शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (४)

           मैं फ़ोन करते करते थक गया लेकिन दीदी ने नहीं उठाया तो मैंने सोचा कि  उसको फिर कर लेता हूँ और मैंने अपने मित्र के यहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया और निकल  गया. लेकिन क्या मन में चल रहे द्वंद्व को मैं छिपा सकता था? शायद नहीं ड्राइवर  से कुछ कह रहा हूँ और जाना कहीं और चाह रहा हूँ. फिर रास्ते देखे तो उससे मोड़ने के लिए कहता हूँ. ड्राइवर भी सोच रहा होगा कि आज साहब   को क्या हो गया है?
               पहुँच तो गया मैं उसके यहाँ और सोचा कि उसके साथ शतरंज खेल कर समय निकालूँगा. उसमें अगर लग गया तो फिर ये बातें मुझे परेशान नहीं करेंगी. कम से कम दीदी का फ़ोन मिलने तक तो मैं कुछ भी नहीं सोचना चाह रहा था.
"यार आज तो चैस खेलने का मन है, तेरा क्या इरादा है?" मैं उसके विचार जानना चाहता था.
"बढ़िया यार, निधि तो गयी है अपनी किटी  पार्टी में , मैं भी बोर ही हो रहा था." उसने अपने मन की बात बता दी.
                    हम शतरंज की बिसात बिछा कर बैठ गए, करीब दो घंटे तो मैंने यूँ ही बिता दिए और काफी तनाव  से मुक्त भी रहा. बहुत दिनों के बाद शतरंज खेली थी. जब से कॉलेज छूटा तब से कहाँ? बस पढ़ाई और कम्पटीशन की तैयारी में ही लगा रहा. कुछ और सोचने का वक्त कहाँ मिला? पापा के न रहने के बाद ही मैंने फैसला कर लिया था कि मैं भी आई ए एस ही बनूँगा  और उसके लिए मैंने बहुत संघर्ष किया. दो बार तो सिर्फ इंटरव्यू  में रह गया था. लेकिन मेरा फैसला अटल था. नाना जी चाहते थे कि मैं उनके साथ कोर्ट जाने लगूं क्योंकि मैंने तैयारी के साथ साथ लॉ की पढ़ाई भी कर ली थी. पर मैंने सोच रखा था कि अब अगर बनना है तो यही नहीं तो कुछ भी नहीं. वकालत तो मैं नहीं ही करूंगा फिर चाहे दूसरी नौकरी ही कर लूं. ये झूठ और सच का खेल मेरे स्वभाव से मेल नहीं खाता था.
"यार , तुम तो अब भी बहुत अच्छी शतरंज खेल लेते हो." मित्र मेरी चालों से परेशान होकर बोला.
"शायद, बहुत दिनों से खेली तो नहीं थी." मैंने भी बड़े चलताऊ अंदाज में कहा.
"कभी सोचा तुमने कि क्या ये जिन्दगी एक शतरंज की बिसात से कम है?" उसने पूछा.
"सोचने की बात करते हो, जिन्दगी की बिसात में ही फँस कर रह जाता है इंसान। बस इस घर से उस घर और उस घर से इस घर. कहीं शह कहीं मात. फिर उसकी किस्मत कि अंत में उसको क्या मिलता है." मैं पता नहीं किस रौ में बोले जा रहा था.
"अरे फिलॉसफर महोदय, अपनी शह बचाओ." उसने मुझे टोका. मुझे  भी आश्चर्य हो रहा था कि मेरा दिमाग कहाँ था  और मैं क्या बोले जा रहा था ?
"अभी लो, अब सोचो अगली चाल." मैं तुरंत ही सतर्क हो गया.
                      अगली चाल लेता उससे पहले दीदी की तरफ से फ़ोन आने लगा. मैं बगैर ये देखे कि हमारी बाजी कहाँ चल रही है, मैंने दीदी से  कहा कि मैं घर चल कर बात करता हूँ . कहीं जाना मत और मुझे बहुत सारी बातें करनी हैं.
"यार अब चलता हूँ, मुझे घर जाना है." मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ.
"अरे , ये क्या होता है? अभी निधि नहीं आई है और तुमने कुछ लिया भी नहीं." उसको मेरा अचानक उठ  जाना कुछ समझ नहीं आया. वह मेरी ओर विस्मय से देख रहा था.
"यार, कोई बाहर का हूँ, फिर आ जाता हूँ न, दीदी से कुछ डिस्कस करना है और उसमें बहुत देर लगने वाली है. इसलिए मैं घर जाना चाहता हूँ. कोई फोर्मलिटी की जरूरत नहीं. फिर आता हूँ न."  कह कर मैं बाहर निकल लिया जैसे कि मैं दीदी के फोन मिलने तक के समय गुजारने के लिए ही यहाँ आया था.
                        घर पहुँच कर मैं बैडरूम में बंद हो गया , इस बात को दीदी के अलावा और किसी से शेयर भी नहीं किया जा सकता है.वह मेरी छोटी माँ मुझे हमेशा से सही सलाह देती रही है और उसकी सलाह मुझे हमेशा निष्पक्ष और न्यायसंगत लगती है. वह गलत बात स्वीकार नहीं कर सकती और न ही होने देती थी। मेरे संघर्ष के दिनों में भी वह मेरा संबल बनी रही. आज भी जब मैं सबसे अधिक तनाव में होता हूँ तो उसको ही रिंग करता हूँ.  उससे कह कर मैं खुद को हल्का महसूस भी करता हूँ।
"दीदी आज न मुझे न नई माँ का बेटा मिला।" मैं एक साँस में पूरी बात कह गया था।
"क्या? नई माँ का बेटा, लेकिन कहाँ?" दीदी को भी बड़ा आश्चर्य हो रहा था.
"यही मेरे बंगले में माली का कम करता है।"
"क्या कह रहे हो तुम? मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा है।" दीदी को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था।
"हाँ दी, मैं सच कह रहा हूँ।" मैं भी उसको विश्वास दिलाने का प्रयास कर रहा था.
"लेकिन तुमने कैसे जाना कि वह नई माँ का ही बेटा है?"
"सबसे पहले उसकी शक्ल बिल्कुल पापा से मिलती है, और फिर मैंने उसके बारे में सब कुछ पूछा तो साफ हो गया की ये नई माँ का ही बेटा है।"
"तुमने उससे कुछ कहा तो नहीं।"
"नहीं, सब जानने के बाद मैं खुद इतना टेंस हो गया था कि मुझे खुद ही कुछ नहीं सूझ रहा था और तभी मैं आपको बार बार रिंग कर रहा था।"
"ठीक है, उससे कुछ मत कहना, सब कुछ पहले जैसा ही चलने दो। मैं जब तेरे पास आऊँगी तो फिर बताती हूँ कि क्या करना चाहिए?" दीदी की दी हुई सलाह मेरे लिए शिरोधार्य थी। मैं इस ओर से निश्चिन्त हो गया कि वह जरूर कोई रास्ता निकालेगी।
                      मेरा  और नितिन का खून का रिश्ता तो है ही, किन्तु उसकी रगों में नई माँ का खून दौड़ रहा था और वही मुझे कुछ सोचने पर विवश कर देता है क्योंकि पापा के घर में बिताई वह आखिरी रात मैं आज भी नहीं भूला हूँ। मेरा बचपन और पापा के प्यार को उन्होंने छीन लिया था। पापा होते हुए भी वे अपने बच्चों को सीने से लगाकर सुलाने के लिए तरस गए और विधाता ने क्या किया? नई माँ के बच्चों से - जो एक आलीशन   जिन्दगी के हक़दार थे, उन्हें तो वह भी नहीं मिला जो उनका अपना था । मुझसे तो वह छीन लिया था जिस पर तब तक सिर्फ मेरा हक़ था। तब उनके बच्चे थे ही कहाँ?  नई माँ के कारण ही पापा का फ़ोन आना धीरे धीरे कम हो गया था और पापा  आ भी कम ही पाते थे। नई माँ के घर वालों ने घर में डेरा जमा रखा था। हाँ पैसे भेजने में पापा नियमित थे। हम दोनों के लिए पैसे जरूर वे समय से डाल देते थे. अब पापा अक्सर रात में आते और फिर सुबह वापस हो जाते । हम भी तो अब उनसे अलग थलग रहने लगे थे। जब आते तो सिर्फ औपचारिक बातें होती पढ़ाई कैसी चल रही है? आगे क्या करने का इरादा है? कोई जरूरत हो तो बता देना आदि आदि। हम भी बड़े क्लास में पहुँच चुके थे और हमारी दोस्तों की अपनी अलग दुनिया बन चुकी थी। अब पापा की कमी तभी खलती थी जब मैं अपने और मित्रों के घर जाता और उनके पापा को उनके साथ देखता था। वह अपने भविष्य के बारे में उनसे बात करते थे और उन्हें गाइड करते थे। मेरे पास कोई नहीं था। नाना की सोच अपने ज़माने के अनुसार थी।
          दीदी की शादी को लेकर जो बवाल नानी ने मचाया था तब से तो लगता है कि वह एक शरणगाह है बस रहो इसलिए क्योंकि पापा ने बहुत पैसे हमारे लिए दे रखे हैं उन लोगों को. 
                      दीदी का अहमदाबाद जाकर एम बी ए करना कहाँ किसी को पसंद था? लेकिन दीदी की जिद और मेरा समर्थन ही उनके लिए एक संबल बने थे. अब हम भाई बहन एक दूसरे के निर्णय के लिए सहायक थे। फिर वहाँ दीदी की जीजू से जानपहचान और शादी का निर्णय। घर में विस्फोट ही तो हो गया था। 
      "मेरे लिए मर गयी तू और फिर लौट कर इस घर में कदम रखने कि जरूरत नहीं है।" नानी का ऐलान और किस में इतनी हिम्मत थी कि नानी के ऐलान को लांघ जाए। नाना से लेकर मामा मौसी सभी उनकी हाथ की कठपुतली थे।  इतना सख्त अनुशासन कि मामा मामी तो क्या नाना भी उनके सामने बोलने में डरते थे।
                दीदी को बढ़िया कंपनी में नौकरी मिली थी और वह इलाहाबाद  से पुणे चली गयी। कितनी बार जीजू ने नाना से बात की, उनके घर वालों ने की और मैंने भी की लेकिन नानी पत्थर की चट्टान बन चुकी थी। नानी ने भी दीदी को बचपन से पाला था लेकिन अपने इगो  के आगे उन्हें कुछ भी मंजूर नहीं था।
                आख़िर जीजू के घर वालों ने खुद ही सारी तैयारी करके शादी करने का निर्णय ले लिया था। जिस दिन शादी थी मामा और मामी तथा मौसी तैयार थी जाने के लिए लेकिन नानी ने ऐलान कर दिया कि जो भी जाएगा वह मेरी लाश देखेगा। उन्होंने जिद की हद पर कर दी और मैंने भी ठान लिया था कि अपनी बहन को मैं ऐसे कैसे रहने दूँ कि उसको विदा भी न कर सकूँ। इस दुनिया में अब हम दो ही हैं, अगर पापा होते तो शायद दीदी को इस तरह से शादी में अकेले न तरसना पड़ता। नानी न सही पापा तो उसकी शादी जरूर करते और उसमें शामिल होते, लेकिन पापा नहीं हैं तो क्या अगर दीदी मेरे लिए माँ बन सकती है तो मैं भी उसके लिए पिता नहीं बन सकता हूँ।  मैं बगैर किसी को बताये दिल्ली के लिए रवाना हो गया  और  फिर सारी रस्में मैंने ही पूरी की।
                 मैंने अपनी दीदी को अपने हाथों से विदा किया था। ये उसकी किस्मत थी कि जीजू के घर वाले बहुत ही अच्छे लोग थे। उन लोगों ने कभी इस असहयोग के लिए बात नहीं की। बाद में वही नानी सबके सामने दस झूठ बोल कर दीदी को बुलाने लगीं। बस उनका नाटक तो शादी के लिए ही था। उनकी गैर जाति में शादी करने से नाक कट जो रही थी.

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.