मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ (१४)

   पूर्वकथा :                आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला . पिता और सौतेली माँ के एक्सीडेंट में निधन के बाद उसने खुद पापा की तरह आई ए एस बनने का संकल्प लिया   पहली पोस्टिंग वाले बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया. उसने शामली के पति से उसको लाने के लिए कहा लेकिन वह आनाकानी करता रहा . आशु ने नितिन को शामली के वैरिफिकेशन के लिए उन्नाव से बुलवा लिया था. उसने शामली से सारी स्थिति जान ली. भाई को देखकर शामली बहुत खुश हुई. आशु ने बातों हइ बातों में ये जान लिया कि क्या शामली वह घर छोड़ सकती है.. उसके बाद आशु ने अपने , अपनी दीदी और नितिन के नाम से आब्जेक्शन लगा कर सारे कागज़ भेज दिए , जिससे की शामली के पति को कुछ मिल न सके ..............
गतांक से आगे...                                
 
                            मैंने सबके ऑब्जेक्शन लगा कर भेज दिए. इसके बाद मेरा काम ख़त्म हो चुका था. आगे के लिए जो भी करना था वह बैंक और बाकी लोगों के काम थे. संदीप का क्या होगा? इसकी मुझे कोई परवाह न थी. फिर भी वह आकर इस विषय में मुझसे सवाल जरूर करेगा इसके लिए मैं तैयार था.
                   फिर वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. संदीप तो नहीं आया उसकी पत्नी आई मेरे पास.
"कहिये मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?" उस अनजान महिला को देख कर मैंने कहा.
"आप ये बतलाइये की आपने मेरे पति को फंसाने के लिए गलत पेपर कैसे भेजे हैं? " उसका स्वर मेरे प्रति कटु और आक्रामक था.
"आप कौन है? मैं आपको नहीं जानता फिर कैसे बता दूं कि मैंने कौन से पेपर और कहाँ भेजे हैं?
"आपने शामली के पेपर पर ऑब्जेक्शन लगाया है, वह मेरे पति से सम्बंधित पेपर थे. उसके बाद मेरे पति का वारंट कटा हुआ है और हम परेशान हैं." उसके तेवर आक्रामक लग रहे थे लेकिन मैं इस बात से पहले से ही वाकिफ था इसलिए मुझे कुछ अजीब नहीं लगा.
"आपको पता है कि आपके पति शामली से शादी कर चुके हैं." मैंने उससे प्रश्न किया.
"हाँ , पता है, उससे क्या होता है? मेरा पति मेरे साथ रहता है , ये मेरे लिए काफी है. घर में कौन रहता है इससे मुझे कुछ लेना देना नहीं." यह सच जानते हुए भी उसमें कोई अपराधबोध नहीं था.
"उस संपत्ति से भी नहीं  जो उसको शामली के पिता से मिलने वाली है."
"उससे क्यों नहीं होगा? मुझसे पूछ कर उसने शादी की थी और इस लिए ही की थी. "
"आपको पता है कि ये अपराध है, दूसरी शादी करना और उससे बड़ा कि किसी की जायदाद के लिए शादी करने का ढोंग करना."
"सब पता है, मेरे घर वाले ऊँची पहुँच वाले है. फिर मुझे गाँव में रहना नहीं है, वह बनी रहेगी , उसके घर वालों की सेवा करने के लिए."
"आप एक औरत होकर ऐसी बात कर रही हैं, क्या ये उसके साथ अन्याय नहीं कर रही हैं."
"ये उसके घर वालों को सोचना चाहिए था, जो बिना पता किये शादी कर दी."
"ठीक है आप जाइए, आगे की कार्यवाही मेरी नहीं है, मैंने वेरीफाई करके भेज दिया. जो सच था वही लिख कर भेजा है. अब आप जाने या फिर वह संस्था जिसको इससे मतलब है या फिर जिसने वैरिफिकेशन माँगा था."
"आप ऐसे कैसे बच सकते हैं, सब आपका ही किया धरा है. मैं आपको यहाँ रहने नहीं दूँगी." वह गुस्से से पैर पटकती हुई चली गयी.
                 अब समझ आया कि कैसे संदीप ने दूसरी शादी कर ली है. संपत्ति का लालच ही उसको ही नहीं उसके पूरे परिवार के लिए इसका कारण बना और शामली का जीवन इसके बीच में बर्बाद हो गया. न नई माँ और पापा के साथ ये हादसा होता और न ही ये बच्चे इस तरह से अनाथ होकर भटक रहे होते. ये भी भाग्य का विधान है. अगला विधान क्या रचा गया है, ये तो नहीं जानता लेकिन ये जानता हूँ कि ये बच्चे इस नारकीय जीवन से मुक्त जरूर होंगे. लेकिन इसके लिए नितिन को पहले वहाँ से निकल कर कुछ और करना होगा तभी वह बहन को सहारा देकर वहाँ से निकल पायेगा. उसके लिए कुछ न कुछ तो जरूर ही करना पड़ेगा.
                           *                 *                 *                    *                     *
               लखनऊ  में जाकर मुझे ही सक्रिय भूमिका निभानी पड़े तो वह भी मैं करने के लिए तैयार था. इसी सिलसिले में मैं पापा के घर पहुंचा तो वहाँ पर एक नौकर था . उस घर में रहने वाले लोग कहीं और गए हुए थे. मेरी गाड़ी देख कर नौकर ने दरवाजा को खोल दिया लेकिन कुछ बताने से इनकार करने लगा.
"साहब , यहाँ जो साहब रहते हैं , वे अक्सर बाहर ही रहते हैं. यहाँ जब होते हैं तो हमें खाना बनाना पड़ता है और हम तो पीछे नौकरों के घर में रहते हैं."
"घर खोलो मुझे अन्दर देखना है." हम सरकार की तरफ से आये हैं ये जानकर उसने घर खोल दिया. जब मैं अन्दर गया तो घर का सारा समान बेतरतीब पड़ा था. मानों यहाँ पर सफाई न होती हो. पापा की तस्वीर तो अलमारी में रखी थी लेकिन उस पर ढेरों धूल चढ़ी हुई थी. अन्दर के कमरों में जाकर देखा तो लगा कि ये सारा सामान लगता था कि महीनों से इसकी सफाई न की गयी हो. कीमती टेबल पर गिलास लुढके  हुए थे . मुझे ये पता है कि इस घर में नई माँ के भाई ही काबिज होंगे और इस घर को उनसे आसानी से नहीं लिया जा सकता है. 
                    यह सब देख कर मन को बड़ी कोफ्त हुई अगर पापा न रहते सिर्फ नई माँ ही बच जाती तो इस घर और इस घर वालों का ये हाल न होता . उस कमरे में मेरे लिए खड़ा होना मुश्किल हो रहा था और मैं निकल कर बाहर आ गया तो सांस ले सका . 
"अपने साहब से कह देना कि ये घर जिनका है वो लोग आये थे. उन्हें ये नंबर  दे देना और कहना कि हम जल्दी फिर आयेंगे." मैंने उस नौकर को अपना नंबर दे दिया . जिससे कि वे लोग हमसे बात तो करें, और उन्हें ये पता चले कि इस मकान और धन के लिए रची गयी साजिश से उन्हें क्या मिला और क्या आगे मिलने वाला है. 
                     लखनऊ आकर मैंने नितिन के सारे प्रमाण के साथ पापा के बदले उसे कहीं नौकरी मिलने के सम्बन्ध में लिखापढ़ी भी की , इससे सिर्फ जायदाद ही नहीं बल्कि उसको नौकरी मिल जाएगी तो वह शामली को वहाँ से निकालने के बाद रख कर अपनी जिन्दगी ठीक से गुजर तो सके . उसके बाद क्या होगा? इसके बारे में मुझे खुद नहीं पता था लेकिन ये जरूर था कि मैं उन बच्चों को ऐसे हालात देना चाहता था कि वे किसी के मुहताज न रहें और एक सामान्य जिन्दगी तो जी सकें.
                                             *                  *                  *                        *
फिर एक दिन शाम को मेरे फ़ोन कि घंटी बजी , दूसरी तरफ से आवाज आई  - "आप कौन साहब है?"
"ये बात मुझे पूछनी चाहिए, क्योंकि आप फ़ोन कर रहे हैं." मेरी अभी तक समझ नहीं आया था कि ये बोल कौन रहा है?
"मैं भगवती बोल रहा हूँ, आप लखनऊ में मेरे घर आये थे और मेरे नौकर को अपना नंबर दे कर कह गए हैं कि इस घर के मालिक हैं. आख़िर आप हैं कौन?"
"मैं कौन हूँ? ये तो बाद में बताऊंगा. पहले आप मुझे ये बताएं कि जिस मकान में आप रह रहे हैं वो किसका है? 
"मेरा है और किसका है?"
"वो मकान प्रदीप कुमार माथुर के नाम है, वही उसके मालिक हुए फिर आप कौन है?"
"मैं उनका साला हूँ, मेरे जीजाजी और दीदी दोनों एक दुर्घटना में नहीं रहे तो तब से इस मकान का मालिक मैं ही हूँ."
"तब तो उस मकान के मालिक प्रदीप कुमार माथुर जी के बच्चे होंगे, आप कैसे हो सकते हैं?"
"उनके कोई बच्चा नहीं है, जो हैं उनका कोई अता पता नहीं है." 
"फिर ठीक है, उनके बच्चों का पता चल गया है और वही उस मकान के मालिक हैं. आप अपना ठिकाना बदल लें कुछ ही दिनों में मैं फिर आऊंगा." 
"इसकी मुझे परवाह नहीं , आप कभी भी आयें न आपको मकान खाली मिलेगा और न ही इसका कोई वारिस है." 
"इसका जवाब तो आपको कुछ दिन बाद मिलेगा." कहकर मैंने फ़ोन बंद कर दिया.
                 



                                 

बुधवार, 17 नवंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ! (१३)

      पूर्वकथा :                आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला . पिता और सौतेली माँ के एक्सीडेंट में निधन के बाद उसने खुद पापा की तरह आई ए एस बनने का संकल्प लिया   पहली पोस्टिंग वाले बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया. उसने शामली के पति से उसको लाने के लिए कहा लेकिन वह आनाकानी करता रहा . आशु ने नितिन को शामली के वैरिफिकेशन के लिए उन्नाव से बुलवा लिया था. उसने शामली से सारी स्थिति जान ली. भाई को देखकर शामली बहुत खुश हुई. आशु ने बातों हइ बातों में ये जान लिया कि क्या शामली वह घर छोड़ सकती है................
गतांक से आगे...                   

                      शामली और संदीप के जाने के बाद नितिन ने भी जाना चाहा तो मैंने उसको अपने पास रुकने के लिए कहा. मुझे उससे कुछ बात करनी थी क्योंकि अब तो बाजी जब ईश्वर ने मेरे हाथ में दे ही दी है तो फिर उसके निर्णय के साथ मैं अन्याय क्यों होने दूं? ये बच्चे अभी जिन्दगी के अर्थ को नहीं समझते हैं और दोनों उस नाव की तरह बहे जा रहे  हैं जिसके कोई मांझी है ही नहीं. जिसके लिए जीना इस लिए जरूरी है क्योंकि ये जिन्दगी है , बाकी उन लोगों ने जीवन जिया कहाँ है? इस जीवन का भविष्य भी क्या है? इसका भी उनको नहीं पता है.
"नितिन, मुझे इस बारे में कुछ सोचना पड़ेगा, शामली की हालत तुमने देख ली है."
"पर क्या हो सकता है? मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता हूँ." नितिन जो उम्र से छोटा तो था ही और उसका बचपन से इस उम्र तक इस तरह से बीता कि  शेष दुनियाँ क्या है इसके बारे में उसको कुछ भी पता नहीं है. सिर्फ सिर पर एक छत और खाने के लिए रोटी मुहैय्या हो ऐसा ही वह कर पा रहा है. अपने हक़ और शेष चीजो से वह वाकिफ ही कहाँ है?
"हो सकता है, तुम्हारे पापा का पैसा और उनके बदले कोई भी नौकरी तुमको मिल सकती हो ."
"अब इतने दिन बाद कौन देगा मुझे? फिर इसके बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ? कहाँ जाना होगा? कैसे क्या होता है? " उसने अपनी मजबूरी बता दी थी.
"ये मुझे पता है, लेकिन जब देख रहा हूँ कि तुम्हारे और तुम्हारी बहन के अधिकारों को कोई और छीनने के लिए तैयार है तो मैं जो भी कर सकता हूँ करूंगा." मैं उसको आश्वस्त कर देना चाहता था कि वह अकेला नहीं है.
"इसमें मुझे क्या करना है?" उसको लगा कि मेरा हाथ उसके भविष्य के प्रति कुछ कर सकता है.
"तुम्हें अपने हाई स्कूल के सर्टिफिकेट को लाना होगा."
"वह तो मैंने लिया ही नहीं, उसी स्कूल में पड़ा होगा."
"मार्कशीट तो होगी, वह ही लगा दो."
"हाँ , वह जरूर है. वह तो उन्नाव में है."
"ठीक है, तुम अगले सन्डे उसको लाकर मुझे दे दो , मैं कुछ करना चाहता हूँ."
"इससे दीदी के ऊपर कुछ तो नहीं होगा? वे लोग पैसे के लिए ही तो दीदी को घर में रखे हुए हैं." उसे इससे पहले अपनी बहन का ख्याल आया कि उसका क्या होगा?
"देखो, दीदी वहीं रहेगी, अगर पैसा उन लोगों ने ले लिया तब भी दीदी कि हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला है. संदीप बहुत चालाक इंसान है."
"फिर?"
"फिर कुछ नहीं, आगे देखते हैं कि क्या हो सकता है? शामली को वहाँ से निकाला भी जा सकता है."
"फिर कहाँ जाएगी वह? मैं तो अपना ही गुजारा   नहीं कर पाता हूँ."
"इसकी चिंता मत करो, जब मैं शामली को वहाँ से निकालूँगा तो उसके लिए शेष चिंताएं भी कर लूँगा. पापा का पैसा उसके नाम करवा दूंगा तब तुम भाई बहन किसी के मुहताज नहीं रहोगे." मैंने अपने सोचे हुए का संक्षिप्त उसको बता दिया.
"और उसकी ससुराल वाले?"
"तुम उसको ससुराल कहते हो, पति शहर में दूसरी पत्नी के साथ रहता है और वह घर में नौकरानी बनी  हुई है और वह भी पैसे की मालिक है इसलिए रखा हुआ है उसको."
                    अच्छा अब तुम गेस्ट रूम में जाकर सो जाओ. कल सुबह निकल जाना.
             नितिन को सोने के लिए भेज दिया. मैंने भी सोने के लिए चला किन्तु आँखों में नीद कोसों दूर थी. ये नितिन और शामली दोनों ही मेरे सामने दया के पात्र  बने हुए थे. वे बिना माँ बाप के बच्चे जिनके सिर पर कोई भी हाथ नहीं है. बस जिए जा रहे हैं क्योंकि उनको ईश्वर ने इस हालत में जीने के लिए छोड़ दिया है. उनके अधिकारों पर कितने लोग ऐश कर रहे हैं. उनका अपने पापा का घर कोई और कब्ज़ा करके बैठा है और उनके पैसे पर किसी और की गिद्ध निगाह लगी हुई है. उनके भाग्य में तो कुछ भी नहीं है. फिर मुझे लगा कि इनका हक़ मैं दिलवा सकता हूँ और जो कष्ट उनके भाग्य में लिखा है उसको कम किया जा सकता है. अगर जरूरत पड़ी तो कभी उनको अपने होने का आश्वासन भी देना पड़ा तो दूंगा. मगर वह वक्त आने पर.
                    मैंने सोचा कि  दी से इस बारे में अब चर्चा की जा सकती है. और मैं दी को कॉल करने लगा.
"दी, मैंने नितिन और शामली के बारे में एक फैसला किया है."
"कैसा फैसला?"
"ये कि अब पापा के पैसों और संपत्ति के लिए शामली के पति ने अपना हक़ पेश किया है और वह भी नितिन को इग्नोर करके."
"फिर अब क्या करना है?"
"अब करना क्या है? इस पर एनओसी देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है. बल्कि इस पर नितिन , मैं और आप सभी के ऑब्जेक्शन मैं भेजने वाला हूँ. "
"मेरा और अपना क्यों?"
"इस लिए कि हम भी इसके हक़दार हैं."
"क्या बात कर रहे हो आशु?"
"मैं ठीक कह रहा हूँ, मुझे और आपको कुछ चाहिए नहीं लेकिन शामली के पति को सबक देना जरूरी है."
"तुम शामली से मिले?"
"हाँ मिला और उसके हालात  भी देखे, उसको घर में नौकरानी बना कर रखा है और खुद पहली पत्नी के साथ शहर में रहता है."
"क्या?"
"हाँ , यही उसने सिर्फ संपत्ति के लालच में शादी की और उसको गाँव में अपने माँ बाप कि सेवा के लिए नौकरानी बना दिया."
"ये कैसे हो सकता है?"
"ऐसा ही है."
"फिर कैसे क्या करोगे?"
"आप एक पेपर पर साइन करके मुझे भेजिए मैं आपका और अपना ओब्जेक्शन एक साथ लगा दूंगा ."
"इससे क्या फायदा?"
"ये कि पापा के चार वारिस हैं और हम शामली और नितिन के हक़ में नो ऑब्जेक्शन दाखिल करेंगे."
"शामली के घर वाले ?"
"उनसे हमें और तरीके से निपटाना होगा. लेकिन ये काम अब मेरा नहीं बल्कि सरकारी कार्यवाही हो जाएगी कि बाकी वारिसों के होते हुए उन्होंने अकेले वारिस होने का दावा किया ये एक अपराध है."
"तब तो शामली पर मुसीबात आ सकती है."
"वो मैं देख लूँगा , मैंने सब सोच रखा है."
"अच्छा , अब आशु इतना बड़ा हो गया."
"जी, मैं ऐसे ही नहीं अपना काम संभाल रहा हूँ."
"अब समझी कि अब मेरा भाई सयाना हो गया है."
"दी, आप उतना काम करके मुझे भेजिए  क्योंकि मुझे इन कागजों के साथ ही सारे ऑब्जेक्शन भी लगाने हैं."
"ठीक है, मैं भेजती हूँ."
                  दी को बता कर दिल कुछ हल्का भी हुआ और यह भी तय कर लिया कि आगे क्या करना है? बगैर सामने आये हुए कुछ भी नहीं होगा और इन सब चीजों को सिर्फ ओफ्फिसिअल स्तर पर ही रखना है और नितिन या शामली को कुछ भी नहीं बताने का इरादा था. फिर पता नहीं कब सोचते सोचते सो गया.

सोमवार, 1 नवंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (१२)

           
पिछला  कथा सारांश    --
                                           आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला और फिर पिता की दूसरी शादी ने उससे उसके पिता को भी दूर कर दिया. पिता और सौतेली माँ के एक्सीडेंट में निधन के बाद उसने खुद पापा की तरह आई ए एस बनने का संकल्प लिया   और फिर उसकी पहली पोस्टिंग उसी जगह हुई जहाँ वह पैदा हुआ था. उसी बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया. उसने शामली के पति से उसको लाने के लिए कहा लेकिन वह आनाकानी करता रहा , जब आशु उस पर बिगड़ गया तो वह लाने के लिए मजबूर हो गया. आशु से उसके सामने ही पूछताछ करने के लिए कहने लगा. आशु ने नितिन को शामली के वैरिफिकेशन के लिए उन्नाव से बुलवा लिया था. और नहीं चाहता था की नितिन को उसका पति देखे . इसलिए उसने उसके पति को बाहर जाने को कहा और मजबूर होने पर वह वहाँ से गया. ................
गतांक से आगे...
                          .संदीप के बाहर जाते ही शा.मली भी उठ खड़ी हुई. उसके चेहरे पर भय की रेखाएं दिखाई दे रहीं थी. मैंने उससे  बहुत प्यार से बोला , "घबराओ मत , मुझे अपने भाई की तरह समझो. तुमको मालूम है कि तुम्हें यहाँ क्यों लाया गया है?"
"हाँ बताया था कि आप कह देंगे तो पापा की जायदाद हमें मिल जाएगी."
"और कुछ कहा गया ." मैं पहले खुद ही जानना चाहता था कि ये लड़की क्या सोचती है? कहीं मेरा विचार कि इसको सिर्फ संपत्ति के लिए ही लाया गया है या फिर इससे शादी की गयी है गलत तो नहीं है.
"हाँ कि मैं ज्यादा न बोलूं - जो मुझसे पूछें उसी का जबाव दूं जो उन्होंने मुझे बताया है."
"अच्छा क्या क्या बताया गया है तुमको?"
"मैं वो नहीं बताऊंगी नहीं तो ....."कहते कहते वह चुप हो गयी. मुझे लगा कि इसको बहुत दबा कर रखा गया है . यहाँ तक कि क्या बोलना है इसके लिए भी जबाव इसको बताये गए हैं.
"तुम अपने घर से कभी कहीं घूमने  जाती हो." मैं उसको विश्वास में लेने के लिए कुछ व्यक्तिगत प्रश्न पूछने लगा ताकि उसको ये न लगे कि मैं कुछ गलत कर सकता हूँ.
"नहीं, जब से शादी हुई है , पहली बार घर से बाहर निकली हूँ." कह कर वह चुप हो गयी.
"क्यों अपने घर नहीं जाती हो?"
"मेरे कोई नहीं है, नाना हैं उनने शादी करके दुबारा सुध नहीं ली." उसके स्वर में बेचारगी और अफसोस दोनों ही झलक रहा था.
"नितिन" मैंने नितिन को आवाज दी तो वह कुछ चौंकी , मैंने ये सोचा कि जब तक इसका कोई बहुत अपना नहीं होगा ये सही बात नहीं बताएगी और मेरे निर्णय इसके ऊपर निर्भर करते हैं. वह भयभीत तो थी ही क्योंकि उसका अब इस दुनियाँ में कोई कुशल जानने वाला नहीं है . नाना के लिए कहे शब्द उसकी बेबसी को उजागर कर रहे थे. लेकिन वह हकीकत से बिल्कुल ही अनजान थी. नितिन को भी उसके घर वालों ने मिलने नहीं दिया ये भी तो उसको पता नहीं था. पता नहीं कितने वर्षों के बाद वह नितिन को देखेगी.
          मेरी आवाज सुनकर नितिन बाहर आ गया और वह एकदम से उठकर खड़ी हो गयी. उसकी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गयीं. नितिन उसके करीब आकर खड़ा हो गया. उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे लेकिन उसने नितिन को अपने हाथ से पकड़ कर देखा और फिर दोनों हाथों से उसको पकड़ कर झकझोर दिया. "कहाँ चला गया था तू, इतने दिन ये भी नहीं सोचा कि मैं जिन्दा हूँ कि मर गयी." कह कर वह फूट फूट कर रोने लगी. नितिन ने उसको अपने सीने से लगा लिया और उसकी आँखों से भी आंसूं बहने लगे . नितिन उसके सिर पर हाथ फिरा रहा था, मानो वह छोटा सा लड़का बहुत सयाना हो गया हो . ये मार्मिक दृश्य मुझसे नहीं देखा गया और फिर मैं भी उस भावुकता ने अपने को बहता हुआ उन लोगो के सामने तो नहीं दिखा सकता था और मैं अन्दर चला गया.  उन दोनों के मिलन को देख कर लगा कि मेरे सिर से कोई भारी बोझ उतर गया है. मुझे आँखों के सामने पापा कि तस्वीर मुस्कराती हुई नजर आई मानो कह रही हो - 'बेटा तू अपने फर्ज को पूरा करना.' सोचा तो यही है कि अब सारी जिम्मेदारी भगवान को मेरे हाथ से ही पूरी करवानी है तो इनके लिए जो बन सकेगा करूगा और इनके हक़ के लिए मैं खुद लडूंगा. खुद को संयत करने के बाद मैं बाहर आ गया तो दोनों बैठे बात कर रहे थे. मुझे देख कर नितिन उठ कर खड़ा हो गया और बोला - "दीदी , ये मेरे साहब हैं, पहले उन्नाव में थे और अब यहाँ आ गए हैं. इन्हीं ने मुझे बुलवाया था. "
"नितिन तुम बैठो , मुझे शामली से कुछ बातें पूछनी है."
"जी पूछिए." शामली खुद ही बोल पड़ी.
"तुम रहती कहाँ हो?"
"जी गाँव में , अर्जुनपुरगढ़ा  नाम है. "
"तुम्हारा पति क्या करता है?"
"मुझे नहीं मालूम, बाहर ही रहते हैं."
"गाँव में नहीं ."
"नहीं, "
"ये तो बताता ही होगा कि उसका क्या काम है?"
"मुझे कुछ नहीं मालूम, गाँव में रहते ही कम है. जब पापा के जायदाद के लिए कुछ काम होता है तभी बात भी करते हैं नहीं तो कोई मतलब नहीं ."
"घर में कौन कौन है?"
"मेरी बीमार सास, अपाहिज ननद और मेरे ससुर."
"घर में नौकर तो होंगे ही."
"नहीं कोई नहीं है, एक औरत आती है, खेती के काम करने के लिए. उसी ने बताया था कि शहर में कोई और है जिसके साथ रहते हैं."
"तुमने खुद कभी नहीं पूछा ?"
"क्या पूछूं? कहाँ जाऊँगी ? मेरा कौन है? एक ये भाई इसने भी मुझे छोड़ दिया और नाना ने तो  शादी करके कुँए में डाल कर छुट्टी पा ली. मार मुझे इसलिए नहीं सकता क्योंकि घर में सेवा और काम कौन करेगा? फिर पापा की जायदाद के लालच में तो शादी की ही थी. " वह बताते बताते रुआंसी हो उठी.
"तुम्हें पता है की तुम्हारे नाना जी नहीं रहे, नितिन तुम्हारे पास गया था तो तुम्हारे घर वालों ने उसको मिलने नहीं दिया. तब से वह भी तो बेसहारा भटक रहा है "
"नहीं, मुझे कुछ भी नहीं पता है."
"पढ़ाई की है."
"हाँ, एर्थ तक ."
"इसमें तो हाई स्कूल का सर्टिफिकेट लगा है."
"हाँ, कहीं गाँव से नाना जी ने फार्म भरवा दिए थे और फिर बिना  एक्जाम दिए ही पास हो गयी और ये सर्टिफिकेट मिल गया."
"ओह - तो ये बात है."
"अब क्या होगा?"
"कुछ नहीं, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पापा की संपत्ति में नितिन का भी हिस्सा है. तुम दो दावेदार हो."
"नहीं , दावेदार तो चार हैं."
"चार और कौन है?"
"मेरी पहली मम्मी थी , जिनके मेरे एक भाई और एक बहन और भी हैं." उसके मुँह से ये सुनकर लगा कि मेरा दिल एकदम से बैठने लगा था. ये जरा सी लड़की इस बात को स्वीकार कर रही है जिसको उसकी माँ ने कभी नहीं स्वीकारा.
"क्या? तुम जानती हो उन्हें?"
"नहीं, वे मम्मी पापा के न रहने पर आये थे, तब हम छोटे थे. मामाजी ने उनको पापा से दूर रहने के लिए कहा था. फिर वे कभी नहीं आये." उसका गला भर आया था.
"उसके बाद उनकी कोई खबर नहीं मिली."
"अब नहीं पता, पहले अपने नाना के पास इलाहबाद में रहते थे."
"तुम्हें ये सब किसने बताया?"
"मैंने मम्मी और पापा से ही सुना था. अब तो वे न तो  हमें जानते होंगे और न मैं उन्हें कि सब लोग कहाँ गए?"
"कोई बात नहीं, सारी संपत्ति तुम्हें अकेले नहीं मिल सकती , ये तुम्हें पता है न."
"जी, नितिन भी है न, मैं अकेले लेना भी नहीं चाहती हूँ."
"अच्छा ये बताओ कि , अगर तुम्हें पापा मिल जाएँ तो?"
"मैं उनके पास भाग कर चली जाऊँगी, मुझे वहाँ नहीं रहना है."
"अब अगर मैं इन कागजों पर आब्जेक्शन लगा कर भेज दूं तो तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं होगी."
"नहीं, पहले नितिन को भी मिलनी चाहिए."
"ठीक है - जरूरत पड़ी तो मैं फिर तुम्हें बुलाऊंगा और मैं खुद भी आ सकता हूँ पूछताछ करने के लिए."
"जी, ठीक है."
"अभी अपने पति को नितिन के मिलने के बारे में कुछ मत बताना, बहुत कार्यवाही होना बाकी है."
"ठीक है, मैं अपने भाई को फिर से नहीं खोना चाहती."
                 मैंने चपरासी को कहकर संदीप को बुलवाया और नितिन को वहाँ से हटा दिया. संदीप जब कमरे में घुसा तो उसके चेहरे पर तनाव झलक रहा था. फिर भी बहुत संयत होकर उसने पूछा -" साहब, सारी पूछताछ हो गयी."
"हाँ, अब इनको ले जा सकते हो."
"अब कितने दिन में कागज़ चला जाएगा."
"बहुत जल्दी और इसकी सूचना तुम्हारे पास पहुँच जायेगी."
              ठीक है साहब कहते हुए उसने शामली का हाथ पकड़ा और तेजी से बाहर निकल गया.
"

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (११)

पिछला  कथा सारांश    --
                                           आशु एक डी एम का बेटा जो अपनी माँ की मौत के बाद नाना नानी के घर पला और फिर पिता की दूसरी शादी ने उससे उसके पिता को भी दूर कर दिया. अपने पापा को बहुत मिस करता था. जीवन के एक मोड़ पर एक एक्सीडेंट में उसके पापा और नई माँ दोनों स्वर्गवासी हो गए . उस खबर को सुन कर आशु अपने नाना के साथ लखनऊ भागा लेकिन उसकी नई माँ के भाइयों ने उसको पापा की अंतिम क्रिया भी नहीं करने दी और दुबारा वहाँ न आने कि हिदायत भी दी. वह अपने पापा के तरह से बनने के लिए आई ए एस की तैयारी करने लगा और फिर उसकी पहली पोस्टिंग उसी जगह हुई जहाँ वह पैदा हुआ था. उसी बंगले में मिला उसे अपना सौतेला भाई,  एक माली के रूप में काम करता हुआ. उसके भविष्य के लिए उसको पढ़ने की व्यवस्था की. ट्रान्सफर होने के बाद वह वहाँ आ पहुंचा जहाँ के पास के गाँव में उसकी सौतेली बहन की शादी हुई थी. ये शादी उसके ससुराल वालों ने पापा की संपत्ति के लालच में आकर की थी और फिर पापा की संपत्ति पर कब्जे के लिए उसके वैरिफिकेशन का दायित्व उस पर आया ..................
इसके आगे.




                     मैंने घर आकर उन्नाव के डी एम को फ़ोन किया कि मुझे सन्डे को नितिन से कुछ काम है इसलिए वह उसको सन्डे को यहाँ भेज दें. इस विषय में मैंने किसी को भी नहीं बताया दी को भी नहीं कि मेरा अगला कदम क्या होगा? और मैं क्या निर्णय लेने वाला हूँ. मुझे तो ये किसी फिल्मी कहानी की तरह लगने लगा था . क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसा होता है? जिन्दगी में ऐसे मोड़ और ऐसे कठिन  परीक्षा के क्षण- जिसमें इंसान खुद ही दब कर रह जाए.
                      क्या ईश्वर किसी की जिन्दगी इस तरह से पूरी तरह से तहस नहस कर देता है कि महलों से उठा कर इंसान को सड़क पर खड़ा कर दे और कहे कि अब अपने हाथ से सब कुछ कर. मैंने इसी लिए शामली को भी सन्डे को ही बुलाया था कि उस दिन नितिन के यहाँ होने पर उससे वेरीफाई तो करवा ही सकता हूँ और फिर ये भी देखना होगा कि ये लोग जायदाद के लिए उसको किस तरह से रखे हुए हैं. गलत तो वह कर ही रहे हैं और इसके लिए वे अपराध भी कर रहे हैं कि पापा के तीन और वारिस होते हुए भी सबको नकार रहे हैं. हम दो न सही नितिन को तो उसका हक मिलना ही चाहिए. बहन तो उससे छीन ही ली है और वह दरवाजा भी जहाँ वह कभी जाकर अपनी बहन से सुख दुःख तो बाँट सकता. सोचते ये हैं कि सारी संपत्ति उनको मिल जाये और फिर शामली से तो उनके पास आ ही जाएगी.
                      दूसरे दिन जब मैं ऑफिस पहुंचा तो संदीप बाहर ही खड़ा था. मैं अन्दर चला गया , मुझे अब यकीन होने लगा था कि ये लोग शामली को सिर्फ पैसे हथियाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं तभी तो उसको लाने में इसने इतनी आनाकानी की और जब बात नहीं बनती लगी तो लाने के लिए तैयार हुआ और आज आकर फिर खड़ा हो गया. मैंने बैठते ही सबसे पहले चपरासी को बुलाया और कहा की बाहर जो खड़ा है उसको अन्दर भेज दे.
                    संदीप जब अन्दर आया तो उसके चेहरे पर कुछ  घबडाहट दिख रही थी. मैंने उसको इग्नोर करते हुए खुद को व्यस्त दिखाने लगा.
"साहब, आपने परसों बुलाया है और उस दिन तो इतवार है."
"हाँ , उस दिन सन्डे है, फिर आने में कोई परेशानी."  मैंने बिना सिर उठाये ही उससे प्रश्न किया.
"नहीं , साहब उस दिन तो आपका ऑफिस बंद रहेगा."
"हाँ , ऑफिस बंद रहेगा लेकिन मैं आपके केस  को घर पर ही देखूँगा. ये काम इतना आसन नहीं है जितना कि आप समझ रहे हैं. आप जिसके वारिस के लिए मुझसे वेरीफाई करवाना चाह रहे हैं वह मेरे ही कैडर का इंसान था. इस लिए मुझे उस लड़की से विस्तार से पूछताछ करनी पड़ेगी. आप सन्डे को ही लेकर मेरे बंगले पर आ रहे हैं." मैंने उसको स्पष्ट कर दिया कि वह जितना आसन इस काम को समझ रहा है , उतना वह है नहीं.
"जी , साहब बहुत अच्छा." कहते हुए वह बाहर निकल गया.
                   *                       *                     *                        *                      *
             सन्डे का मुझे भी इन्तजार बहुत था. पता नहीं मन में कितनी सारी बातें उमड़ रही थी कि कहीं इन लोगों ने शामली मार न दिया हो क्योंकि ये तो जल्दी दौलत हासिल करने के चक्कर में तभी से थे. तभी तो  नितिन से इन लोगों ने उसी वक्त  लिखवा लिया था कि वह पापा की संपत्ति में कोई दावा नहीं करेगा. ये सब तो जायदाद के लिए होता है लेकिन एक वह जिस बच्चे का कोई न हो उसको इस तरह से बेघर और सब कुछ उससे छीन लेने की कोई सोच कैसे सकता है? अब मैं दी को पूरा निर्णय लेने के बाद ही बताऊंगा कि मैं भी उनका भाई हूँ और ऐसे ही नहीं पूरी डिस्ट्रिक्ट का काम संभाल रहा हूँ.
               उस दिन पहले नितिन आ गया . उसको कुछ मालूम नहीं था लेकिन अब उसके चेहरे पर कुछ आत्मविश्वास आ गया था शायद ये उसके पढ़ने से या फिर उसको जो मालियों वाले माहौल से अलग माहौल  मिलने लगा था उससे.
  उसने आते ही पता नहीं क्यों मेरे पैर छुए? वैसे दिल से कहूं तो ये हक़ बनता है मेरा . बड़ा भाई जो हूँ और क्या पता कि इन दोनों नन्हे से बच्चों को हम दोनों को ही अपने छत्रछाया में न लेना पड़ जाय. अपने आप तो सभी जी लेते हैं लेकिन किसी सहारे से लता अधिक ऊपर चढ़ती है जमीन पर फैल कर वह अधिक फलवती नहीं हो पाती. बिल्कुल अनाथ समझने वाला जिसका न आगे कोई  और न पीछे. , क्या करना है और क्या नहीं ? ये भी तो उसको बताने वाला कोई नहीं है.
"ठीक हो नितिन, वहाँ कोई परेशानी तो नहीं."
"नहीं सब ठीक है, नए साहब ने मुझे पढ़ने के लिए किताबे भी मंगवा कर दी हैं और काम कम ही करवाते हैं. " वह खुश होकर बता रहा था और मुझे लगा कि मेरे  दिए दायित्व को उन्होंने ठीक से पूरा किया है.
"देखो नितिन , मेरे पास तुम्हारी बहन का शामली का केस वेरीफाई करने के लिए आया है और मैं शामली को नहीं पहचानता. उसका पति मेरे पास आया था. मैंने उसको आज ही बंगले पर बुलाया है और तुमको अन्दर ही रहना है . जब मैं तुमको बुलाऊंगा तभी तुम आना और अपनी बहन से मिलना. उससे बारे में सब कुछ तुम्हें उससे पूछना है. वे लोग तुम्हारे पापा की जायदाद के लिए ये सब कर रहे हैं ."
"क्या दीदी आएगी यहाँ?" नितिन बच्चे की तरह से चहक पड़ा.
"हाँ, उसे मैंने वेरीफाई करने के लिए बुलाया है."
"कौन उसको लेकर आने वाला है?"
"उसका पति संदीप."
"देखता हूँ, मुझे तो उन लोगों ने दरवाजे से भगा दिया था और दीदी से मिलने भी नहीं दिया था."
"कोई बात नहीं, इसी लिए तो मैंने तुमको बुलवाया है कि तुम उससे सारी बातें जान लोगे.मुझे सच पता चल जाना चाहिए और फिर सारी संपत्ति पर उन्हें हक़ कैसे मिल सकता है? तुम्हारा हक़ तो तुम्हें मिलेगा न."
"नहीं, वे पहले ही मुझसे लिखवा चुके हैं."
"कोई बात नहीं, ये कागज़ कोई मतलब नहीं रखते क्योंकि वे ये साबित कर रहे हैं कि शामली के अलावा और कोई वारिस है ही नहीं." मैंने बात उसके सामने स्पष्ट कर दी.
"वे लोग दीदी को परेशान न करें? " नितिन को अपनी बहन की बड़ी चिंता हो रही थी.
"नहीं, अभी तो हम यह भी नहीं कह सकते कि वे शामली को कैसे रखते हैं? उसकी उस घर में क्या हालत है? मुझे उसके ढंग से सही नहीं लगा क्योंकि वह शामली को लाना नहीं चाहता था."
"आज तो लायेंगे न, बहुत दिन हो गए शादी के बाद से उन लोगों ने उसको भेजा ही नहीं और न मुझे मिलने दिया." नितिन के स्वर में दुःख झलक रहा था क्योंकि उसके लिए तो अपने के नाम पर एक वही बहन ही थी नहीं तो एकदम से अनाथ.
"लायेंगे और जरूर लायेंगे. इसी लिए मैंने उन्हें सन्डे को बुलाया है कि घर पर हम उससे बहुत सी बातें जान सकते हैं. ऑफिस में ये संभव नहीं हो पाता. "
                  बाहर किसी गाड़ी के रुकने कि आवाज आई तो मैंने सोचा कि वही आई होगी. मैंने नितिन को पीछे जाने के लिए बोल दिया. घर में रहने वाले चपरासी ने आकर बताया कि कोई आपसे मिलने आया है. और मैंने उसको अन्दर भेज देने कि बात कही.
                  थोड़ी ही देर में संदीप एक दुबली पतली शरीर वाली लड़की के साथ मेरे सामने खड़ा था. वह लड़की तो लग रही थी मानो कि महीनों की बीमार हो.
"साहब मैं इसको ले आया हूँ और आप जो चाहें इससे पूछ लें." इतना कहने के बाद वह अपने साथ आई युवती के तरफ मुखातिब हुआ और बोला - "ये साहब जो भी पूछें ठीक से सोच समझ कर उत्तर देना. और अपनी तरफ से कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है."
                  मैंने उन दोनों को वही बैठने का इशारा किया. फिर सोचने लगा कि क्या ये लड़की इस लड़के सामने वो सारे सवालों के जबाव दे पायेगी जिनका कि मुझे उत्तर चाहिए क्योंकि इसने उसको जो हिदायत दी है कि अपनी तरफ से कुछ भी बोलने की जरूरत नहीं है. तब तो वह बोल ही नहीं पायेगी और इसके सामने तो बिल्कुल भी नहीं.
"आपका नाम क्या है?" मैंने शामली कि तरफ मुखातिब होकर पूछा.
"जी शामली माथुर."
"आपके पिताजी का नाम क्या है?" 
"जी, स्व. प्रदीप कुमार माथुर."
"तुम अकेली ही हो कोई और भाई बहन." अब मैंने उसके उत्तर के साथ साथ उसके चेहरे को भी पढ़ने कि जरूरत समझी और उसके मनोभावों से ही बहुत कुछ जाना जा सकता था. 
"जी, वो मेरे एक..." वो अटक  अटक कर बोलने लगी .
तभी उसका पति तेज आवाज में बोला --"ठीक से जबाव दो कि कोई नहीं है."
"जी और कोई नहीं है." वह एक सांस में ही बोल गयी. मेरे शक के बादल घने होने लगे कि ये लड़की सिर्फ मोहरा बनाई जा रही है कि सिर्फ संपत्ति हासिल कर ली जाये. 
"आप बाहर जाइये, मुझे इससे अकेले में पूछताछ करनी है." मैंने उसके पति से कहा.
"क्यों साहब , जो पूछना हो मेरे सामने ही पूछिए. अकेले मैं पता नहीं ये क्या बोल दे?" 
"क्या बोल दे का मतलब ? क्या ये पागल है? या इसके बारे में जो मुझे पूछना है वो आप बताएँगे तभी ये बोलेगी." 
"नहीं साहब गाँव की रहने वाली है अधिक जानकारी इसको नहीं है."
"ये गाँव कि रहने वाली कहाँ से है? ये लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल की पढ़ी हुई है. इसके कागज इस बात को साबित कर रहे हैं और ये बचपन से एक संभ्रांत परिवार में पैदा हुई और पली है." मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था. आप बाहर जाइये.
"मैं बाहर नहीं जाऊँगा , आप को जो भी पूछ्ना है मेरे सामने ही पूछिए. मुझे इसका भरोसा नहीं है." वह कहने के लिए तो कह गया लेकिन ये नहीं सोच पाया कि इसका अर्थ क्या हो सकता है?
"अगर आपको इस पर भरोसा नहीं है तो इसको आप पर भरोसा कैसे हो सकता है और मैं कैसे भरोसा करूँ कि आप इसकी जायदाद लेकर इसे ही दे देंगे." 
"जी वो बात नहीं है, ऐसे ही मुँह से निकल गया."
"आप बाहर जाते हैं या फिर मैं खुद आपको बाहर करवाऊं."
"नहीं साहब, बाहर तो मैं नहीं जाऊँगा , मैं अपनी पत्नी को अकेले छोड़ कर कैसे जा सकता हूँ? " 
                   मैं जो नहीं करना चाह रहा था वही करने को ये मजबूर कर रहा था. मैं नितिन को इसके सामने नहीं बुलाना चाह रहा था. 
"ठीक है, आप इनको ले जाइए और वेरीफाई खुद ही कर लीजिये. मैं इस रिपोर्ट पर आब्जेक्शन  लगा कर वापस कर रहा हूँ."  मैंने किसी भी कीमत पर शामली से पूरी पूछताछ किये बगैर वेरीफाई नहीं कर सकता था. मैंने उस फाइल को बंद कर दिया और उठ खड़ा हुआ.
"अच्छा साहब जाता हूँ, ये काम आप ही कर सकते हैं नहीं तो फिर ये केस बंद कर दिया जाएगा." अब वह अपनी औकात पर आ गया और ये भी उसने दिखा दिया कि उसको इस संपत्ति का कितना लालच है. 
"आप बाहर बने वेटिंग रूम में जाकर बैठिये, जब मैं पूछताछ कर लूँगा तो आपको बुला लूँगा." मैं वापस अपनी सीट पर बैठ गया.
             वह पीछे मुड़ मुड़ कर देखता हुआ बाहर निकल गया.  

                                                                                                                                             (  क्रमशः )

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ? (१०)

                        जीवन की गति अपने वश में कब रहती है? खासतौर पर तब, जब कि  हम किसी और के नौकर हों. हाँ चाहे आप किसी के घर में नौकर हों या फिर सरकार के उतने समय के लिए आप बाध्य होते हैं कि  उनके लिए जियें. ये जीना भी कोई जीना है कि  अपनी मर्जी से न उठा सकता है और न बैठा . यहाँ तक कि सोचने तक का समय नहीं होता है. यही मेरे साथ हुआ. मैं फतेहपुर आकर वहाँ की समस्याओं  में उलझ गया और फिर नितिन के बारे में भूल गया. जब अपने लिए सोचने की फुरसत नहीं तो दूसरों के लिए कौन सोचे?
                   एक दिन कुछ फाइलों  के साथ कुछ ऐसे कागज़ सामने आये कि  फिर मुझे चौंक जाना पड़ा. एक पेपर मेरे हस्ताक्षर के लिए रखा था. उसमें नोटेरी से जारी होने के बाद मेरे पास भेजा गया था. ये कागज मैंने पढ़ने के लिए उठाया तो देखते ही चौंक गया क्योंकि इनके बारे में जानकारी के लिए मुझे निर्देशित किया गया था. अन्दर के कागज जब मैंने खोले तो वे किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी मांग रहे थे.
                 उसमें लगी फोटो किसी लड़की की थी और फिर नीचे पहुंचा तो फिर वही जिन्दगी का बंद हुआ अध्याय फिर से खुलने लगा था.
शामली माथुर पुत्री स्व. प्रदीप कुमार माथुर
पत्नी संदीप माथुर
प्रमाण के लिए उसका हाई स्कूल का सर्टिफिकेट भी लगा था और साथ में लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल का एक सर्टिफिकेट भी था. मेरे सामने तस्वीर साफ हो गई थी लेकिन ये किस लिए क्या करना चाह रहे हैं ये भी समझ आ गया था. पहले तो उन लोगों ने अपने स्तर पर सब जानकारी ली होगी लेकिन जब कुछ हाथ न लगा होगा तो ये साबित करने के लिए कि यही एक वारिस है इस तरह के प्रमाण उन लोगों को जुटाने पड़ रहे होंगे. उसके लिए ही जिलाधिकारी की संस्तुति मांगी गयी थी. 


           उसके आगे क्या पढता ? जो नितिन ने बताया था कि  नाना ने शादी ये बता कर की थी कि  मेरे पापा डी एम थे और उनकी बहुत सारी जायदाद है. उसके लालच में ही उन लोगों ने शादी कर ली थी और फिर शुरू हो गया होगा उनका प्रयास. ये एक अध्याय का पहला ही पृष्ठ था. अब याद आया कि  नितिन ने कहा था कि  उसकी बहन की ससुराल खागा में है. उसको बहन से मिलने भी नहीं दिया गया था. उसके ये बताने के बाद ही दी को उसकी चिंता होने लगी थी लेकिन मैं ये सब कुछ नहीं कर सकता था. मगर ये भी मेरे ही सामने आना था . कैसा अजब संयोग - पहले नितिन मुझे मिला और फिर लगता है कि ये भी मेरे सामने ही सुलझाना लिखा है. आखिर मैं ही क्यों इस उलझन का शिकार बनता हूँ.
                   मैंने उस फाइल को देखने के लिए अपने पास रख ली. बाकी सब निपटा कर वापस कर दीं. इस फाइल को मैं फुरसत में गहराई से देख कर ही कोई निर्णय कर सकता हूँ. जिसे मैं जानता नहीं उसको कैसे मैं सही व्यक्ति बता सकता हूँ. वह फाइल लेकर मैं घर भी आ गया. रात में उसको ही पढ़ रहा था कि दी का फ़ोन आ गया. मेरी तो संकटमोचन वही हैं. कभी वह कहती है कि तुम इस पोस्ट पर काम कर रहे हो और इस तरह से छोटी छोटी बातों के लिए निर्णय नहीं ले पाते हो. मैं निर्णय ले सकता हूँ लेकिन सिर्फ अपने ओफिसिअल  कामों में , ये जो रिश्ते मेरे पापा से जुड़े होते हैं वे मुझे नर्वस कर देते हैं और फिर नहीं सोच पाता  हूँ कि मैं क्या करूँ.?
"दी, फिर एक प्रॉब्लम में फँस गया हूँ."
"क्या हुआ?"
"दी , वह मुझे कुछ लग रहा है कि नितिन कि बहन के कुछ कागज वेरीफाई होने के लिए मेरे पास आये हैं और मैं उसको कैसे वेरीफाई कर सकता हूँ, जब कि मैंने तो उसको देखा ही नहीं है. "
"क्या वह खुद नहीं आई थी?"
"नहीं, वह फाइल कई महीनों से पेंडिंग में पड़ी थी और ये मेरे ही सामने आनी थी."
"आशु, हो सकता है कि कुछ अच्छा होना हो उस लड़की का, तभी वह इतने दिनों तक अटकी रही."
"लेकिन मैं क्या करूँ?"
"तुम उसको बुलावा भेजो कि वेरीफाई करने के लिए उस लड़की का होना जरूरी है और अगर हो सके तो तुम नितिन को भी बुला लेना ताकि सब पता चल सके."
"पर मैं नितिन को कैसे बुला सकता हूँ? वह अब किसी और के अंडर में काम कर रहा है." मुझे दी कि कही बात उतनी आसन नहीं लग रही थी जितनी कि वह समझ रही थी.
"तुम उस डी एम से बात करो न, वह कुछ दिन कि छुट्टी देकर भेज सकता है. " दी की बात कुछ समझ आई और फिर मैंने भी ऐसा ही करने का सोचा क्योंकि शामली को नितिन ही पहचान सकता है और वह भी नितिन को हर बात बता भी सकती है. अगर वह मेरे सामने लायी भी गयी तो मैं उसकी स्थिति  के बारे  में तो नहीं जान सकता हूँ.
"ठीक दी, थैंक्स अब ऐसे ही करता हूँ."
                     मैंने उसी समय उन्नाव के लिए फ़ोन किया और उस डी एम से कहा कि मुझे कुछ दिन के लिए नितिन को यहाँ बुलाना है, अगर वह भेज सकें तो. मैं पहले ही उनको नितिन की जिम्मेदारी देकर आया था तो उनको ये पता था कि मेरा इस लड़के के साथ अटैचमेंट है. उन्होंने बगैर किसी प्रश्न के कह दिया कि मैं जब भी कहूँगा वह भेज देंगे.
                     दूसरे दिन मैंने उन कागजों के पते पर आदमी को भेज कर कहला दिया कि इससे सम्बंधित व्यक्ति मुझसे आकर मिले. अधिक समय नहीं लगा और वह लड़का मेरे पास जल्दी ही आ गया. उसके हाथ में वह कागज़ भी था जिसपर मैंने मिलने का आदेश दिया था.
"नमस्कार साहब, मैं संदीप माथुर, शामली माथुर का पति आपने मुझे बुलाया था."
"हाँ, लेकिन आपकी पत्नी कहाँ है?"
"वो तो घर पर ही हैं, जो पूछना हो आप मुझसे पूछ सकते हैं. मैं उसकी पूरी कहानी बता सकता हूँ."
"आप करते क्या हैं?"
"वो प्रापर्टी डीलिंग का काम है मेरा."
"कहाँ पर"
"चारों तरफ है, लखनऊ, फतेहपुर, इलाहबाद और भी कई जगह."
"आप चाहते क्या है? ये वैरिफिकेशन क्यों आया है?"
"जी वो मेरी पत्नी के पिता और माता दोनों एक एक्सीडेंट में ख़त्म हो गए थे. उनकी वही अकेली वारिस है तो मैं चाह रहा था कि उनकी जो भी प्रापर्टी है वह उसके नाम आ जाये . कुछ बैंक में पैसा भी है. "
"तुमने उसे लेने के लिए कोई कार्यवाही की है."
"हाँ साहब उसको ही तो किया था कई साल हो गए लेकिन कुछ न कुछ कमी निकल कर वापस आ जाते हैं सारे कागज."
"इससे क्या होगा?"
"इससे साहब आपके हाथ में है, अगर आप वेरीफाई कर देंगे तो उसको उसका हक़ मिल जायेगा."
"उसके कोई भाई बहन ."
"नहीं साहब और कोई नहीं है." उसके ये कहने के साथ ही मेरा खून खौल उठा कि कितनी चालें  चली जातीं है इस दौलत के लिए, इंसान सगे रिश्तों को भी ख़त्म कर देता है. मैं तो कुछ भी नहीं लेकिन नितिन के बारे में तो ये लोग जानते ही हैं फिर भी?   लेकिन मैं इसको ऐसे नहीं  छोड़ना चाहता था .
"आपको पता है कि किसी भी ऐसी संपत्ति के लिए पहले एक नोटिस दिया जाता है कि अगर कोई उसका वारिस हो तो दवा कर सकता है . वह नोटिस निकला क्या?" 
"हाँ निकला था, कोई दावेदार नहीं है."
"वो तो सरकारी तरफ से निकाला जाएगा. बैंक अपने तरफ से और उनका ऑफिस अपने तरफ से." 
"हाँ , साहब निकल चुका है, अब बस ये आखिरी कार्यवाही है. उसके बाद सब उसके नाम आ जायेगा."
"अगर वो डी एम थे तो उनके पास काफी जायदाद होनी चाहिए और पैसा भी." मैंने उससे उगलवाना चाह रहा था.
"वो तो है, लेकिन पहले कार्यवही पूरी हो तब खुलासा हो पायेगा." उसने अपनी बात सपाट स्वर में कह दी.
"ऐसा है कि आप अपनी पत्नी को लेकर आइये इसके बाद ही वैरिफिकेशन हो पायेगा." मैंने उसको आखिरी उत्तर दिया.
"साहब अब उसको कहाँ लाऊं? आप जैसा कहेंगे मैं समझ लूँगा." वह मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और मेरा क्रोध उसके शब्दों के साथ ही बढ़ गया की इंसान पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है.
"आप जा सकते हैं और समझ तो मैं आपको लूँगा." मेरा क्रोध अपनी सीमा से अधिक बढ़ रहा था. और मैं उस इंसान के बारे में इससे ही समझ चुका था कि शामली उस घर में कैसे रह रही होगी? नहीं तो उसको शामली को लाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी.
"साहब गुस्सा मत कीजिये , मैं उसको लाने की कोशिश करूंगा. अगर घर वाले उसको बाहर भेजने को तैयार हो गए." वह डर गया था.
"इसका मतलब कि वह घर से बाहर नहीं जाती. " 
"नहीं साहब, मेरा काम बाहर का रहता है और उसके मायके में तो कोई बचा नहीं है तो जाएगी कहाँ? " 
"ठीक है , उसको दो दिन बाद लेकर आना." मैंने अपना निर्णय सुना दिया था. 
                 उस लड़के के बयान से ये लग रहा था कि शामली पैसे के भूखे लोगों के बीच फँस चुकी है. पता नहीं किस हाल में होगी? लेकिन ये तो निश्चित है कि अब इससे कुछ तस्वीर सामने आएगी और उसके बारे में भी पता चल सकता है.       कौन कहाँ से कहाँ? (१०)

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ (९) !

निवेदन : एक लम्बे अन्तराल के बाद कहानी की अगली कड़ी दे रही हूँ क्योंकि इस कथा के  वास्तविक अंत के इन्तजार में थी और कई बार मेरे पहले दिए गए निर्णय ही किसी का सत्य बन चुके हैं सो नहीं चाहती थी कि फिर ऐसा हो. इस विलम्ब के लिए क्षमा.
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                           नितिन तो चला गया लेकिन उस फोटो को उठा कर मैंने अपने सामने रख लिया, मैं जी भर कर पापा को देख लेना चाह रह था. दी ने बीच में हो टोक दिया - 'क्या सोचा है आशु तुमने इन लोगों के लिए?'
'इन लोगों से मतलब?" मेरी कुछ समझ नहीं आया कि दी क्या कहना चाह रही हैं?
"इन लोगों से मतलब नितिन और उसकी बहन के बारे में." दी ने अपनी बात स्पष्ट की.
"नितिन के बारे में तो मैं देख लेता हूँ, लेकिन उसकी बहन के बारे में हमें कुछ भी नहीं पता है , फिर हम क्या कर सकते हैं?" मुझे दी की चिंता कुछ अच्छी नहीं लगी क्योंकि अभी नितिन फिर उसकी बहन हम कहाँ खोजेंगे? लेकिन मैं कुछ बोलना नहीं चाहता था.
"पहले इसको तो देखो फिर उसे भी देखेंगे, पता तो करना ही पड़ेगा की किस हाल में है?" दी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थीं.
"देखो दी, अभी हम हाल में तो कुछ नहीं कर सकते हैं, आप अच्छी तरह से सोच कर प्लान बना लें कि कैसे क्या हो सकता है? फिर बाद में देख लेते हैं." मैं चाहता था कि दीदी अभी इस चिंता से मुक्त हो लें. 
                वाकई दी यहाँ से जाने से पहले मुझे नितिन के लिए ढेर सी हिदायतें देकर चली गयीं. 
                     *                 *                      *                    *                    *                      *
          मैंने नितिन को किचेन में काम में सहायता करने को बोल दिया और सबको कह दिया कि दिन में नितिन मेरे साथ ऑफिस जायेगा और सुबह शाम किचेन में काम करेगा. इस तरह से मैंने उसको कॉलेज में पढ़ने के लिए समय दे दिया.  समय के साथ हम सभी अपने अपने काम में व्यस्त रहे. मेरा यही प्रयास रहता कि नितिन अपने कमरे में जाने से पहले यही पर खाना भी खा ले. मैं नहीं चाहता था कि वह काम के बाद अपने लिए खाना बनाये , मैं जानबूझ कर देर से डिनर लेता और नितिन को रुकने को कह कर बाकी को भेज देता. उन लोगों को कुछ भी ऐसा नहीं लगना चाहिए था कि मैं अपने ही नौकरों के बीच में किसी को अधिक सुविधा दे रहा  हूँ और किसी को कम. सब को पता था कि नितिन सबसे अधिक काम करता है. सुबह शाम किचेन में और दिन में साहब के साथ , रात में भी साहब देर तक काम करवाते हैं. क्या करवाते हैं ये उन्हें नहीं पता था? लेकिन वे जानते थे कि नितिन नया लड़का है और हो सकता है कि उन लोगों से अधिक पढ़ा लिखा भी हो, इसी लिए साहब उससे ऑफिस का काम भी लेते हैं. 
                   कब ३ साल बीत गए पता नहीं चला और नितिन पढ़ाई करके अधिक मेहनती हो रहा  था. वह बी ए में आ चुका था और मैं चाहता था कि वह ग्रेजुएट हो जाए और इसके बाद उसको पापा के बेटे के रूप में कोई नौकरी मिल जाये. उसके बाद उसके घर और पैसे की बात देखूँगा. मेरा ट्रांसफर उन्नाव से हो गया और मैं इसके बाद जिस जगह पर जा रहा था वह उसके नाना के घर का ही जिला था. जब उसको पता चला तो उसने बड़े खुश हो कर बताया कि उसके नाना का गाँव वही पास में है. इसको ही आत्मा का और उस मिट्टी का जुडाव कहते हैं जहाँ से उसकी माँ जुड़ी थी. उसने भी तो माँ के बाद वही कुछ साल गुजारे थे. फिर वह मेरे जाने के दिन जैसे जैसे नजदीक आ रहे थे उदास रहने लगा. एक चिंता मुझे भी लगी थी कि पता नहीं मेरे बाद इसके साथ कैसे व्यवहार किया जाए? इसको पढ़ने का मौका मिले या न मिले वैसे अब इतना तो हो ही चुका था कि वह अपनी पढ़ाई के प्रति छूटी हुई रूचि फिर से पा चुका था. इंटर में भी उसने अच्छी रेंक निकाली थी. उम्मीद थी कि वह इसी तरह से पढ़ा तो अगले दो सालों में वह ग्रेजुएट हो जायेगा.
              जब मैंने अपना चार्ज नए डी एम को दिया तो मैंने उन्हें नितिन का चार्ज भी दिया और उनसे कहा कि अभी इस बच्चे के भविष्य के लिए मैंने ऐसी व्यवस्था कर दी है ताकि इस उम्र से यह सिर्फ माली ही बन कर न रह जाए. उसे पढ़ने का मौका इसी तरह देते रहें. 
               उन्होंने ने भी मुझे पूरा आश्वासन दिया कि निश्चित रूप से जैसे मैंने उसको पढ़ने का मौका दिया है, वे भी उसको अवश्य देंगे. 
               मेरे जाने के तीन दिन पहले से नितिन ने आना बंद कर दिया था. पता चला कि वह कमरे में ही रहता है लेकिन आ नहीं रहा है. मैंने जाने के एक दिन पहले उसको बुलवाया तो वह उदास सा चेहरा लिए आ कर खड़ा हो गया. मुझे लगा कि उसकी कोई तबियत ख़राब होगी.
"नितिन तुम्हें क्या हुआ है? आ भी नहीं रहे हो और कॉलेज जा रहे हो या नहीं."
"नहीं, अब पता नहीं क्या होगा? पढ़ पाऊंगा या नहीं? " उसने धीमे स्वर में बोला.
"तुम पढ़ पाओगे और तुम्हें पूरा पूरा समय मिलेगा. इसी तरह से, मैंने नए साहब से बात कर ली है." मैं उसको आश्वस्त करना चाह रहा था कि उसको इस बात का भय न रहे कि नए साहब कैसे होंगे? और उसको क्या पढ़ने की सुविधा देंगे या नहीं.
"ठीक है, फिर तो मैं पढता रहूँगा." एक मंद सी स्वीकृति की ख़ुशी दिखी लेकिन कुछ पल बाद ही उसके चेहरे से गायब भी हो गयी.
"ठीक है तुम जाओ."
                 दूसरे दिन जब मैंने जाने लगा तो नितिन सबसे बाद में आया और मेरे पैर छू कर रो पड़ा. बिल्कुल बच्चों की तरह से बिलख बिलख कर और मैं भी उस समय अपने को सभांल नहीं पा रहा था. मैंने उसके सिर पर हाथ फिरा कर और जल्दी से गाड़ी में बैठ गया. काले चश्मे के भीतर मेरी आँखें चुगली न कर दें , मैंने ड्राइवर से गाड़ी चलने के लिए कहा. उस काले चश्मे ने मुझे सबकी नज़रों से तो बचा लिया लेकिन क्या मैं खुद अपनी नज़रों से बच पाया. हाँ मैं अपने को इस समय कमजोर पा रहा था. नितिन से खून का रिश्ता चीख चीख कर कह रहा था कि ये मेरी जिम्मेदारी है कि इसके भविष्य के प्रति चिंता करूँ. उसको उसका हक़ दिलवा ही दूं. वर्ना शायद पापा की आत्मा उसके और मेरे  गिर्द भटकती न रहे. सोचा तो मैंने भी था कि यहाँ से निकल कर ही पापा के सारे पुराने बैंक एकाउंट और घर के बारे में सब पता लगवाऊंगा और फिर उसको कैसे भी सही उसके हक़दार को दिलवा कर ही रहूँगा.
                                                                                                                                       (क्रमशः)

शनिवार, 18 सितंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ (८)

               शाम को मैं ऑफिस से वापस घर आया तो सीधे ड्राइंग रूम में दीदी के पास दरवाजे पर ही पहुंचा था कि मैंने टेबल पर पापा की  फोटो रखी देख मेरे मुँह से सहसा निकल गया - 'दी, ये पा' इससे आगे मैं एक शब्द भी बोल पाता कि दीदी ने मुझे टोक दिया - "आशु मैंने  आज नितिन को बुलाया है, इसके बारे में कुछ बात करनी है." मैंने पलट कर देखा तो दरवाजे के बगल में नितिन स्टूल पर बैठा हुआ था.अब  मेरी  समझ आ चुका था कि पापा की ये फोटो या तो दीदी ने नितिन से मंगवाई होगी या फिर ये खुद ही लेकर आया होगा. विश्वास न करने की कोई गुंजाइश ही न थी क्योंकि नितिन अपने आप में खुद ही इस बात का प्रमाण था. भाग्य भी कैसे निराले खेल खेलता है? जिसकी माँ ने हमारा सब कुछ छीन लिया , जिनके आने से पापा हम दोनों से इतने दूर चले गए और रही सही कसर तो उनके ही बच्चों ने पूरी कर दी थी कि पापा को हमारी जरूरत ही नहीं रही. वही आज पापा की तस्वीर लिए हमारे सामने बैठा है और वह भी इस हाल में. कितने दुःख झेले होंगे इसने इन इतने सालों में? जबकि जो क्यारियां ये खोद रहा है, इसके घर में कोई और खोदता होगा. वह तो इतनी संपत्ति का मालिक होगा कि ऐसे कितने माली खुद रख सकता है लेकिन इसे कुछ भी नहीं मालूम और न मिला. पापा के सारे खाते सीज हो चुके होंगे और ये बचपन के अभागे इस बारे में न जानते होंगे और न ही वहाँ तक पहुँच सकते हैं. 
                जिस क्वार्टर में आज ये रह रहा है , इसके घर में और लोग रहते होंगे. कुछ भी हो  एक बंगले का मालिक तो यह आज भी है ही, यह बात और है कि भाग्य की ठोकरों ने इसको फुटबाल बना दिया. बंगले से गाँव के घर में और वहाँ से फिर बेघर होकर इस आशियाने में आकर शरण मिली. दिमाग कुछ इतनी तेजी से सोचने लगा कि मैं वहाँ  रुक नहीं सकता था और  मैंने उसको देखा तो वापस कमरे से बाहर निकल गया और दीदी को बोला - 'मैं अभी आता हूँ."
                        मैं बाहर तो निकल आया और फिर बाथरूम में चला गया बड़ी देर तक मुँह पर सिर पर ठन्डे पानी से धोता  रहा  मुझे थोड़ी  सी राहत चाहिए थी. मुझे ऐसा क्यों हुआ ? मैं खुद नहीं जानता था लेकिन कहीं कुछ अंतरमन में चल जरूर रहा था कि मैं उस कमरे में खुद को रोक पाने में असमर्थ पा रहा था. लेकिन खुद को कब तक इस स्थिति  बचा सकता था. दीदी ने उसको बुलाया है तो उसको सुनना ही पड़ेगा. मैं फ्रेश होकर कमरे में पहुँच गया, अब मैं काफी सामान्य हो चुका था. दीदी  ने नितिन को  पास आकर बैठने को कहा क्योंकि मेरे आने के बाद से वह खड़ा ही था. वह वहाँ से उठ कर मेरे सामने की तरफ आकर फर्श पर बैठने लगा. शायद इसकी मानसिकता अपने काम के अनुरुप साहब वाली थी और फिर वह कैसे ऊपर  बैठे? किन्तु मेरा जमीर इसके लिए तैयार नहीं था कि मेरे ही पापा का बेटा जमीं पर बैठा हो और उसी पिता के दो और बच्चे ऊपर बैठे हों.
"नहीं नितिन यहाँ इस कुर्सी पर आकर बैठ जाओ." मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया और उसने मेरे सामने हाथ जोड़कर 
"साहब, मैं यही ठीक हूँ." कहकर बैठने का उपक्रम किया लेकिन दीदी ने टोका -- "नितिन , वहाँ बैठो , मैं कह रही हूँ न."
"जी अच्छा." कहकर वह सकुचाते हुए कुर्सी पर बैठ गया.    
           इसके बाद मैंने दीदी की ओर देखा कि  इसको क्या कहना है? दीदी मेरे आशय को समझ गयी तो वह नितिन  की ओर मुखातिब होने से पहले मुझसे बोली - " आशु, ये नितिन के फादर की फोटो है, दिखाने के लिए लाया था. तुन्हें पता है इसके फादर डी एम थे."
"हाँ, शायद इसने मुझे भी बताया था."
"नितिन और कौन कौन है तुम्हारे घर में?" मुझे ही बात शुरू करनी चाहिए ये सोच कर मैंने उससे प्रश्न किया.
"कोई नहीं?"
"और बहन तो है न?" दीदी ने उसको बीच में ही टोका.
"है भी और नहीं भी." नितिन ने बड़े निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया था.
"क्या मतलब" मेरे और दीदी दोनों के मुँह से एक साथ निकला.
"इसकी भी बहुत अजीब कहानी है, क्या क्या  आपको बताऊंगा?" 
"फिर भी थोड़ा सा तो बता ही सकते हो." मैंने उससे थाह लेने की कोशिश की.
"नाना ने दीदी के शादी ये बता कर की थी की हमारे पापा डी एम थे और हमारी लखनऊ में काफी प्रोपर्टी है . उसके ससुराल वालों ने मुझसे लिखवा लिया था कि मैं अगर दीदी को खुश देखना चाहता हूँ तो पापा की प्रापर्टी पर अधिकार नहीं दिखाऊंगा." 
"ऐसा क्यों?" 
"शायद उन्होंने लालच में दीदी से  शादी की थी कि नाना कुछ न भी दे पायें उनको वह प्रापर्टी तो मिल ही जायेगी. फिर उन्होंने दीदी को कभी वापस नहीं भेजा. "
"तुम कभी अपनी दीदी के पास गए ही नहीं."
"नहीं, दीदी के शादी के बाद नाना जी बीमार हो गए और फिर मेरी पढ़ाई भी छूट गयी , उसके एक साल बाद नानाजी नहीं रहे."
"नाना जी के न रहने पर तो दीदी आई होगी." 
"नहीं , उन लोगों ने नहीं भेजा और खुद आ गए थे. मुझे नहीं मालूम की क्या हुआ था? मैंने उस तरफ सोचना ही छोड़ दिया है."
बड़े दुखी स्वर में वह बोला था.
"फिर, यहाँ कैसे आये?"
"नाना के न रहने के बाद मामा ने आकर गाँव की सारी जमीन और घर बेच दिया और कहा जाओ अपना कमाओ खाओ, मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है. मैं वहाँ से सीधा दीदी के घर गया क्योंकि मैं ये सोचता था कि अब मेरा सहारा दीदी के घर तो बनही सकता है . मुझे वहाँ पहन मिल जायेगी तो आगे फिर क्या करना है देख लूँगा. लेकिन उन लोगों ने मुझे दीदी से मिलने नहीं दिया और मैं वापस गाँव आ गया, कोई घर तो बचा नहीं था हाँ नाना के भाई जरूर थे उनके घर रहा और उन्होंने मुझे यहाँ पत्र देकर भेजा था कि साहब नौकरी पर रख लेंगे. यहाँ आकर मुझे काम मिल गया और तब से यहीं पर हूँ." अपनी कहानी सुना कर जैसे वह हल्का हो गया था और वह चुप हो कर अपने सिर को दरवाजे की ओर घुमा कर बैठ गया. शायद उसको सब कुछ बताना अच्छा नहीं लग रहा हो या फिर अपने एक एक कर छूटते घर और घर वालों के दर्द से आँखें नाम हो आयीं थी. जिनको छिपाने के उपक्रम में वह बाहर देखने लगा था.
                     उसकी कहानी सुनकर मेरा मन भर आया था जीवन में कौन कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा ये कोई नहीं जानता. जीवन के इस पहले ही मुकाम पर नितिन को भाग्य ने कहाँ से कहाँ लगा दिया. ऐसा तो मैंने कभी न सुना था और न देखा था. वह तो शानदार बंगले से निकाल कर उसी बंगले के एक क्वार्टर तक पहुंचा दिया गया. 
"आशु , मैं चाहती हूँ की नितिन आगे पढ़े." अब दीदी ने उस चुप्पी को तोडा था.
"वो कैसे?" अब मेरी बारी थी.
"अगर तुम इसके लिए कुछ कर सकते हो तो इसको बगीचे से हटा कर किचेन में लगा दो और इसको दोपहर का समय पढ़ने के लिए दे सकते हो." ये दीदी का प्रस्ताव था.
"आप ऐसा क्यों चाहती हैं." अब मेरा ये सवाल दीदी से था और दीदी मेरा मुँह देखती रह गयी शायद उन्हें मुझसे इस तरह के प्रश्न की आशा नहीं होगी लेकिन मुझे हर काम अपने नियम के अनुसार और आपसी विमर्श के बाद करना होगा.
"आशु, ये लखनऊ में सिटी मौंतेसरी स्कूल का पढ़ा है, बचपन में इसकी शिक्षा वही शुरू हुई थी और वक्त ने इसको यहाँ पहुंचा दिया है. अभी भी देर नहीं हुई है अगर ये आगे की पढ़ाई शुरू कर देगा तो जीवन भर इस काम में तो नहीं लगा रहेगा."
"नितिन तुम क्या चाहते हो?" अब मैंने नितिन की ही मर्जी जाननी चाही.
"ठीक है साहब, अगर मौका मिले तो मैं मेहनत से दोनों काम करूंगा."
"ठीक है, मैं देखता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ.?"  मैंने नितिन से कह दिया 
"ठीक है साहब." और वह हाथ जोड़ कर चला गया लेकिन पापा की फोटो वही भूल गया. मैंने पापा की तस्वीर उठा ली और फिर उसी को देखता रहा . मैंने मन ही मन पापा से वादा किया कि मुझसे जो भी होगा मैं नितिन को अच्छी जिन्दगी देने की कोशिश करूंगा और तस्वीर उठा कर फिर मेज पर रख दी.

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (7)

                          दीदी के आने की सूचना मुझे मिली तो लगा की मेरे दिल से एक भारी बोझ उतरने वाला है - जैसे मैं उसे कई वर्षों से ढो  रहा होऊं . मुझसे रहा नहीं गया और मैंने शम्भू को बता दिया कि दीदी आने वाली है और किचेन में सब कुछ ढंग से होना चाहिए. सारी व्यवस्था सही होनी चाहिए. राम किशोर ने मालियों को भी बता दिया कि साहब की बहनजी आ रही हैं . सब अच्छे से साफ सूफ करके रखना , उन्हें कोई शिकायत का मौका न मिले.
                        दीदी को सुबह ट्रेन से जल्दी पहुंचना था सो मैंने सोचा कि ड्राइवर  को परेशान करने से अच्छा है कि गाड़ी मैं ही लेकर चला जाऊं . यहाँ पर दीदी पहली बार आ रही हैं . ये भी नहीं हो सकता कि दीदी आयें और रास्ते में हम इस विषय में कुछ डिस्कस न करें. ड्राइवर के होने से प्राइवेसी नहीं रह जाती और हम खुल कर बात भी नहीं कर पाते और रास्ते भर चुप ये कैसे हो सकता है.
                       हम और दीदी गाड़ी में बैठे तो दीदी का पहला सवाल था -- "हाँ , आशु, अब बोलो प्रॉब्लम क्या  और कैसी है?"
"हाँ दीदी वह नई माँ का बेटा है और मेरे ही बंगले में माली का काम कर रहा है वह भी मेरे यहाँ पर आने के पहले से ही है. " मैं सब कुछ एक सांस मैं कह गया.
"ये कैसे हो सकता है, जहाँ तक मुझे पता है कि नई माँ के बच्चे लखनऊ में सिटी मोंटेसरी स्कूल में पढ़ रहे थे. "
"लेकिन पापा के बाद क्या हुआ? ये तो हमें नहीं पता है?"
"हाँ, उसके बाद तो नहीं पता, हमारा कोई रिश्ता ही कहाँ रह गया था?" दीदी मेरी इस बात से सहमत थी.
"उससे पूछा कुछ तुमने.?
"नहीं, मुझे लगता था कि मैं उसे देखकर डिप्रेस हो जाता हूँ.  कभी पापा और कभी उसकी सूरत सामने आते ही लगता है कि मैं डिप्रेशन में चला जाऊँगा. उसके बाद मैं खुद लॉन में कम ही बैठता हूँ कि कहीं उससे सामना न हो जाए." मैंने दिल की बात दीदी के सामने खोल  कर रख दी थी.
"लेकिन तुम्हें क्यों ऐसा लगता है? तुम क्यों घबराते हो?" दीदी को मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन मैं कैसे उनको यकीन दिलाऊं कि मेरी स्थिति क्या हो जाती है?
"पता नहीं क्यों? लगता है कि उसकी आँखों से पापा कह रहे हों - 'आशु ये तुम्हारा ही भाई है.' बस इसी लिए उसका सामना करने की हिम्मत नहीं होती.
"अच्छा ठीक है, कल मैं मिलती हूँ और फिर उससे सब कुछ जान लूंगी और ये भी पता नहीं लगने दूँगी की मैं उसके बारे में कुछ भी जानती हूँ."
"ये ठीक रहेगा और फिर मैं तो नहीं ही रहूँगा." मैंने अपना मत जाहिर कर दिया.
                  बातें करते करते हम घर तक पहुँच गए. घर में पहुँच कर हमने यह तय किया की इस मामले को दीदी अपने ढंग से सुलझायेंगी  और फिर इस बारे में खुद ही कुछ एक्शन लेने की बात सोची जा सकती है. एक अनचाही और थोपी हुई समस्या का समाधान नियति को शायद हमसे ही चाहिए था. शायद मेरे पापा की आत्मा इस तरह से अपने बच्चों की दुर्गति नहीं देख सकती थी या उनका भाग्य कुछ और ही चाहता हो. क्या? इस बारे में तो मुझे नहीं पता लेकिन कुछ तो जरूर होगा, ये क्यारियाँ खोदते हुए हाथ और गुलाब के पौधों के काँटों की चुभन से रिसते हुए खून में मेरे खून का अंश भी था तभी तो नितिन से मिलने के दिन से एक दिन भी ऐसा नहीं गुजारा जब कि मैं पापा को याद न कर रहा होऊं.  मैं  पापा की तस्वीर अपने कमरे में तक नहीं रख सकता था. अगर कहीं वो तस्वीर किसी ने देख ली तो नितिन से मिलते नईं  नक्श एक सवाल तो पैदा कर ही सकते हैं. सब कुछ उजागर हो सकता था. मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं चाहता कि नितिन ही क्यों इस बंगले का कोई भी इंसां इस बात से वाकिफ हो.
                    दीदी ने अपने कार्यक्रम की भूमिका मुझे बता रखी थी. सर्दियों का सुबह देर से ही होती है.सारे लोग अपने अपने काम ८ बजे के बाद ही शुरू करते हैं.दीदी भी चाय बाहर लॉन में ही लेने कि इच्छुक थी , इसलिए मैंने और दीदी ने चाय लॉन में पी और मैं ऑफिस निकाल गया.
                 दीदी ने सारे बंगले का निरीक्षण घूम घूम कर करने का प्लान बना रखा था जिससे कि वे सबसे वाकिफ भी जो जाएँ और नितिन से मिलने में कुछ अजीब सा न लगे कि सिर्फ उसी से क्यों इतना मुखातिब हो रहीं हैं. बंगले के पीछे की ओर सबके लिए अलग अलग क्वार्टर बने हुए थे. दीदी का सबसे पहले पीछे से ही शुरू करने का प्लान था और उनके घरों कि औरतों से परिचय करने के लिए वे इच्छुक भी थीं. बाहर धूप थी तो सारे घरों कि औरतें बाहर धूप में बैठ कर ही काम कर रही थी. दीदी सबके पास खड़े होकर उनके बारे में पूछने लगीं. उनके घर परिवार के बारे में और मेरे बारे में सबके विचार भी जान रही थीं. दीदी को देख कर वे भी खुश हुई कि अब साहब के घर में कुछ रौनक रहेगी.
"तुम सब लोग यहाँ कब से रहते हो?"
"हमको तो ६ साल हो गए,"
"हमें अभी २ बरस भये हैं."
"हम तो अभी साल भर पहले ही आये हैं"
सब लोगों के जवाब  अपने अनुकूल ही थे. वहाँ जितने भी लोग थे सभी कि  घर खुले हुए थे लेकिन एक घर में ताला लटक रहा था. वह घर नितिन का था. यही अंदाज दीदी का भी था.फिर भी ताला देख कर उन लोगों से पूछ ही लिया - "ये घर खाली है क्या?"
"नहीं, इसमें एक अकेला लड़का रहता है , सो वह काम पर जाते समय ताला लगा जाता है. वहीं बगीचे में काम कर रहा होगा."
"क्या उसकी अभी शादी नहीं हुई?" दीदी ने आश्चर्य से पूछा.
"अभी कहाँ? अभी लड़का ही है , काम उम्र का लगता है. ३ महीने पहले ही तो यहाँ आया है." किसी ने उसके बारे में बता दिया.
"ओह" दीदी ने उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए वह बंगले के सामने कि ओर निकाल आई जहाँ पर माली अपना अपना काम कर रहे थे.  दीदी सबसे कुछ न कुछ पूछ रही थी क्योंकि उन लोगों में मिलने के लिए उनसे उनके काम के बारे में जानकारी ली जाय तो वे बहुत खुश होंगे और किसी से अपनत्व जाहिर करने के लिए उनको अपने अनुरूप ही समझना जरूरी होता है.

"इस पौधे का नाम क्या है?"
"इसका सीजन कब से कब तक होता है?"
"इसमें पौध लगते हैं या फिर बीज से लगते है?"
"इसे कीड़ों से बचाने के लिए क्या डालते हैं?"
                 ऐसे ही ढेर सारे प्रश्न उसने सारे  मालियों से किये ताकि किसी को नितिन से बात करते हुए ये न लगे कि उन्हें सिर्फ नितिन में ही रूचि क्यों है? उनका सोचना भी सही था. जिस जगह वह थी , वह महत्व रखती थी, उनके लिए सारे ही माली या और लोग बराबर हैं ऐसा तो उनकी सोच में होना ही चाहिए. अब दीदी कि निगाहें नितिन पर लगी थीं लेकिन वह लॉन में वही काम कर रहा था जहाँ पर टेबल चेयर  लगी थीं. दीदी वापस जाकर कुर्सी पर बैठ गयी और उनकी निगाहें नितिन के काम पर कम उसके चेहरे पर अधिक टिकी हुई थी.

                 सर्दी का मौसम और कुनकुनी धूप में शम्भू ने ताजे अमरूद और धनियाँ कि चटनी के साथ दीदी के सामने लगा कर रख दिए. अमरुद और चटनी दीदी को बहुत ही पसंद थे. दीदी ने मगन होकर खाते हुए हाथ से इशारा करके नितिन को अपने पास बुलाया.
"तुम्हारा क्या नाम है?" उन्होंने पूछा
"नितिन , नितिन माथुर "
"अभी से तुमने ये काम क्यों करना शुरू कर दिया? अभी तो तुम्हारी पढ़ने कि उम्र है?" दीदी ने उससे सवाल किया
"हाँ, पढ़ नहीं पाया तो सोचा कुछ काम ही कर लूं?" बड़े दबे स्वर में उसने जवाब दिया .
"तुम्हारे माता पिता कहाँ है?"
"वो अब नहीं है, मैं अकेला हूँ. उनकी एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई ।" दीदी ने सुन तो लिया लेकिन कैसे कहती कि उनमें जो तुमने खोया था उसमें मेरा भी कोई था .
"क्या? तुम्हारा भी कोई नहीं है?" दीदी ने हैरानी से उससे पूछा
"नहीं, बस एक बहन है, उसकी शादी हो गयी." उसने रिश्ते के नाम पर अपनी शेष बहन को स्वीकार कर लिया.
"तुम्हारे पापा क्या करते थे?"
"डी  एम थे , अब नहीं हैं." उसने इस तरह से सकुचाते हुए बताया जैसे कि ये कोई गुनाह हो.
"क्या? डी एम थे और तुम यहाँ ये कैसे हो सकता है?" दीदी ने कुछ हैरत दिखाते हुए उससे पूछा.
"सच में थे, एक एक्सीडेंट में पापा मम्मी दोनों नहीं रहे."
"फिर........?"
"तब मैं ४ में पढता था और दीदी ६ में. मैं अच्छे स्कूल में पढता था लेकिन पापा के न रहने पर मामा ने नाना के पास गाँव भेज दिया."
"क्यों, तुम्हारा घर नहीं था?"
"था, लेकिन उसमें मामा रहते थे, पापा के बाद सरकारी घर चला गया तो उन्होंने गाँव नाना के पास भेज दिया."
"वहाँ नहीं पढ़े क्या?"
"पढ़ा, सिर्फ हाई स्कूल तक वहाँ था, फिर नाना बीमार हो गए तो उनकी सेवा में लग गया और फिर वे नहीं रहे."
"बहन कहाँ है?"
"नाना ने उसकी शादी जल्दी कर दी थी , उन्हें मामा पर विश्वास नहीं था."
"गाँव में घर तो होगा?"
"हाँ था, लेकिन नाना के न रहने पर मामा ने सब बेच दिया और मुझसे कहा कि अब जाओ कमाओ खाओ. तो यहाँ आकर काम मिल गया तभी से यहाँ हूँ." नितिन भरे गले से सब बता रहा था
"तुम्हारे पापा की नौकरी से पैसा मिला होगा वह कहाँ गया?"
"मुझे कुछ नहीं मालूम, क्या हुआ? कोई साथ नहीं था. नाना मामा से डरते थे,  वही  सारे कागज़ पर साइन करवा कर ले गए थे."
"तुमने कभी जानने कि कोशिश भी नहीं की, अब तुम इतने बड़े हो चुके हो कि पता तो कर सकते हो."
"नहीं, मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम और फिर कौन बताएगा? मेरा साथ कौन देगा? तब कैसा पैसा और घर? लखनऊ में हमारा घर भी था उसमें मामा लोग रहते थे."
"अच्छा आगे पढ़ना चाहते हो?"
"पढ़ लूँगा."
पढ़ लूँगा का क्या मतलब?" दीदी को गुस्सा आ गया , जब इंसां कुछ खुद  ही न करना चाहे तो फिर दूसरा क्या करे?
"काम करूंगा कि पढूंगा, पढ़ने के लिए भी समय चाहिए." नितिन ने अब अपनी मजबूरी जाहिर कर दी थी.
"अगर तुम पढ़ना चाहो तो मैं आशु से बात करके  तुम्हें समय दिलवा सकती हूँ." दीदी ने उसके सामने प्रस्ताव रखा.
"अगर ऐसा हो जाए तो मैं इस काम से छुट्टी पा लूँगा." उसके चेहरे पर आशा की एक लीक दिख रही थी.
"ठीक है, तुम शाम को आना, मैं आशु से तुम्हारे लिए बात करूंगी." दीदी ने उसे शाम को आने कि बात कही.
"थैंक्स"  जब उसके मुँह से सुना तो दीदी को लगा कि ये पापा के संस्कार  हैं , जो इन लोगों के बीच रहकर दम तोड़ने लगे हैं लेकिन अगर इन्हें फिर से हवा पानी मिले तो नितिन भी फिर से जीवित हो सकता है और फिर पापा के छोड़े हुए पैसे और घर पर उसको हक भी मिल सकता है. इतना सब कुछ होते हुए भी उसके पास कुछ भी नहीं यहाँ तक कि सिर छुपाने कि जगह भी नहीं है.   
                                                                                                                                         (क्रमशः)

रविवार, 5 सितंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (6)

                  हम सब इलाहबाद वापस आ गए . मैं अपने मन पर एक बोझ  लिए था कि इन लोगों ने मुझसे ये सब कहने की   हिम्मत कैसे की? मेरा इनसे कोई वास्ता नहीं था. मैं कभी पापा के पास, इन लोगों के उनके जीवन में शामिल होने के बाद, गया ही नहीं , लेकिन पापा के जीवन में नई माँ के आने के पीछे कोई बड़ी साजिश  थी जिसका खुलासा आज मेरे सामने होने लगा था. नई माँ के भाई किसी गाँव के रहने वाले और कम पढ़े लिखे ही होंगे तभी तो उन लोगों की भाषा से अपराधीपन की  बू आ रही थी. कोई शरीफ और सभ्य इंसान क्या किसी के पिता की  मौत के बाद उसके ही बेटे से इस भाषा में और अपने अपराध को क़ुबूल करने वाले वक्तव्य के साथ इस तरह से पेश आया होता. ये बातें तो तब करनी चाहिए थी जब कि मैं ऐसा कुछ उनसे चाहता .
                              लेकिन मन पर ये बोझ कि पापा का एक्सीडेंट  नहीं हुआ है बल्कि ये एक्सीडेंट  करवाने की  एक सफल साजिश  थी और उसमें साजिशकर्ता सफल भी हो गए. नई माँ को उन लोगों ने मोहरा बना लिया था. वी आई पी  जिन्दगी के सारे सुख और अपने कारोबार के लिए पापा का  बैक-अप कोई बुरा तो नहीं था. मैंने ये बातें न नाना को और न दीदी को घर में किसी से नहीं कहीं. उन को सुनकर दुःख होता और फिर वे मुझे लेकर हर समय सशंकित रहते कि कहीं मेरे साथ भी कुछ गलत न हो जाय.
                            पापा के न रहने पर वे लोग मीना मौसी को अपने घर काम करने के लिए ले गए और मीना मौसी तो बाल विधवा थी उनको सहारा चाहिए था कि उनके लिए अपने खर्च के लिए कुछ काम बना रहे. लेकिन कुछ ही महीने के बाद मीना मौसी  वहाँ से छोड़ कर वापस अपनी माँ के घर आ गयीं. मीना मौसी का आना क्या हुआ?  नए रहस्यों का खुलना शुरू हो गया. मीना मौसी पहले तो मम्मी के साथ ही गयीं थी लेकिन फिर उन्हें पापा के लिए वहाँ रहना पड़ा. वह गंभीर प्रकृति की महिला हैं  या कहें कि वे जो १० साल में ब्याही गयीं और १२ साल में बिना गौना हुए विधवा भी करार दे दी गयीं थी. अपनी माँ के साथ काम करने आती और फिर मम्मी और मौसी के साथ खेला करतीं थीं.उनका सारा जीवन इसी तरह से गुजरना था सो मम्मी की शादी के बाद दीदी के होने पर नानी के कहने पर वे मम्मी को सहारा देने के लिए आ गयीं थी और फिर यहीं रहीं थीं.
                  मीना मौसी ने बताया कि -- 'दीदी के न रहने पर साहब बहुत दुखी रहते, ऑफिस से आकर बस कमरे में ही रहते थे. कुछ लोगों ने ऑफिस के काम से घर में आना शुरू कर दिया था. कुछ फरेबी लोग होते हैं जिन्हें हर कोई नहीं समझ पाता.साहब भी पढ़े लिखे तो थे लेकिन चालबाजी से बहुत दूर रहते थे सो उनको भी ऐसे लोगों की पहचान न थी.'
                  एक दो साल में उन लोगों ने साहब से अच्छी दोस्ती कर ली थी, उनका कुछ काम साहब के द्वारा ही हो सकता था सो वे चापलूसी करते रहते. कभी कभी तो रात का खाना भी मैं बना कर उनको खिलाती थी. वे ठेका जैसे काम की बात करते थे. फिर धीरे धीरे  उन्हें पता चला कि वे साहब बच्चों को बहुत चाहते हैं लेकिन बच्चे छोटे हैं इसलिए उनको अपने पास रख नहीं पाते हैं.हम लोग पापा की कमजोरी हैं इस बात का उन लोगों ने फायदा उठाया और पापा से चल खेल कर फंसने की साजिश रची, जिससे की पापा पूरी तरह से उनके काम को मना न कर सकें.
       'अरे साहब , दूसरी शादी कर लीजिये बच्चों को माँ मिल जाएगी और आप को साथीजिससे  कि आपके बच्चे आपके पास रह सकेंगे. मेरी बहन बहुत अच्छी लड़की है वह सब संभाल लेगी. आपके घर में फिर से खुशियाँ लौट आएँगी. '
            उन लोगों ने साहब को खूब सब्जबाग दिखाए और  मैं भी बहुत खुश थी कि नई मालकिन आ जाएँगी तो साहब खुश रहने लगेंगे और दीदी के बच्चे भी अपने पापा के पास आ जायेंगे. '
            फिर वे लोग रोज आने लगे और इसी विषय में बातें करते. एक दिन वह एक लड़की लेकर आ गए और साहब के आने का इन्तजार करने लगे. साहब के आने पर उस लड़की ने मेरे पास आकर पूछा कि साहब को कौन सा नाश्ता पसंद है और फिर मुझे हटा कर बनाया. बात मुझे कुछ बनती नजर आने लगी और फिर साहब ने कोर्ट में शादी कर ली.शादी की खबर उन लोगों ने यहाँ पर भी नहीं लगने दी. बाद में बताने के लिए कहा था.
             जैसा मैंने सोचा वैसा नहीं हुआ.शादी के बाद तो उन लोगों ने भी घर में डेरा जमाना शुरू कर दिया और साहब को ये बिल्कुल भी पसंद नहीं था.अधिक पास आने से उनको ये पता चल गया कि ये लोग अच्छे नहीं है लेकिन वे अब उनके रिश्तेदार बन चुके थे. कभी कभी उनका काम करवाना भी पड़ता था जिससे साहब पर लोगों ने उंगलियाँ उठना शुरू कर दिया .  साहब ने मेमसाहब से कहा कि उनके भाई यहाँ न रहा करें. इससे घर में क्लेश शुरू हो गया.  साहब न हों तो भाई आते और बहन को कुछ न कुछ कह जाते. फिर मालकिन खुश न रहती और साहब से बहस किया करती थीं. अक्सर साहब अकेले नाश्ता करके चले जाते, मैम साहब बाहर नहीं आती थीं. ये ढर्रा कई कई दिन तक चलता रहता.
                       आखिर साहब ने एक मकान खरीदकर उन लोगों को दे दिया जिसमें जाकर वे रहने लगे . इस घर में उनका आना जाना कम हो गया.
              फिर जब से बच्चा हुआ तो मैम साहब कम गुस्सा होती और भाई से भी लड़ जाती. साहब भी उनके काम में साथ न देते तो कहा सुनी होने लगी थी. उस दिन रात में मैम साहब के भाई किसी काम  को करवाने के लिए बहस कर रहे थे और साहब राजी न थे तो धमका कर चले गए . कई दिनों तक कोई नहीं आया गया और घर में भी शांति रही लेकिन मैं नहीं जानती थी कि शांति तो किसी बड़ी अशांति के लिए चल रही है और फिर ये हादसा  हो गया.'
         मीना मौसी से जो पता चला और जब हम लोगों ने सारे तार  जोड़े तो साफ हो गया कि नई माँ की शादी उनके भाइयों ने अपने ठेके के काम के लिए पापा को यूज करने के लिए करवाई थी. जब काम नहीं बना तो दूसरी तरह से उनका फायदा आजीवन उठाने का रास्ता खोज लिया. बहुत नहीं तो कुछ तो उनके रिश्तेदार होने का प्रेशर होता ही है और पापा भी इसमें फँस ही गए थे. जिससे निकल तो नहीं पाए हाँ हमें जरूर अनाथ कर दिया उन लोगों ने.

रविवार, 29 अगस्त 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (5)

                                 नितिन के  इस तरह से मेरे जीवन में प्रवेश से मेरे जीवन में और मानसिक तौर पर हो रही उथल पुथल को मैं किस तरह से सह रहा था इस बारे में मैं किसी को बता नहीं सकता था. लेकिन उससे जुड़ी बातें और पिता से जुड़ी बातों के तार तो मन में ही जुड़ रहे थे. आज पापा की बहुत याद आ  रही थी क्योंकि वह हैं नहीं , वैसे तो दिल से हम बहुत दूर कर दिए गए थे लेकिन मन के तार कभी टूटे नहीं थे. 
                                 क्या वह सुबह मैं कभी भूल सकता हूँ, वह सर्दियों   की सुबह थी और मैं रजाई में छुपा सो रहा था . नानाजी सबसे पहले उठते थे क्योंकि पेपर चाटने   की आदत में व्यवधान न पड़े. अचानक उस दिन नानाजी के चीखने   की आवाज आई और हम सब बाहर बरामदे की तरफ भागे. नानाजी बहदवास से पेपर को देख रहे थे. कुछ बोल नहीं पा रहे थे मैंने उनके हाथ से पेपर लिया तो उन्होंने सिर्फ उस समाचार पर हाथ रख कर बताया. समाचार था = लखनऊ के डी एम प्रदीप कुमार की  सपत्नीक एक सड़क दुर्घटना में मौत " उसे पढ़कर मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया . तब तक दीदी भी बाहर आ चुकी थी. उसने भी जब पढ़ तो बुरी तरह से रोने लगी. अन्दर का समाचार पढ़ने की हमारी हिम्मत और स्थिति ही नहीं रही. पूरी कॉलोनी के लोग घर में आने लगे क्योंकि सबको मालूम था. फिर मामाजी ने हिम्मत जुटाई और गाड़ी निकाल कर सबको लेकर लखनऊ के लिए चलने बात कही. इलाहबाद से लखनऊ तक का सफर - लग रहा था जैसे कि हम किसी अंतहीन यात्रा पर निकले हैं और फिर उसके आगे जो देखने को मिलेगा उस बारे में सोचने की भी  स्थिति नहीं थी. हम लोग सीधे मर्चरी ही पहुंचे. तब तक पोस्ट मार्टम हो पाने की बात ही नहीं थी. बाहर कुछ उनके ऑफिस के लोग थे. ड्राईवर घायल था और अस्पताल में था. लेकिन हमें कोई नहीं जानता था. वहाँ पर तरह तरह की बातें लोग कर रहे थे -
"कुछ नहीं ये तो मर्डर ही लगता है, किसी ने जानबूझ कर एक्सिडेंट करवाया है."
"वही न , जिसे देखो वही अपना काम करवाना चाहता है, पता नहीं किस ने क्या खुन्नस रखी हो मन में?"
"इतने सज्जन पुरुष की दुश्मनी तो किसी से हो नहीं सकती है."
"अगर दूसरा माने बैठा हो तो?"
"उसी का तो अंजाम लग रहा है, नहीं तो पीछे की सीट पर बैठे दोनों लोग ख़त्म और आगे की सीट से सिर्फ घायल."
"हो सकता है कि पीछे से टक्कर लगी हो."
"नहीं पीछे से नहीं लगी, ये बगल से मारी गयी है, गाड़ी के बगल का हिस्सा बिल्कुल ही क्षतिग्रस्त है."
"सुना है कि डी एम साहब किसी टेंडर के लिए सीतापुर गए थे, उनके साथ रखी उनकी अटैची भी गायब है."
"पता नहीं , ये क्या चक्कर है?"
"हमें तो किसी ठेकेदार की कारस्तानी लगती है., नहीं तो किसी की क्या दुश्मनी?"
                          हम सब एक किनारे खड़े थे और अलग अलग लोगों के मुँह से सबकी बातें सुन रहे थे. कानों में पड़ रही थी लेकिन अपना दिल औ दिमाग तो अभी भी कह रहा था कि नहीं पापा नहीं हो सकते हैं और नई माँ भी. यहाँ मौत जैसा सन्नाटा नहीं पसरा था. लोग अलग अलग समूह में खड़े अलग अलग बातें कर रहे थे लेकिन इतना था किसी ने भी पापा के बारे में कुछ भी गलत बात नहीं बोली थी. हाँ दबे स्वर में नई माँ के भाई के लिए जरूर लोग कुछ कह रहे थे लेकिन हमारे पास इतनी हिम्मत नहीं थी कि हम उनकी बातें सुन पाते , लेकिन कान बंद भी नहीं किये जा सकते हैं.
                          आख़िर दिन में २ बजे पापा की बॉडी हमें मिली,  उससे पहले वहाँ पर नई माँ के दोनों भाई और पिता वहाँ आ चुके थे. नई माँ के बच्चे वहाँ नहीं थे. वहीं की गाड़ी से पापा और नई माँ की बॉडी को घर ले जाया गया. बॉडी को पापा के  सरकारी घर पर ही ले जाया गया था क्योंकि उनके निजी घर में तो नई माँ के भाई काबिज थे शायद उन्हीं के लिए खरीदा गया हो. नई माँ की शादी किसी साजिश के तहत ही कराइ गयी थी, उनके भाई ठेकेदार थे और फिर एक पॉवरफुल शख्स के साथ सम्बन्ध उनको भविष्य में कोई फायदा ही देने वाला था. 
                        जब पापा की बॉडी घर पहुँची तो पहले से ही सारी तैयारी हो चुकी थी, पहुँचते ही उसको ले जाने की प्रक्रिया पूरी कर दी गयी. दीदी पापा के शव से लिपट लिपट कर रो रही थी और बेहाल थी लेकिन मैं अपने को बहुत संयत किये हुए था. दीदी को मामा जी ने बहुत मुश्किल से अलग किया था. हम सब ने उनके शव पर फूल चढ़ाये और पैर छुए तो लगा कि अब ये रिश्ता बस इसी क्षण तक का है. अब हम पूरी तरह से अनाथ हो गए. न माँ और न पापा. बस हम दो ही बचे. नाना जी ने कहा कि मैं पापा को कन्धा दूँ , नहीं तो उन लोगों के बीच हमारी उपस्थिति बिल्कुल नगण्य थी. उन्होंने हमें कहीं भी शामिल करने की जरूरत नहीं समझी. सब काम अपने हाथ से . नई माँ की १० साल की बेटी और ८ साल का बेटा भी वहीं थे. वे बुरी तरह से रो रहे थे लेकिन न वे हमें जानते थे और न हम उनके लिए कोई अर्थ रखते थे लेकिन इस समय हम से ज्यादा उन लोगों ने खोया था. हम तो माँ को बहुत पहले जब अबोध थे तब ही खो चुके थे और आज पापा को खोया है लेकिन इन दोनों ने तो अपने माँ और पापा दोनों को ही एक साथ इस उम्र में खो दिया. ये भी हमारी ही जमात में शामिल हो गए. 
                   जब पापा  का शव गाड़ी में रखा गया तो मैं उनके पैरों के पास ही बैठ गया. गाड़ी में नई माँ के भाई, नई माँ का बेटा और मैं थे. बाकी लोग आगे बैठे थे. यहाँ पर भी मुझे लग रहा था कि नई माँ के भाई पापा की बॉडी पर भी अपना हक जताना चाह रहे थे. मुझे पीछे हटा कर खुद वहाँ बैठ गए और अपने पास नई माँ के बेटे को बिठा लिया. उस समय मुझे ये कुछ समझ नहीं आया लेकिन सोचा कि ये संवेदनाएं हैं उन्हें लग रहा होगा कि इस बच्चे का अधिक लगाव है अभी छोटा है और माँ भी चली गयी. उस समय मुझे कुछ और समझने   की हिम्मत ही नहीं रह गयी थी. 
                      जब हम श्मशान   घाट पर पहुंचे तो सारी तैयारी के बाद नाना जी ने मुझे इशारा किया कि मैं पापा की अंतिम क्रिया के लिए आगे जाऊं क्योंकि उनका बालिग बेटा मैं ही था और नई माँ का बेटा अभी बहुत छोटा था. फिर मेरे रहते हुए उसको करने की जरूरत ही क्या थी? 
              पंडित जी ने कहा - "कौन क्रिया कर्म करेगा उसको बुलाइए." 
मैं आगे बढ़ गया और उनके पास जाकर खड़ा हो गया था. उसी समय अचानक नई माँ के भाई गरजे - "ख़बरदार, जो किसी चीज पर हक जताने की कोशिश की." 
            मैं सहम कर पीछे हट गया, ये तो गुंडों वाली भाषा थी. लेकिन नाना जी ने कहा, "ये प्रदीप का बेटा है , अंतिम संस्कार तो यही करेगा." 
"ए  वकील साहब अपनी वकालत अपने पास ही रखिये, यहाँ काम हमारी मर्जी से होगा." उसने नाना को भी जबाव दे दिया था.
उस समय मामा जी ने नाना जी को शांत रहने के लिए कहा और काम होने दीजिये कह कर पीछे कर लिया था. पापा का अंतिम संस्कार वैदिक रीति से नहीं उन लोगों ने आर्य समाज रीति से करवाया. इसे मैं अपना दुर्भाग्य  कहूँ या पापा का कि मैं अपने पापा का अंतिम संस्कार भी नहीं कर सका. और पापा अपने दो दो बेटों के होते हुए भी इस तरह से विदा किये गए. मैं उनसे दूर था लेकिन नई माँ का बेटा तो ये संस्कार कर ही सकता था. हम जब वैदिक रीति से सब काम करते हैं तो ये काम आर्य समाज रीति से करवाने के पीछे  कोई और चाल होगी. 
                                  अंतिम संस्कार के बाद हम हम लोग घर पहुंचे और वहीं रुकना चाहा तो उन लोगों ने कहा - "आप लोग जाइये, जब हवन होगा तब आइयेगा."
                          शायद पापा ने भी ये नहीं सोचा होगा कि इस तरह से उनके अपने बच्चे पराये कर दिए जायेंगे. बेटे के सबसे बड़े हक से वंचित कर दिया जाएगा. उन्हें दौलत चाहिए थी तो वे ले लेते लेकिन मुझे पापा का संस्कार तो कर लेने दिया होता. क्या सोचा होगा इन लोगों ने ? क्यों ऐसा किया? इन सब सवालों के उत्तर मेरे पास नहीं थे और न अब दिमाग कुछ सोचना चाह  रहा था बस यही कि पापा का संस्कार मैं नहीं कर पाया. 
                   जब हम वापस आने के लिए चलने लगे तो दीदी वहीं अड़ गयी - 'नहीं आशु, हम पापा के घर को कैसे छोड़ कर चले जाए? अभी पापा की आत्मा यहाँ होगी, वह रोएगी नहीं कि मेरे बच्चे इस तरह से छोड़ कर चले गए." कह कर वह फफक फफक कर रो पड़ी और मैं भी कहाँ अपने आंसुओं  को काबू कर पा रहा था. फिर भी मैंने दीदी को अपने से चिपका लिया और उसको पकड़ कर गाड़ी तक लाया. वह वापस घर की तरफ  भागने की कोशिश कर रही थी. वहाँ पर मौजूद लोगों को अब पता चल चुका था कि हम भी उनके बच्चे हैं. लेकिन इससे क्या होता है? हमारे सारे हक तो उसी दिन ख़त्म हो गए थे जब पापा नई माँ लाये थे. 
                   फिर हम हवन के लिए आये, इलाहबाद से ४ गाड़ियाँ आयीं थीं , हमारे सारे रिश्तेदार और कॉलोनी वाले भी उसमें शामिल होने आये थे. हवन के बाद जब सब लोग चलने लगे तो घर के बाहर पहुँच गए , मैं गाड़ी में बैठने ही जा रहा था की नई माँ के भाई ने मुझे अन्दर बुलाया , वे चार पांच लोग वहाँ खड़े थे और बड़े रौब के साथ बोले - "देखो, इस घर में हम रहते हैं पहले से ही और इसे या पापा की नौकरी लेने की मत सोचना . अभी उनके बच्चे नाबालिग हैं और हम उनके गार्जियन    है. इसलिए  आप जहाँ   हैं वही रहिये    नहीं तो अच्छा  नहीं होगा. अपने बाप    का हश्र   देखे  हो."  उनके शब्द   पहले तो मेरी समझ आये लेकिन आखिरी  शब्दों  ने तस्वीर  साफ  कर दी. ये एक्सिडेंट हुआ  नहीं इन लोगों ने करवाया है और मेरी आँखों के आगे अँधेरा छाने   लगा. मैं लड़खड़ा  ही तो गया था कि उन लोगों ने थाम  लिया और मुझे बाहर ले आये. नाना से बोले की इन्हें  संभालो   बाप  के  जाने का गम  तो होता ही हैं न, अभी बच्चा  है न. " 
                             मैं आँखें  फाड़  कर उनको  देख रहा था कि कैसे गिरगिट  की तरह से रंग  बदल  रहे हैं. मैं ग्रेजुएशन     कर रहा था. फिर  माँ पापा  के साए  से दूर  मैंने भी दुनियाँ  के बहुत रंग  देखे  थे लेकिन ये रंग  कभी न देखा  था. नाना जी हम लोगों को लेकर आ गए और कहा कि अब भूल जाओ  कि लखनऊ में तुम्हारा  कुछ भी है. 
                            तभी  मैंने सोचा था की पापा की नौकरी लेकर मैं क्या करता ? क्या वहाँ क्लर्क  होकर  काम करता ? एक डी एम का बेटा उसी ऑफिस में  - डूब  मरने  वाली बात होगी. वही क्षण तो था जब मैंने संकल्प  लिया था कि मैं भी पापा की तरह से आई ए एस   बनूँगा .