बुधवार, 24 अगस्त 2022

सामंजस्य!

 बेटा बहू विदेश से आ रहे थे तो मीनू ने पूरी व्यवस्था कर ली कि यहाँ परेशानी हुई तो पास के होटल में कमरा बुक भी रहेगा, आराम से रहेंगे।

             रचित और रचना के आने से रौनक आ जाती है। मीनू को भी बहुत इंतज़ार रहता है। बच्चे आ गये तो रचना ने अपना सामान अपने पुराने कमरे में जमा लिया। जब सब लोग नाश्ते के लिए बैठे तो मीनू ने ही कहा -

       "तुम लोगों को यहाँ जरा सी भी तकलीफ हो तो मैंने दूसरी व्यवस्था भी कर रखी है, पास के होटल में कमरा बुक है, वहाँ जाकर सो सकते हो।"

    "क्यों ऐसा क्यों?" बहू-बेटा एक साथ बोले।

"वैसे ही कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए।"

"माँ हम यहीं वर्षों रहे हैं, कुछ भी बदला नहीं है।"

"ठीक ठीक है।"

            "माँ दीदी को भी बुला लें, कुछ दिन सब साथ रह लेंगे।"

"बुला ले, खुश हो जायेगी।"     

     एक हफ्ते सब साथ रहेंगे और पुराने दिन याद करते हुए मस्ती करेंगे।

"एक ही हफ्ते क्यों? तुम्हें एक महीने रहना है न इंडिया में।" माँ कुछ तीखे स्वर में बोली।

         रचना ने चौंक कर माँ को देखा और फिर रचित को।

    "एक हफ्ते बाद रचना अपनी मम्मी के पास जायेगी और अपने भाई, बहनों के साथ एंजॉय करेगी।" रचित ने स्पष्ट किया

" और तू ?"

"मैं यहीं आपके साथ रहने वाला हूँ और चाचा बुआ से भी मिल लूगाँ।"

"ये कब आने वाली है?"

"दो वीक वहाँ रह लेगी और मै एक वीक वहाँ जाकर रहूँगा फिर इसको लेकर वापस आ जाऊँगा।"

"ये मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।"

"सीधी सी बात है, रचना दो वीक आपके साथ और दो वीक अपनी मम्मी के साथ रहेगी। मैं एक वीक रचना के घर और तीन वीक आपके साथ रहूँगा।"

"ये क्या बात हुई? ये बराबर दोनों जगह रहेगी , अपने घर में रहना चाहिए, मैं कितनी बेसब्री से इंतजार कर रही थी तुम लोगों के आने की और साथ कितना मिल रहा है।" माँ की आवाज़ के तीखेपन से उनकी गुस्सा समझ आ रही थी।

"बराबर मिल रहा है, उसे भी अपनी माँ के साथ रहने का समय चाहिए। मै तो तीन वीक आपके साथ रहूँगा न।"

  "नहीं ये एक वीक रहकर वापस आ जायेगी, बुआ वगैरह भी आ जायेंगी तो रह लेंगी।" मम्मी ने सुझाव रखा।

     "सारे रिश्ते उसके भी है और वह भी सबके साथ रहना चाहेगी, इसलिये यही सही है, जो मैंने कहा है।"

       रचित उठकर चला गया।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

इंतजार!

 रचित छुट्टियाँ खत्म करके अपनी सेना की सेवा में वापस जा रहा था और रीमा उसको दरवाजे तक छोड़ने आई तो --

    "तुम अब अंदर जाओ रीमा, मेरे पैरों में हमारा अंश बेड़ियाँ बन रहा है।"   रचित तिरछी नजर से देखता हुआ मन ही मन सोच रहा था।

      रीमा मन ही मन आश्वासन दे रही थी - "जाओ रचित मैं तुम्हारी आने वाली पीढ़ी को सहेज कर रखूँगी और आने पर तुम्हें सौंप दूँगी।"

       "तुम नहीं जानती रीमा, सीमा पर जाना मेरे वश में है, लेकिन वहाँ से वापस आना तुम्हारे भाग्य से होगा।" मन में एक द्वन्द्व लिए रचित भारी कदमों से आगे बढ़ रहा था।

      "तुम बेफिक्र होकर जाओ, मेरी साधना और तुम्हारा राष्ट्र समर्पण सदैव कवच बन कर रहेगा।"

         एक मूक संवाद करते दोनों आपस में दूर विपरीत दिशाओं में बढ़ गये।


रेखा श्रीवास्तव

सावन के झूले!

 सावन के झूले!


        बगीचे में पड़ा झूला भी सावन का इंतजार करता है कि कब उस पर झूलने बच्चे आयेंगे पार्क खिलखिलाहटों से गूँजने लगेगा। 

      हरियाली तीज को तो झूला खाली नहीं रहता है। 

       पर ये क्या सारा दिन गुजरा जा रहा है, बच्चियाँ न आईं झूलने। सारे पेड़ प्रश्नवाचक दृष्टि से एक दूसरे को देख रहे थे।

   "क्यों भाई सावन आधा निकल गया और झूले खाली पड़े है।" शीशम का पेड़ बोला।

    "क्यों भाई जमाने से बेखबर हो क्या?" नीम के पेड़ ने समझाया।

     झूला झूलने की ललक ललक ही रह जाती हैं, लेकिन माँ-बाप डर के मारे न भेजते है। समाज के वहशी दरिंदों का डर समाया है।"

    "बात तो सही है, पता नहीं क्यों भटक गया इंसान, न उम्र, न रिश्ते और न ही पास पड़ोस का लिहाज रह गया है।"

  "अब तो ऐसा ही होना है कि मेले, झूले सब सूने ही रहेंगे और वे जंगली कुत्ते ही मंडराया करेंगे।"

   "बस कर भाई अब सुना नहीं जाता है।"

   "देख और सुन सब रहे हैं, बस बच्चों का नैसर्गिक विकास छीन कर उन्हें नेट से बाँध दिया है।"

           अब इन झूलों के दिन गये, कहो कल म्यूजियम में दिखलाये जायें ।


-- रेखा श्रीवास्तव