि मुझे उत्तर चाहिए क्योंकि इसने उसको जो हिदायत दी है कि अपनी तरफ से कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है. तब तो वह बोल ही नहीं पायेगी और इसके सामने तो बिल्कुल भी नहीं.
"आपका नाम क्या है?" मैंने शामली कि तरफ मुखातिब होकर पूछा.
"जी शामली माथुर."
"आपके पिताजी का नाम क्या है?" 
"जी, स्व. प्रदीप कुमार माथुर."
"तुम अकेली ही हो कोई और भाई बहन." अब मैंने उसके उत्तर के साथ साथ उसके चेहरे को भी पढ़ने कि जरूरत समझी और उसके मनोभावों से ही बहुत कुछ जाना जा सकता था. 
"जी, वो मेरे एक..." वो अटक  अटक कर बोलने लगी .
तभी उसका पति तेज आवाज में बोला --"ठीक से जबाव दो कि कोई नहीं है."
"जी और कोई नहीं है." वह एक सांस में ही बोल गयी. मेरे शक के बादल घने होने लगे कि ये लड़की सिर्फ मोहरा बनाई जा रही है कि सिर्फ संपत्ति हासिल कर ली जाये. 
"आप बाहर जाइये, मुझे इससे अकेले में पूछताछ करनी है." मैंने उसके पति से कहा.
"क्यों साहब , जो पूछना हो मेरे सामने ही पूछिए. अकेले मैं पता नहीं ये क्या बोल दे?" 
"क्या बोल दे का मतलब ? क्या ये पागल है? या इसके बारे में जो मुझे पूछना है वो आप बताएँगे तभी ये बोलेगी." 
"नहीं साहब गाँव की रहने वाली है अधिक जानकारी इसको नहीं है."
"ये गाँव कि रहने वाली कहाँ से है? ये लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल की पढ़ी हुई है. इसके कागज इस बात को साबित कर रहे हैं और ये बचपन से एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुई और पली है." मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था. आप बाहर जाइये.
"मैं बाहर नहीं जाऊँगा , आप को जो भी पूछ्ना है मेरे सामने ही पूछिए. मुझे इसका भरोसा नहीं है." वह कहने के लिए तो कह गया लेकिन ये नहीं सोच पाया कि इसका अर्थ क्या हो सकता है?
"अगर आपको इस पर भरोसा नहीं है तो इसको आप पर भरोसा कैसे हो सकता है और मैं कैसे भरोसा करूँ कि आप इसकी जायदाद लेकर इसे ही दे देंगे." 
"जी वो बात नहीं है, ऐसे ही मुँह से निकल गया."
"आप बाहर जाते हैं या फिर मैं खुद आपको बाहर करवाऊं."
"नहीं साहब, बाहर तो मैं नहीं जाऊँगा , मैं अपनी पत्नी को अकेले छोड़ कर कैसे जा सकता हूँ? " 
                   मैं जो नहीं करना चाह रहा था वही करने को ये मजबूर कर रहा था. मैं नितिन को इसके सामने नहीं बुलाना चाह रहा था. 
"ठीक है, आप इनको ले जाइए और वेरीफाई खुद ही कर लीजिये. मैं इस रिपोर्ट पर आब्जेक्शन  लगा कर वापस कर रहा हूँ."  मैंने किसी भी कीमत पर शामली से पूरी पूछताछ किये बगैर वेरीफाई नहीं कर सकता था. मैंने उस फाइल को बंद कर दिया और उठ खड़ा हुआ.
"अच्छा साहब जाता हूँ, ये काम आप ही कर सकते हैं नहीं तो फिर ये केस बंद कर दिया जाएगा." अब वह अपनी औकात पर आ गया और ये भी उसने दिखा दिया कि उसको इस संपत्ति का कितना लालच है. 
"आप बाहर बने वेटिंग रूम में जाकर बैठिये, जब मैं पूछताछ कर लूँगा तो आपको बुला लूँगा." मैं वापस अपनी सीट पर बैठ गया.
             वह पीछे मुड़ मुड़ कर देखता हुआ बाहर निकल गया.  

                                                                                                                                             (  क्रमशः )

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ? (१०)

                        जीवन की गति अपने वश में कब रहती है? खासतौर पर तब, जब कि  हम किसी और के नौकर हों. हाँ चाहे आप किसी के घर में नौकर हों या फिर सरकार के उतने समय के लिए आप बाध्य होते हैं कि  उनके लिए जियें. ये जीना भी कोई जीना है कि  अपनी मर्जी से न उठा सकता है और न बैठा . यहाँ तक कि सोचने तक का समय नहीं होता है. यही मेरे साथ हुआ. मैं फतेहपुर आकर वहाँ की समस्याओं  में उलझ गया और फिर नितिन के बारे में भूल गया. जब अपने लिए सोचने की फुरसत नहीं तो दूसरों के लिए कौन सोचे?
                   एक दिन कुछ फाइलों  के साथ कुछ ऐसे कागज़ सामने आये कि  फिर मुझे चौंक जाना पड़ा. एक पेपर मेरे हस्ताक्षर के लिए रखा था. उसमें नोटेरी से जारी होने के बाद मेरे पास भेजा गया था. ये कागज मैंने पढ़ने के लिए उठाया तो देखते ही चौंक गया क्योंकि इनके बारे में जानकारी के लिए मुझे निर्देशित किया गया था. अन्दर के कागज जब मैंने खोले तो वे किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी मांग रहे थे.
                 उसमें लगी फोटो किसी लड़की की थी और फिर नीचे पहुंचा तो फिर वही जिन्दगी का बंद हुआ अध्याय फिर से खुलने लगा था.
शामली माथुर पुत्री स्व. प्रदीप कुमार माथुर
पत्नी संदीप माथुर
प्रमाण के लिए उसका हाई स्कूल का सर्टिफिकेट भी लगा था और साथ में लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल का एक सर्टिफिकेट भी था. मेरे सामने तस्वीर साफ हो गई थी लेकिन ये किस लिए क्या करना चाह रहे हैं ये भी समझ आ गया था. पहले तो उन लोगों ने अपने स्तर पर सब जानकारी ली होगी लेकिन जब कुछ हाथ न लगा होगा तो ये साबित करने के लिए कि यही एक वारिस है इस तरह के प्रमाण उन लोगों को जुटाने पड़ रहे होंगे. उसके लिए ही जिलाधिकारी की संस्तुति मांगी गयी थी. 


           उसके आगे क्या पढता ? जो नितिन ने बताया था कि  नाना ने शादी ये बता कर की थी कि  मेरे पापा डी एम थे और उनकी बहुत सारी जायदाद है. उसके लालच में ही उन लोगों ने शादी कर ली थी और फिर शुरू हो गया होगा उनका प्रयास. ये एक अध्याय का पहला ही पृष्ठ था. अब याद आया कि  नितिन ने कहा था कि  उसकी बहन की ससुराल खागा में है. उसको बहन से मिलने भी नहीं दिया गया था. उसके ये बताने के बाद ही दी को उसकी चिंता होने लगी थी लेकिन मैं ये सब कुछ नहीं कर सकता था. मगर ये भी मेरे ही सामने आना था . कैसा अजब संयोग - पहले नितिन मुझे मिला और फिर लगता है कि ये भी मेरे सामने ही सुलझाना लिखा है. आखिर मैं ही क्यों इस उलझन का शिकार बनता हूँ.
                   मैंने उस फाइल को देखने के लिए अपने पास रख ली. बाकी सब निपटा कर वापस कर दीं. इस फाइल को मैं फुरसत में गहराई से देख कर ही कोई निर्णय कर सकता हूँ. जिसे मैं जानता नहीं उसको कैसे मैं सही व्यक्ति बता सकता हूँ. वह फाइल लेकर मैं घर भी आ गया. रात में उसको ही पढ़ रहा था कि दी का फ़ोन आ गया. मेरी तो संकटमोचन वही हैं. कभी वह कहती है कि तुम इस पोस्ट पर काम कर रहे हो और इस तरह से छोटी छोटी बातों के लिए निर्णय नहीं ले पाते हो. मैं निर्णय ले सकता हूँ लेकिन सिर्फ अपने ओफिसिअल  कामों में , ये जो रिश्ते मेरे पापा से जुड़े होते हैं वे मुझे नर्वस कर देते हैं और फिर नहीं सोच पाता  हूँ कि मैं क्या करूँ.?
"दी, फिर एक प्रॉब्लम में फँस गया हूँ."
"क्या हुआ?"
"दी , वह मुझे कुछ लग रहा है कि नितिन कि बहन के कुछ कागज वेरीफाई होने के लिए मेरे पास आये हैं और मैं उसको कैसे वेरीफाई कर सकता हूँ, जब कि मैंने तो उसको देखा ही नहीं है. "
"क्या वह खुद नहीं आई थी?"
"नहीं, वह फाइल कई महीनों से पेंडिंग में पड़ी थी और ये मेरे ही सामने आनी थी."
"आशु, हो सकता है कि कुछ अच्छा होना हो उस लड़की का, तभी वह इतने दिनों तक अटकी रही."
"लेकिन मैं क्या करूँ?"
"तुम उसको बुलावा भेजो कि वेरीफाई करने के लिए उस लड़की का होना जरूरी है और अगर हो सके तो तुम नितिन को भी बुला लेना ताकि सब पता चल सके."
"पर मैं नितिन को कैसे बुला सकता हूँ? वह अब किसी और के अंडर में काम कर रहा है." मुझे दी कि कही बात उतनी आसन नहीं लग रही थी जितनी कि वह समझ रही थी.
"तुम उस डी एम से बात करो न, वह कुछ दिन कि छुट्टी देकर भेज सकता है. " दी की बात कुछ समझ आई और फिर मैंने भी ऐसा ही करने का सोचा क्योंकि शामली को नितिन ही पहचान सकता है और वह भी नितिन को हर बात बता भी सकती है. अगर वह मेरे सामने लायी भी गयी तो मैं उसकी स्थिति  के बारे  में तो नहीं जान सकता हूँ.
"ठीक दी, थैंक्स अब ऐसे ही करता हूँ."
                     मैंने उसी समय उन्नाव के लिए फ़ोन किया और उस डी एम से कहा कि मुझे कुछ दिन के लिए नितिन को यहाँ बुलाना है, अगर वह भेज सकें तो. मैं पहले ही उनको नितिन की जिम्मेदारी देकर आया था तो उनको ये पता था कि मेरा इस लड़के के साथ अटैचमेंट है. उन्होंने बगैर किसी प्रश्न के कह दिया कि मैं जब भी कहूँगा वह भेज देंगे.
                     दूसरे दिन मैंने उन कागजों के पते पर आदमी को भेज कर कहला दिया कि इससे सम्बंधित व्यक्ति मुझसे आकर मिले. अधिक समय नहीं लगा और वह लड़का मेरे पास जल्दी ही आ गया. उसके हाथ में वह कागज़ भी था जिसपर मैंने मिलने का आदेश दिया था.
"नमस्कार साहब, मैं संदीप माथुर, शामली माथुर का पति आपने मुझे बुलाया था."
"हाँ, लेकिन आपकी पत्नी कहाँ है?"
"वो तो घर पर ही हैं, जो पूछना हो आप मुझसे पूछ सकते हैं. मैं उसकी पूरी कहानी बता सकता हूँ."
"आप करते क्या हैं?"
"वो प्रापर्टी डीलिंग का काम है मेरा."
"कहाँ पर"
"चारों तरफ है, लखनऊ, फतेहपुर, इलाहबाद और भी कई जगह."
"आप चाहते क्या है? ये वैरिफिकेशन क्यों आया है?"
"जी वो मेरी पत्नी के पिता और माता दोनों एक एक्सीडेंट में ख़त्म हो गए थे. उनकी वही अकेली वारिस है तो मैं चाह रहा था कि उनकी जो भी प्रापर्टी है वह उसके नाम आ जाये . कुछ बैंक में पैसा भी है. "
"तुमने उसे लेने के लिए कोई कार्यवाही की है."
"हाँ साहब उसको ही तो किया था कई साल हो गए लेकिन कुछ न कुछ कमी निकल कर वापस आ जाते हैं सारे कागज."
"इससे क्या होगा?"
"इससे साहब आपके हाथ में है, अगर आप वेरीफाई कर देंगे तो उसको उसका हक़ मिल जायेगा."
"उसके कोई भाई बहन ."
"नहीं साहब और कोई नहीं है." उसके ये कहने के साथ ही मेरा खून खौल उठा कि कितनी चालें  चली जातीं है इस दौलत के लिए, इंसान सगे रिश्तों को भी ख़त्म कर देता है. मैं तो कुछ भी नहीं लेकिन नितिन के बारे में तो ये लोग जानते ही हैं फिर भी?   लेकिन मैं इसको ऐसे नहीं  छोड़ना चाहता था .
"आपको पता है कि किसी भी ऐसी संपत्ति के लिए पहले एक नोटिस दिया जाता है कि अगर कोई उसका वारिस हो तो दवा कर सकता है . वह नोटिस निकला क्या?" 
"हाँ निकला था, कोई दावेदार नहीं है."
"वो तो सरकारी तरफ से निकाला जाएगा. बैंक अपने तरफ से और उनका ऑफिस अपने तरफ से." 
"हाँ , साहब निकल चुका है, अब बस ये आखिरी कार्यवाही है. उसके बाद सब उसके नाम आ जायेगा."
"अगर वो डी एम थे तो उनके पास काफी जायदाद होनी चाहिए और पैसा भी." मैंने उससे उगलवाना चाह रहा था.
"वो तो है, लेकिन पहले कार्यवही पूरी हो तब खुलासा हो पायेगा." उसने अपनी बात सपाट स्वर में कह दी.
"ऐसा है कि आप अपनी पत्नी को लेकर आइये इसके बाद ही वैरिफिकेशन हो पायेगा." मैंने उसको आखिरी उत्तर दिया.
"साहब अब उसको कहाँ लाऊं? आप जैसा कहेंगे मैं समझ लूँगा." वह मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और मेरा क्रोध उसके शब्दों के साथ ही बढ़ गया की इंसान पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है.
"आप जा सकते हैं और समझ तो मैं आपको लूँगा." मेरा क्रोध अपनी सीमा से अधिक बढ़ रहा था. और मैं उस इंसान के बारे में इससे ही समझ चुका था कि शामली उस घर में कैसे रह रही होगी? नहीं तो उसको शामली को लाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी.
"साहब गुस्सा मत कीजिये , मैं उसको लाने की कोशिश करूंगा. अगर घर वाले उसको बाहर भेजने को तैयार हो गए." वह डर गया था.
"इसका मतलब कि वह घर से बाहर नहीं जाती. " 
"नहीं साहब, मेरा काम बाहर का रहता है और उसके मायके में तो कोई बचा नहीं है तो जाएगी कहाँ? " 
"ठीक है , उसको दो दिन बाद लेकर आना." मैंने अपना निर्णय सुना दिया था. 
                 उस लड़के के बयान से ये लग रहा था कि शामली पैसे के भूखे लोगों के बीच फँस चुकी है. पता नहीं किस हाल में होगी? लेकिन ये तो निश्चित है कि अब इससे कुछ तस्वीर सामने आएगी और उसके बारे में भी पता चल सकता है.       कौन कहाँ से कहाँ? (१०)

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ (९) !

निवेदन : एक लम्बे अन्तराल के बाद कहानी की अगली कड़ी दे रही हूँ क्योंकि इस कथा के  वास्तविक अंत के इन्तजार में थी और कई बार मेरे पहले दिए गए निर्णय ही किसी का सत्य बन चुके हैं सो नहीं चाहती थी कि फिर ऐसा हो. इस विलम्ब के लिए क्षमा.
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                           नितिन तो चला गया लेकिन उस फोटो को उठा कर मैंने अपने सामने रख लिया, मैं जी भर कर पापा को देख लेना चाह रह था. दी ने बीच में हो टोक दिया - 'क्या सोचा है आशु तुमने इन लोगों के लिए?'
'इन लोगों से मतलब?" मेरी कुछ समझ नहीं आया कि दी क्या कहना चाह रही हैं?
"इन लोगों से मतलब नितिन और उसकी बहन के बारे में." दी ने अपनी बात स्पष्ट की.
"नितिन के बारे में तो मैं देख लेता हूँ, लेकिन उसकी बहन के बारे में हमें कुछ भी नहीं पता है , फिर हम क्या कर सकते हैं?" मुझे दी की चिंता कुछ अच्छी नहीं लगी क्योंकि अभी नितिन फिर उसकी बहन हम कहाँ खोजेंगे? लेकिन मैं कुछ बोलना नहीं चाहता था.
"पहले इसको तो देखो फिर उसे भी देखेंगे, पता तो करना ही पड़ेगा की किस हाल में है?" दी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थीं.
"देखो दी, अभी हम हाल में तो कुछ नहीं कर सकते हैं, आप अच्छी तरह से सोच कर प्लान बना लें कि कैसे क्या हो सकता है? फिर बाद में देख लेते हैं." मैं चाहता था कि दीदी अभी इस चिंता से मुक्त हो लें. 
                वाकई दी यहाँ से जाने से पहले मुझे नितिन के लिए ढेर सी हिदायतें देकर चली गयीं. 
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          मैंने नितिन को किचेन में काम में सहायता करने को बोल दिया और सबको कह दिया कि दिन में नितिन मेरे साथ ऑफिस जायेगा और सुबह शाम किचेन में काम करेगा. इस तरह से मैंने उसको कॉलेज में पढ़ने के लिए समय दे दिया.  समय के साथ हम सभी अपने अपने काम में व्यस्त रहे. मेरा यही प्रयास रहता कि नितिन अपने कमरे में जाने से पहले यही पर खाना भी खा ले. मैं नहीं चाहता था कि वह काम के बाद अपने लिए खाना बनाये , मैं जानबूझ कर देर से डिनर लेता और नितिन को रुकने को कह कर बाकी को भेज देता. उन लोगों को कुछ भी ऐसा नहीं लगना चाहिए था कि मैं अपने ही नौकरों के बीच में किसी को अधिक सुविधा दे रहा  हूँ और किसी को कम. सब को पता था कि नितिन सबसे अधिक काम करता है. सुबह शाम किचेन में और दिन में साहब के साथ , रात में भी साहब देर तक काम करवाते हैं. क्या करवाते हैं ये उन्हें नहीं पता था? लेकिन वे जानते थे कि नितिन नया लड़का है और हो सकता है कि उन लोगों से अधिक पढ़ा लिखा भी हो, इसी लिए साहब उससे ऑफिस का काम भी लेते हैं. 
                   कब ३ साल बीत गए पता नहीं चला और नितिन पढ़ाई करके अधिक मेहनती हो रहा  था. वह बी ए में आ चुका था और मैं चाहता था कि वह ग्रेजुएट हो जाए और इसके बाद उसको पापा के बेटे के रूप में कोई नौकरी मिल जाये. उसके बाद उसके घर और पैसे की बात देखूँगा. मेरा ट्रांसफर उन्नाव से हो गया और मैं इसके बाद जिस जगह पर जा रहा था वह उसके नाना के घर का ही जिला था. जब उसको पता चला तो उसने बड़े खुश हो कर बताया कि उसके नाना का गाँव वही पास में है. इसको ही आत्मा का और उस मिट्टी का जुडाव कहते हैं जहाँ से उसकी माँ जुड़ी थी. उसने भी तो माँ के बाद वही कुछ साल गुजारे थे. फिर वह मेरे जाने के दिन जैसे जैसे नजदीक आ रहे थे उदास रहने लगा. एक चिंता मुझे भी लगी थी कि पता नहीं मेरे बाद इसके साथ कैसे व्यवहार किया जाए? इसको पढ़ने का मौका मिले या न मिले वैसे अब इतना तो हो ही चुका था कि वह अपनी पढ़ाई के प्रति छूटी हुई रूचि फिर से पा चुका था. इंटर में भी उसने अच्छी रेंक निकाली थी. उम्मीद थी कि वह इसी तरह से पढ़ा तो अगले दो सालों में वह ग्रेजुएट हो जायेगा.
              जब मैंने अपना चार्ज नए डी एम को दिया तो मैंने उन्हें नितिन का चार्ज भी दिया और उनसे कहा कि अभी इस बच्चे के भविष्य के लिए मैंने ऐसी व्यवस्था कर दी है ताकि इस उम्र से यह सिर्फ माली ही बन कर न रह जाए. उसे पढ़ने का मौका इसी तरह देते रहें. 
               उन्होंने ने भी मुझे पूरा आश्वासन दिया कि निश्चित रूप से जैसे मैंने उसको पढ़ने का मौका दिया है, वे भी उसको अवश्य देंगे. 
               मेरे जाने के तीन दिन पहले से नितिन ने आना बंद कर दिया था. पता चला कि वह कमरे में ही रहता है लेकिन आ नहीं रहा है. मैंने जाने के एक दिन पहले उसको बुलवाया तो वह उदास सा चेहरा लिए आ कर खड़ा हो गया. मुझे लगा कि उसकी कोई तबियत ख़राब होगी.
"नितिन तुम्हें क्या हुआ है? आ भी नहीं रहे हो और कॉलेज जा रहे हो या नहीं."
"नहीं, अब पता नहीं क्या होगा? पढ़ पाऊंगा या नहीं? " उसने धीमे स्वर में बोला.
"तुम पढ़ पाओगे और तुम्हें पूरा पूरा समय मिलेगा. इसी तरह से, मैंने नए साहब से बात कर ली है." मैं उसको आश्वस्त करना चाह रहा था कि उसको इस बात का भय न रहे कि नए साहब कैसे होंगे? और उसको क्या पढ़ने की सुविधा देंगे या नहीं.
"ठीक है, फिर तो मैं पढता रहूँगा." एक मंद सी स्वीकृति की ख़ुशी दिखी लेकिन कुछ पल बाद ही उसके चेहरे से गायब भी हो गयी.
"ठीक है तुम जाओ."
                 दूसरे दिन जब मैंने जाने लगा तो नितिन सबसे बाद में आया और मेरे पैर छू कर रो पड़ा. बिल्कुल बच्चों की तरह से बिलख बिलख कर और मैं भी उस समय अपने को सभांल नहीं पा रहा था. मैंने उसके सिर पर हाथ फिरा कर और जल्दी से गाड़ी में बैठ गया. काले चश्मे के भीतर मेरी आँखें चुगली न कर दें , मैंने ड्राइवर से गाड़ी चलने के लिए कहा. उस काले चश्मे ने मुझे सबकी नज़रों से तो बचा लिया लेकिन क्या मैं खुद अपनी नज़रों से बच पाया. हाँ मैं अपने को इस समय कमजोर पा रहा था. नितिन से खून का रिश्ता चीख चीख कर कह रहा था कि ये मेरी जिम्मेदारी है कि इसके भविष्य के प्रति चिंता करूँ. उसको उसका हक़ दिलवा ही दूं. वर्ना शायद पापा की आत्मा उसके और मेरे  गिर्द भटकती न रहे. सोचा तो मैंने भी था कि यहाँ से निकल कर ही पापा के सारे पुराने बैंक एकाउंट और घर के बारे में सब पता लगवाऊंगा और फिर उसको कैसे भी सही उसके हक़दार को दिलवा कर ही रहूँगा.
                                                                                                                                       (क्रमशः)