सोमवार, 9 अगस्त 2010

नियति के थपेड़े !( दूसरी कड़ी )

                      हमने कॉलेज में कई साल एक साथ गुजारे थे. बी ए  के बाद मैंने एम ए और सुरेश ने एल एल बी करने की राह पकड़ी थी और हमारा यही इरादा था कि हम अपनी पढ़ाई पूरी करके ही शादी की सोचेंगे. मुझे और सुरेश दोनों को ही पूरा विश्वास था कि एकदम तो नहीं लेकिन हमारे घर वाले मनाने पर राजी हो जायेंगे और हमारे विवाह के रास्ते में ऐसी कोई बड़ी अड़चन नहीं आने वाली है. मैं अपने परिवार की सबसे दुलारी बेटी जो थी. मेरी प्रतिभा और मेरे रंग रूप पर पूरे घर को नाज था.
                    सुरेश भी अपने परिवार में सबसे बड़ा बेटा था और सबकी आशाओं का केंद्रबिंदु भी था. उसे तो पूरा भरोसा था कि अगर हम लोग शादी कर लेते हैं तो उसके घर वाले मुझे अवश्य ही अपना लेंगे. फिर भी हमें इस बात को शादी के बाद ही खुलासा करना था क्योंकि उससे पहले बताने का मतलब था कि घर में तूफान आ जाता और शादी के बाद कुछ दिन बाद सही सब लोग मान ही जाते हैं. हमें सब कुछ योजनाबद्ध  तरीके से करना था. इसी लिए एक दिन हम लोग बिना किसी सूचना के दिल्ली के लिए रवाना हो गए. सुरेश ने कोर्ट मैरिज के लिए वहाँ पहले से अर्जी दे रखी थी. हमने दिल्ली पहुँच कर सबसे पहले शादी की और फिर हम एक होटल में रुक गए. हमारा कहीं बाहर जाने का इरादा भी नहीं था. क्योंकि ये तो पता था कि घर से चले आने के बाद घर में हडकंप मच गया होगा और हमारी खोज भी हो रही होगी. फिर भी हम बेफिक्र थे कि अब हम बालिग़ हैं और हमारी शादी भी हो चुकी है. वहाँ हम लोगों ने एक हफ्ता गुजारा और फिर एक दिन पुलिस ने हमें अपने कब्जे में ले लिया और हमें हमारे शहर लाया गया. मैं और सुरेश अलग अलग कर दिए गए. मैंने लाख कहा कि हमने शादी कर ली है और वे हमारी शादी को गैर कानूनी घोषित नहीं कर सकते हैं. मेरे घर वाले बुरी तरह से बौखला गए थे, उन्हें शायद मुझसे ऐसी आशा न थी  और हमारी बातों से उनको और अधिक गुस्सा  आ  रही थी. मैं तो जैसे सुरेश के लिए पागल हो रही थी."

                   "इसके साथ ही मेरे दुर्भाग्य की कहानी शुरू हो गयी. मेरे घर वालों ने सुरेश को बहुत समझाया और धमकाया कि वह मुझे छोड़ कर कहीं और चला जाये , उसको बढ़िया नौकरी दिलवा दी जायेगी बस शर्त यही थी कि मुझे भूल जाए. लेकिन सुरेश किसी भी कीमत पर मुझे छोड़ने के लिए तैयार न था और यही मेरे अडिग विश्वास का सबसे मजबूत स्तम्भ था. पर इन पैसे वालों का कोई जमीर नहीं होता और कब किस के विश्वास के स्तम्भ को ढहा कर ये खंडहर में बदल दें, इस के लिए कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. सुरेश के खिलाफ मुकदमा कर दिया गया कि उसने मुझको फुसला कर शादी की है और वह इसके  लिए दोषी है. शहर के सारे वकील मेरे डैडी के साथ थे - कुछ जलने  वाले लोग खुश हो रहे थे कि इनकी इज्जत कैसे सड़क पर उछाली जा रही है.  सुरेश ने अपनी पैरवी खुद ही की. "
"घर में तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा था, क्या वे तुमसे इस विषय में कुछ भी नहीं कहते थे?" 
                    "घर में मुझे हर तरीके से समझाया जा रहा था -- प्यार से , धमाका कर, परिवार की इज्जत का हवाला देकर कि मैं अपना बयान कोर्ट में ये दूं कि सुरेश ने मुझे नशे की हालत में कोर्ट में ले जाकर शादी की थी. मुझे यह मंजूर नहीं था. फिर ये भी नौबत आई कि घर की दुलारी प्यारी बेटी को यातनाएं भी दीं गयीं. बाकी बहनों के जीवन का हवाला भी दिया गया. मेरे सोचने और समझने की शक्ति खो चुकी थी. सुरेश से मिल पाने का तो कोई सवाल ही नहीं था. मेरे डैडी घर बाहर कम ही निकलते थे और मम्मी जब भी मेरे सामने पड़ती मुझे कोसती हुईं - मैं पैदा होते ही मर क्यों न गयी? हमें पता होता कि तू ये दिन दिखलाएगी तो पैदा होते ही तेरा गला घोंट देते? तुझने हम लोगों को कहीं मुँह दिखाने काबिल नहीं छोड़ा है.
ये सब तो आम बातें थी. उनका बस एक ही उद्देश्य था कि मैंने कोर्ट में वही बयान दूं जो वे चाहते हैं  जिससे हमारी शादी गैरकानूनी साबित हो और सुरेश को सजा हो जाए. "
                   "मैंने ये नहीं सोचा था कि मेरा ये कदम इतना बड़ा बवंडर  मचा देगा अन्यथा इस कदम को उठाने से पहले एक बार सोच जरूर लेती. मेरा ये इरादा बिल्कुल भी नहीं था और अपने घर वालों से ऐसी आशा भी नहीं थी. उनकी यातनाएं बढ़ती ही चली गयी और कुछ दिनों  में मैं टूट गयी क्योंकि उन लोगों को सुरेश को ख़त्म करने की साजिश  रचते हुए मैंने सुना था और मैं ऐसा कभी नहीं चाह सकती थी. आखिर मैंने कोर्ट में वह बयान दे दिया जो वो लोग चाहते थे और जज ने हमारी शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया. मैं बयान देकर वही बेहोश हो गयी थी और फिर सुरेश को आखिरी बार भी नहीं देख सकी. वह उस शहर में मेरा आखिरी दिन था."
                         "मुझे कार में डालकर वहाँ से भाई साहब के घर लाया गया. इस बीच में उन लोगों ने मेरी शादी भी कहीं तय कर दी थी और फिर क्या था मेरी शादी रातों रात कर दी गयी. ये सब उन लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था. और एक महीने के अन्दर मेरी दुबारा शादी भी कर दी गयी."
                        "दूसरी शादी के वक्त मेरी मनोदशा को कोई दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सकता था और मैं तो जैसे यंत्रचालित  सी हो गयी थी. जो भी हो रहा है दूसरे की मर्जी से दूसरों की ख़ुशी के लिए हो रहा है. मेरा उससे क्या सरोकार था? सिर्फ मेरा जीवन था जो की मोहरा बना कर चला जा रहा था.  मेरे पति विनोद जूनियर इंजीनियर थे और उनके परिवार में उनकी माँ  के अतिरिक्त कोई और न था. मेरे घर वालों ने शायद ऐसा लड़का इसी लिए चुना था. मैं विनोद को पति के रूप में बहुत दिनों तक स्वीकार नहीं कर पायी और जब किया तो विनोद ने परित्यक्ता बना दिया. उनका भी इसमें कोई दोष नहीं था और फिर मैं भी कहाँ दोषी थी? ये शतरंज की बाजी तो अपनी इज्जत के लिए बिछाई गयी थी और फिर उसमें शह और मात का कोई प्रश्न ही नहीं था. वे हर हाल  में सिकंदर थे."
                       "विनोद के साथ रहते हुए भी मैं अपने मन से सुरेश को भुला नहीं पाई थी. वह कोई भूलने वाला रिश्ता था. हमने अपने प्यार में कितने साल साथ गुजारे थे? फिर भी मैंने अपने दायित्वों को विनोद के प्रति पूरी तरह से निभाया था. उसको किसी प्रकार की शिकायत या फिर उपेक्षा मेरे मन में कभी नहीं रही. वह तो बस बड़े लोगों की साजिश का शिकार हुआ था. मेरे गले में पड़ी हुई ये जंजीर सुरेश के दी हुई है, जिसे पता नहीं घर वालों ने कैसे नहीं देखा? बस यही आखिरी निशानी है उसकी. अब तो बस यही कामना है की वह जहाँ भी हो खुश हो."
"क्या तुम फिर अपने घर नहीं गयीं?" मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की कैसे एक लड़की कभी मायके गयी ही नहीं.
"नहीं, जब मन होता तो भाई साहब  लोक लज्जा के लिए अपने घर बुला लेते और फिर वही से वापस हो जाती. कभी डैडी और माँ आते तो बुला लेते लेकिन क्या मेरा उन सब लोगों से मिलने का मन होता था. नहीं वे अब मुझे अपने जन्मदाता नहीं बल्कि किसी जन्म के बैरी लगते थे."
                                                                                                                                      (क्रमशः)

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक कहानी ....क्या पाया होगा ऐसा करके माता पिता ने ?
    न बेटी की खुशी और न समाज में इज्ज़त ...बहुत प्रवाहमय कथा ...

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  2. आज ही दोनों भाग पढे और पढकर ऐसा लगा जैसे रोज ही तो हम सभी इससे दो चार होते हैं ………………और इसे भी एक आम खबर मान आगे बढ जाते हैं मगर क्या हालात रहे और कौन किस नरक से गुजरा कोई जानने की कोशिश भी नही करता …………बेहद मार्मिक और संवेदनशील मुद्दे पर आपने लिखी है कहानी जो आज की जरूरत भी है।

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  3. अरे वाह क्रमशः के आगे की कथा भी आ गयी, धन्यवाद.

    कहानी मार्मिक होती जा रही है और ये क्रमशः का पुनः आना बुरा लग रहा है.
    इस के आगे की कथा शीघ्र ही आये.

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  4. पहली कड़ी नहीं पढ़ पी हूँ अब तक ..अगली फुर्सत में आकर दोनों पढूंगी साथ.

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.