बुधवार, 23 जून 2010

एक ऐसा सपना भी!

               कहानियाँ  कहाँ जन्म लेती हैं? हमारे आस पास और हमारे ही बीच में. उनके पात्र हम ही तो होते हैं. बस नाम बदले होते हैं और उनके हालत भी , बाकी सब चीजें वही होती हैं. एक परिवार, समाज , देश और उसमें पलने वाले लोग. वही इतिहास रचते हैं और वही साहित्य गढ़ते हैं. ऐसे ही लोगों में कुछ ऐसे भी जीवन देखने को मिल जाते हैं कि लगता है अरे ये तो मेरी ही कहानी है या फिर ये तो बिल्कुल उससे मिलती हुई कहानी है.
                ये आदमी के हालात की कहानी है और उन हालातों से लड़ने की कहानी भी कही सकती है. वह मेरे बहुत करीब हैं आज से नहीं ज़माने से - उच्च शिक्षित और प्रबुद्ध महिला. हाँ आज कहानी ही तो बन चुकी है उसकी जिन्दगी और इतनी रोचक कि सभी को लगता है कि ऐसे भी लोग जीते हैं. कई बार इसे पन्नों पर उतारना चाहा लेकिन हिम्मत ही नहीं हुई. पता नहीं क्या सोचें? वह न भी सोचें - उसके पति और बच्चे बाकी घर के लोग. पर आज सोचा कि उनके और उस घर में पलने वाली सोच को गढ़ ही दूं फिर पता चलेगा कि यहाँ सुघढ़, समझदार और विवेकशील और प्रबुद्ध होकर भी जीवन के रास्ते हमेशा आसन नहीं होते.
              वे तीन बेटियों की माँ - पति पत्नी दोनों ने अथक प्रयास के बाद बेटियों की शिक्षा जारी रखी. ये तो भाग्य का एक बुरा पक्ष ही कहा जाएगा कि दोनों में इतने सारे गुण और प्रतिभा हो और वे स्थापित न हो पायें. यह भाग्य की विडम्बना ही कहेंगे. कहीं उन्हें स्थायित्व नहीं मिला. इसके लिए उन्होंने कितनी मेहनत की और किन किन कार्यों को अपनाया लेकिन अपने आत्मसम्मान और जमीर को कभी नहीं बेचा.
          अपने ही बहुत सगे कहे जाने वाले लोगों के व्यंग्य का भी सामना करते रहे . उस दिन ये बात बताते हुए वह फफक पड़ी कि उनके किसी बहुत खास ने कहा - "मैं सोचता हूँ कि इनकी लड़कियों का क्या होगा?"  ह्रदय चीर के रख दिया था उनके शब्दों ने. 
                जब बड़ी बेटी का एम सी ए में चयन हुआ तो पढ़ाने के लिए अपने जो भी गहने थे बेच दिए और फिर कुछ और मेहनत बढ़ा दी. किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं, बच्चे अपने रास्ते पर चल रहे थे और उनके माता पिता उनके पीछे ढाल की तरह खड़े उन्हें सुरक्षा और साहस दे रहे थे. बेटी की तीन साल की पढ़ाई ने उनको पूरी तरह से खोखला कर दिया था. पैसे से तो बहुत मजबूत हो ही नहीं पाए लेकिन शरीर से भी अथक परिश्रम ने उन्हें कमजोर बना दिया था. छोटी दो बेटियां भी अभी पढ़ाई में लगी थी. गाड़ी धीरे धीरे चल रही थी.
                वह दिन भी आया कि बड़ी बेटी अपनी पढ़ाई पूरी करके आ गयी और उसने अपने लिए नौकरी भी खोज ली. धीरे धीरे गाड़ी  कुछ पटरी पर आने लगी. उसकी और पति की उम्र भी बढ़ रही थी और साथ ही साथ बेटी की शादी का तनाव भी बढ़ने लगा था. घर - पढ़ाई और महंगाई ने उन्हें तोड़ दिया था. ऐसा नहीं बच्चियां भी इस बात से पूरी तरह से वाकिफ थी.  कभी कोई फरमाइश नहीं की. यहाँ तक कि उनके घर में टी वी भी नहीं था. किसी के पास फुरसत ही कहाँ थी? बच्चे पढ़ाई में और माता पिता काम में. जब फुरसत पाते तो इतने थके होते थे कि नयी सुबह के लिए सोना भी जरूरी था. ये चीजें जो बहुत जरूरी समझी जाती हैं, दोपहर के सीरियल देखे बगैर तो महिलाओं का समय ही नहीं कटता है और वे सब कुछ और कर रहे होते थे.
                        बड़ी बेटी ने घर में TV लाकर रख दिया फिर भी उन लोगों को समय कहाँ था.? फिर एक  दिन वह बहुत गुस्सा हुई -
"आखिर कब तक आप लोग इस तरह से खटते रहेंगे? अब मैं कमा रही हूँ, आप लोग थोड़ा सा आराम करना भी शुरू कीजिये." 
"बच्ची है न, हमारी जिम्मेदारियों  को अभी नहीं समझती है." पिता ने धीरे से मन ही मन बुदबुदा लिया.
"हमें तो इसी तरह से करना है, कोई बेटा थोड़े बैठा है कि कमा के खिलायेगा." माँ ने अपनी शंका जाहिर कर दी.
"क्या कहा ? बेटा नहीं है, तो हम क्या काठ के पुतले हैं? जिन्हें आप घर से निकालने की सोचती रहती हैं. आइन्दा मैं ये शब्द नहीं सुनूं."  उसे बहुत तेज गुस्सा आ गया था.
                     उस दिन की बात उसके दिन में बैठ गयी कि इन्हें बेटे की कमाई से मतलब है  कि  उस पर इनका पूरा अधिकार होगा और मेरा कमाना और करना इन्हें  शास्त्र  विरुद्ध  लगता है. फिर  उसने निर्णय ले लिया कि वह यहाँ से चली जायेगी. उसने विदेश में अपने सीनियर और मित्रों से संपर्क साधा और बाहर जाने का मन बना लिया. इस सिलसिले में भागदौड़ भी करने लगी. माँ बाप को इसका कारण समझ आ रहा था कि वह अधिक पैसा कमाना चाहती है इसी लिए बाहर जाना चाहती है. मेरे साथ भी एक बार जिक्र किया ,   "आपकी बात मानती है, उससे कहिये कि बाहर जाने कि बात न करे, हम यहीं जितना कमा रहे हैं उसी में आराम से रह लेंगे।"
                     मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और फिर उसकी बेटी मुझे मिली भी नहीं. एक दिन वह खुद मेरे पास आई. 
"मासी मैं ऐसा सोच रही हूँ कि मैं बाहर निकल जाऊं।"
"इससे क्या होगा?" 
"इस बारे में मैं आपको बाद में बताऊंगी। मुझे आपसे एक सहायता चाहिए लेकिन ये बात अभी मम्मी पापा से मत कहियेगा. मुझे वीजा के लिए अपने खाते में ५ लाख रुपये दिखाने हैं, तभी बन सकता है - कोई २ लाख मैंने खुद जोड़ रखा है - बस १५ दिन के लिए पैसे मेरे खाते में रहेगा. अगर आप कुछ हेल्प कर सकें तो मैं आपको पोस्ट पैड चेक दे दूँगी और जैसे ही मैं स्टेटमेंट निकलवा लूंगी आप चेक लगा दीजियेगा. " 
"कितना चाहिए, मुझे भरोसा है तुम पर?" मैं उससे क्या उसके पूरे परिवार से आश्वस्त थी.
"मासी दो लाख सिर्फ १५ दिन के लिए मेरे अकाउंट में रहेगा उसके बाद आप चेक जमा कर सकती हैं."
"ठीक है, मैं तुम्हें चेक देती हूँ।"
                       उस चेहरे कि ख़ुशी मैं बयान नहीं कर सकती।  ये बच्ची सुबह ६ बजे घर से निकलकर शाम ७ बजे वापस आती थी।  स्कूल  , कोचिंग सब साईकिल से चलते चलते इसने पढ़ाई की थी और आज उसके सपनों के पंख लग गए हैं - विमान से उड़ने के।  वह इसके काबिल भी है किन्तु घर की परिस्थिति ने उसे जीवन के संघर्ष से बखूबी साक्षात्कार करवा दिया था।  सब अपने बूते करने वाली ये बाला होनहार तो है ही। आज भी अपनी नौकरी के बाद शाम को एक कोचिंग में २ घंटे क्लास लेती है।  तब सोच पा रही है कि वह खुद कुछ कर सकती है।
                          इतना आसान तो नहीं था कि कोई कनाडा निकल जाए और वह भी इतनी संवेदनशील लड़की फिर ऐसा निर्णय क्यों ले रही है ? इसके बारे में तो उसकी माँ ही बता सकती है। लेकिन मेरा माँ से पूछने
 
                                                                                                                                                                                                                          

मंगलवार, 22 जून 2010

बड़े घर की कीमत (समापन)

                      मेरे अंतर में एक द्वंद्व चल रहा था, कितना अच्छा घर बार था, लड़का भी अच्छा था, कितने सज्जन लोग और सास तो कनु की बलैया ले ले कर नहीं थक रही थी. ननदें भी आगे पीछे घूम रही थीं. उसका पति अवश्य ही जहाँ जैसे माँ और बहनें कह रही थी वैसे ही करता जा रहा था. उस समय कुछ अटपटा जरूर लगा कि आज कल तो लड़के कितने स्मार्ट होते हैं और फिर लड़का इंजीनियर हो तो क्या कहने?
                      वैसे कनु जैसी परी  को स्वर्ग जैसी ससुराल मिली यह सोच कर सभी बहुत खुश दिख रहे थे. बार बार जेहन में  वही शादी की रात की सभी रस्में घूम रही थीं. कनु का खिला  खिला चेहरा और गहनों की चमक से और ही दमक रहा था.मेरा उससे कोई आत्मिक सम्बन्ध था जो उसके लिए मैं बहुत खुश थी कि वह अपने उसे घर से निकल कर अच्छे परिवार में जा रही है।  नहीं तो बिना माँ की बेटी जिसे पिता ने भी दूसरी शादी करके यहाँ छोड़ दिया था , उसकी स्थिति यहाँ पर भी एक बोझ की तरह ही थी।  
                       सहसा कनु ने सिर उठाया तो मेरी तन्द्रा टूटी और मैं चौंक गयी. उसके मुरझाये चहरे को देख कर मैं यथार्थ के धरातल पर आ गयी . तब तक वह भी अपने मन के गुबार से रोकर हलकी हो चुकी थी.
"क्या हुआ कनु? तुम अकेले क्यों आई हो? तुम्हारा बेटा कहाँ है? " जितने भी सवाल मेरे जेहन में इतनी  देर से उमड़ रहे सब बादलों की तरह से एक साथ फट पड़े.
"आंटी , मैंने पिछले तीन साल नरक में जिए हैं, कितनी बार इच्छा हुई कि आत्महत्या कर लूं,  लेकिन बिट्टू के चेहरे  ने मेरे पैरों में बेड़ियाँ डाल रखी  थीं."
"क्या समर कुछ भी नहीं?" कहकर मैं चुप हो गई समर न सुन सकता था और न बोल .
"वह थे ही कहाँ? शादी के दो महीने बाद ही कंपनी ने उन्हें नाइजीरिया भेज दिया. तब तक बिट्टू के होने की बात पता चल चुकी थी और सास ने बहाना  बनाकर भेजने से इंकार कर दिया. "
                  "इतना बड़ा परिवार - घर में सिर्फ समर और उसकी दो बहनें ही थी किन्तु सास जी के अलावा समर के मामा मामी और उनके बच्चे भी उसी घर में रहा करते थे. उन सबको मिली थी एक पढ़ी लिखी नौकरानी. समाज में प्रतिष्ठा बनाने के लिए एक खूबसूरत इंजीनियर बहू लाई थी क्योंकि बेटे के जोड़ के लिए यही सबसे सही जोड़ था. जिसने बहू देखी जी खोलकर तारीफ की. उससे अधिक तारीफ इस बात के लिए कि बिना लिए दिए शादी की थी. कुछ दिनों की खातिरदारी के बाद धीरे धीरे जिम्मेदारियों का बोझ आने लगा और उन अच्छे और भले कहे जाने वाले चेहरों से शराफत का नकाब भी उतरने  लगा. "
                  "समर के जाते ही - सास और ननदों का नया रूप जागृत हुआ. सुबह से आधी  रात तक नौकरों के साथ साथ काम में जुटे रहना. शायद नौकरों से अधिक अच्छी भाषा का प्रयोग किया जाता. इस दुनियाँ में कोई पुरसा हाल नहीं था. मामा मामियों ने भी तो बला टाल  दी थी. फिर दुबारा सुध नहीं ली. नाना और नानी इतने बूढ़े थे कि  मामा पर ही तो आश्रित थे. पिता होते हुए भी कभी नहीं रहे. "
"यहाँ  से फिर कोई वहाँ नहीं गया? कोई फ़ोन या पत्र कुछ भी नहीं?" मुझे उसकी बात सुनकर आश्चर्य हो रहा था.
"नहीं, बस मुझे तो उन लोगों ने बोझ समझ कर रखा था और उसको फ़ेंक दिया और बोझ उतर गया. वाहवाही अलग से मिली." कनु के स्वर की तल्खी स्पष्ट रूप से दिखाई ले रही थी.               
           "रात और दिन के बीच उतने घंटे जितने में काम नहीं किया जा सकता था मेरे लिए आराम के घंटे होते. फिर भी दिन के बीच में रह रहकर ये वेदवाक्य दुहराए जाते -
"कभी देखा है बाप के घर इतना - बढ़िया खाने पहनने को मिल रहा है तब  भी काम नहीं होता. "
 "कितनी ही सुनाओ इस पर कोई असर नहीं होता है - बड़ा पढ़ाई का घमंड है, सब उतर जाएगा, जरा बच्चा तो होने दे."
                         "इतनी भद्दी भद्दी गालियाँ सुनी है आंटी कि कितनी बार मुझे मर मर कर जीना पड़ा है. बस एक अपने बच्चे की खातिर मुझे सब कुछ सहना था. उस बेचारे  का तो कोई कुसूर भी नहीं था .  मुझे उसे हर हाल में इस दुनियाँ में लाना था."
       "क्या  उनको जरा सा भी तरस नहीं आता था?" मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि आदमी कैसे दोहरे चेहरे लगाये रहता है. यहाँ पर तो उनका रूप ही कुछ और था और बाद में.
                          "नहीं आंटी, तरस क्या होता है? वे मुझे इंसान ही समझ लेते तो मैं धन्य हो जाती. बहू तो बहुत बड़ी चीज होती है. मेरे डिलीवरी के समय मेरे पास सिर्फ एक नौकरानी थी. बाकी सब  घर में -  जब पता चला कि बेटा हुआ है तो हॉस्पिटल पहुँचीं. बच्चे  को देखकर सब खुश हो रहीं थी . पता नहीं मुझसे कौन सी दुश्मनी निकाल  रही थीं. किसी ने मुस्करा कर भी मेरी तरफ नहीं देखा. चुपचाप आंसुओं को पीकर रह गयी."
"कैसे पत्थर दिल इंसान होते हैं?" मैं तो सुनकर हैरान थी कि क्या ऐसे भी लोग हैं दुनियाँ में.
"इस समय मुझे समर की कमी खल रही थी. वह नहीं बोल और सुन सकते किन्तु  अपने सीने से लगाकर सिर पर हाथ फिराते तो सारे गम भूल जाती थी. पत्र मैं उसको लिख नहीं सकती थी कि उसको ले कौन जाएगा? और फिर पोस्ट भी होगा कि नहीं , नहीं मालूम. फ़ोन करने का सवाल ही पैदा नहीं होता." कनु का गला बार बार भर जाता और मुझे लग अपनी आत्मा वैसे ही आहात लग रही थी क्योंकि मैंने अपनी बेटियों की सहेलियों को भी अपनी बेटियों से कम  नहीं माना  फिर कनु तो बिना माँ की थी. 
"फिर समर कब वापस आया?"
 "करीब १० महीने बाद. बिट्टू १०  महीने का हो गया था. वह मुझे जिस हाल में छोड़ कर गया था और इस समय उसने मेरी हालत देखी तो उसकी आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं. किन्तु हाय रे लाचारी - कुछ कह भी नहीं सकता था. लेकिन उसने अपने क्रोध को दबाया नहीं बल्कि उसने कांच के उस शो पीस को उठाकर फ़ेंक  दिया था , जिसे उसकी मम्मी बड़े शौक से खरीद कर लायीं थी."  इस आक्रोश के प्रदर्शन से मुझ को कुछ राहत मिली ऐसा लगा कि  कोई उसकी परवाह करने वाला है. उसके साथ हो रहे अन्याय के प्रतिरोध को उसने अपना मजबूत पक्ष समझा.
               फिर समर  को कंपनी ने चेन्नई भेज दिया और उसके वहाँ रहने का अब कोई सवाल नहीं था लेकिन अगर वह यहाँ रही तो पागल हो जायेगी और उसकी माँ उसको अभी भी भेजने के लिए तैयार न थीं. कनु ने हताश होकर जीने से बगावत की सोच ली और उसने भी कई जगह एप्लाई कर दिया. भाग्य ने उसका साथ दिया और दिल्ली में उसको जॉब मिल गयी. उसे पता था कि  घरवाले समर के साथ जाने नहीं देंगे और इस घर में वह जी नहीं सकती थी. अपनी नौकरी की बात जब उसने घर में बताई तो सास आग बबूला हो गयीं. उसने समर को ये बात बता दी कि वह अब नहीं रहेगी. अभी जहाँ मिल रही है कर लेती है फिर वह वहीं आने की सोच रही है फिलहाल इस घर से तो निकलना ही होगा. समर उसके निर्णय से सहमत था. 
                  "आंटी जब मैं नौकरी के लिए चलने को तैयार हुई तो सास ने बिट्टू को मुझसे छीनकर मामी के यहाँ भेज दिया, मैं बिलखती रही बच्चे के लिए लेकिन - "अब बच्चा तो तुम्हें नहीं मिलेगा या तू नौकरी कर या बच्चा रख. सोच ले तुझे करना क्या है? "
                    "मैं  सोच चुकी थी कि अब इस घर में रही तो मर ही जाऊँगी  और बच्चा तो मैं हासिल कर ही लूंगी  इसी लिए वह अटैची उठा कर चल दी." 
                     "मैंने स्टेशन पहुँच कर फ़ोन किया - 'मम्मी जी मेरी बिट्टू से बात तो करवा दीजिये.' लेकिन सास ने वही दुहराया - 'नौकरी करनी है तो बच्चे को भूल जा, नौकरी या बच्चा एक ही मिलेगा. मेरे बेटे को बरगला लिया लेकिन मैं तेरी बातों में नहीं आने वाली." और उन्होंने फ़ोन काट दिया. " बताते बताते बच्चे की याद करके कनु फिर से रो दी और मेरी आँखें भी गीली हो गयीं. 
                   दिल्ली में उतर कर वह यहीं सीधे आई थी. अभी उसको ज्वाइन करने में दो दिन बाकी हैं. तब तक वह अनु के साथ ही रहेगी. अनु भी तो अकेली ही रहती है मेरा क्या कभी छुट्टियों में आ जाती हूँ. 
                  कनु की दास्ताँ सुनकर लगा कि  उसने बड़े घर की कीमत अपने अरमानों , बच्चे और खुशियों से चुकाई है. इतने साल के बाद कोई अपना मिला - एक माँ का कन्धा मिला तो जी भर कर रो लिया. एक नयी जिजीविषा भी तो चाहिए वह तो उसे अपनों के बीच ही मिलेगी. यहाँ वह सब कुछ बाँट सकती है. उस बड़े घर के तिलस्म से निकली कनु यहाँ खुले आकाश तले गहरी सांस ले रही है.