शनिवार, 7 अगस्त 2010

नियति के थपेड़े !

****मेरी यह सच कहानी "साप्ताहिक हिंदुस्तान" में सितम्बर १९७८ के अंक में प्रकाशित हुई थी.****

       
 
               रीना की नियुक्ति सबसे  पहले हमारे कालेज में ही हुई। उसके भोले से चेहरे को देखकर सोचा नहीं जा सकता है कि यह लड़की अपने २८ साल के जीवन में असह्य गम झेलते हुए प्रौढ़ा बन गयी।  चेहरे पर उद्वेलित गाम्भीर्य तो स्वयं ही यह चीख चीख कर कह रहा था कि इस उम्र में वह दुनियाँ के हर रंग देख चुकी है, हर गम झेल चुकी है।  उसकी नियुक्ति किसी वरीयता या योग्यता के आधार पर नहीं की गयी थी बल्कि वह एक ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति की बहन थी जो राज्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।  वह अपने भाई के साथ नहीं रहना चाहती थी या भाई उसे नहीं रखना चाहता था - परिणामस्वरूप भाई के प्रभाव ने उसे इस जगह तक पहुँचा दिया।
             वह शादीशुदा थी और सधवा भी क्योंकि उसकी मांग का सिन्दूर और पैर के बिछुवे इस बात की गवाही दे रहे थे - लेकिन इसका पति कहाँ है? यह सवाल सभी के मन में रह रह कर कौंध जाता था।  फिर भी बड़े आदमी की बहन किसी की हिम्मत नहीं थी कि उससे कोई सवाल पूछ ले।  सुना तो यह भी है कि वह एक बच्ची कि माँ भी है जिसको उसने हॉस्टल में  डाल रखा है। उसके रहने की समस्या का समाधान भी मुझे ही करना पड़ा था। उसको मैंने अपने ही आवास में एक कमरा दे दिया था। फिर भी कई बातें मेरे भी मन में सिर उठाकर पूछ रही थीं कि इतने बड़े आदमी की बहन होकर इसको नौकरी की क्या जरूरत है? शादीशुदा है तो कभी तो पति के पास जाती, न जाती तो कभी वह ही आता? यदि वह पारिवारिक विघटन का शिकार है तो कारण क्या है? ये सारे प्रश्न हर एक के मन में उठना स्वाभाविक था, पर मन कहीं न कहीं उनके उत्तरों के लिए बेचैन हो उठता था फिर मन मार कर रह जाता।
                 मैंने रीना का सम्पूर्ण  विश्वास प्राप्त कर लिया और जब हमारे संबंध अंतरंगता की सीमा तक पहुँच गए तब एक दिन उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में मैंने एक सवाल किया था, "रीना , मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जानने की  बहुत इच्छुक हूँ, लेकिन आज तक पूछ नहीं पायी।"
               इतना कहने के बाद ,मैं उसकी प्रतिक्रिया देखना चाह रही थी, रीना उस समय कापियां चेक कर रही थी. मैं उसके चेहरे पर उभरने वाले भावों को पढ़ रही थी। सिर झुकाए हुए ही उसने कहा, "पूछिए, मैं आपको सब कुछ बता सकती हूँ।" उसका स्वर बुझा-बुझा सा था। वह इससे अनभिज्ञ थी कि सारे कालेज में वह एक पहेली बन कर रह गयी है।
             "तुम शादीशुदा हो, फिर भी पति से दूर क्यों रहती हो? सर्विस तो तुम्हें वहाँ भी मिल सकती थी।" मेरे इस सवाल के साथ उसने ठंडी साँस भर कर सिर उठाया और पेन बंद करके कापियों के ढेर पर रख दिया।

           "मिस्टर कुमार तुम्हारे भाई हैं, उनके साथ भी रह सकती थीं फिर यहाँ क्यों?" मैं एक एक कर के पहेली सुलझाना चाह रही थी जिससे कि वह घबरा न जाय।  
          "मेरे माँ-बाप, भाई-बहन सब हैं। बहुत बड़े परिवार कि बेटी हूँ, लेकिन फिर भी कोई ऐसा नहीं है, जिसे अपना समझ सकूँ। किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि जो अपने साथ मुझे रख ले। शादी करके वह अपने दायित्व से मुक्त हो गए - अब किसी का कोई फर्ज नहीं है मेरे प्रति और जो दायित्व उन्होंने निभाए हैं उससे तो अच्छा होता कि वे मुझे मार दिए होते।"  रीना इतने सपाट स्वर में बोल रही थी मानो कि वह अपने नहीं किसी और के जीवन के बारे में कहानी सुना रही हो। 
           "ऐसा तो नहीं होता घरवालों का लड़की की शादी के बाद कोई फर्ज ही न बनता हो, जब तुम्हारे पति ने तुम्हें छोड़ा तो परिवार में किसी ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया।  आखिर उनकी बहन और बेटी के जीवन का सवाल था।"
          "कोई क्या कहता? सब की नज़रों में मैं बहुत पहले गिर चुकी थी और विनोद को कोई क्यों कुछ कहता? उसके द्वारा मेरा परित्याग करना भी उचित ही था -- कोई भी होता तो शायद यही करता।  अच्छे वक्त के ही सब साथी होते हैं, बुरे वक्त में साया भी साथ नहीं देता। अपने-अपने दुर्भाग्य को अकेले ही झेलना होता है और वह दुर्भाग्य जो मेरे घर वालों ने अपने हाथ से रचा हो। इसी तरह मेरी जिन्दगी के इस उतार चढाव में सब किनारे हो लिए। जो नियति होती है, उससे बच कर कहीं भी नहीं भागा जा सकता है।"     
        "रीना, बड़ी अजीब बात है कि घर वाले अगर लड़की के बुरे वक्त में भी साथ नहीं देंगे तो कब देंगे?"
        "कभी नहीं, जो उन्होंने मेरे लिए रचा, उसे मैं ही तो भोगूँगी, वे साथ क्यों देंगे?"  रीना का स्वर तिक्त हो चला था। 
       "देखो, रीना मैं तेरी बड़ी बहन जैसे ही हूँ, तुम मुझसे सब बातें शेयर कर सकती हो, इससे तुम्हें भी अच्छा लगेगा और शायद मैं भी कुछ करने की सोच सकूँ।" मैं उसके अतीत में झांकने कि कोशिश कर रही थी , कुछ गलत भाव नहीं था मेरा, किन्तु उसके प्रति सहानुभूति जरूर थी। इतना लम्बा जीवन सिर्फ एक बच्ची के सहारे कैसे जियेगी वो? अगर कोई न होता तो ये उसका दुर्भाग्य होता, किन्तु सब के होते हुए भी वह इस तरह से जिए तो इससे अधिक कष्टप्रद और क्या हो सकता है? 
       "मैं शहर के एक बहुत प्रतिष्ठित और प्रगतिशील विचारों वाले परिवार में पैदा हुई थी। अभावों से हमारा परिचय न था। मेरे पिता शहर के नामी वकील थे। सुन्दरता प्रकृति ने मुक्तहस्त से दी थी और कालेज पहुँच कर रंगमंच रीना के बिना अधूरा था -- वही पर सुरेश से मुलाकात और परिचय हुआ।  साथ-साथ अभिनय करते करते हम कब  एक दूसरे के इतने करीब आ गए पता ही नहीं चला. सारा कालेज हमारे प्रणय से परिचित था, लेकिन सभी को पूरा विश्वास था कि मेरा प्रगतिशील परिवार हमारे इस अंतरजातीय विवाह को स्वीकार कर लेगा और मुझे भी ये विश्वास था।"
        "हमने कॉलेज में कई साल एक साथ गुजारे थे। बीए  के बाद मैंने एमए और सुरेश ने एल एल बी करने की राह पकड़ी थी और हमारा यही इरादा था कि हम अपनी पढ़ाई पूरी करके ही शादी की सोचेंगे। मुझे और सुरेश दोनों को ही पूरा विश्वास था कि एकदम तो नहीं लेकिन हमारे घर वाले मनाने पर राजी हो जायेंगे और हमारे विवाह के रास्ते में ऐसी कोई बड़ी अड़चन नहीं आने वाली है।  मैं अपने परिवार की सबसे दुलारी बेटी जो थी, मेरी प्रतिभा और मेरे रंग रूप पर पूरे घर को नाज था।"
            "सुरेश भी अपने परिवार में सबसे बड़ा बेटा था और सबकी आशाओं का केंद्रबिंदु भी था।  उसे तो पूरा भरोसा था कि अगर हम लोग शादी कर लेते हैं तो उसके घर वाले मुझे अवश्य ही अपना लेंगे। फिर भी हमें इस बात को शादी के बाद ही खुलासा करना था क्योंकि उससे पहले बताने का मतलब था कि घर में तूफान आ जाता और शादी के बाद कुछ दिन बाद सही सब लोग मान ही जाते हैं। हमें सब कुछ योजनाबद्ध  तरीके से करना था, इसी लिए एक दिन हम लोग बिना किसी सूचना के दिल्ली के लिए रवाना हो गए।"  
             "सुरेश ने कोर्ट मैरिज के लिए वहाँ पहले से अर्जी दे रखी थी, हमने दिल्ली पहुँच कर सबसे पहले शादी की और फिर हम एक होटल में रुक गए। हमारा कहीं बाहर जाने का इरादा भी नहीं था, क्योंकि ये तो पता था कि घर से चले आने के बाद घर में हडकंप मच गया होगा और हमारी खोज भी हो रही होगी, फिर भी हम बेफिक्र थे कि अब हम बालिग़ हैं और हमारी शादी भी हो चुकी है। वहाँ हम लोगों ने एक हफ्ता गुजारा और फिर एक दिन पुलिस ने हमें अपने कब्जे में ले लिया और हमें हमारे शहर लाया गया। मैं और सुरेश अलग अलग कर दिए गए।  मैंने लाख कहा कि हमने शादी कर ली है और वे हमारी शादी को गैर कानूनी घोषित नहीं कर सकते हैं।  मेरे घर वाले बुरी तरह से बौखला गए थे, उन्हें शायद मुझसे ऐसी आशा न थी  और हमारी बातों से उनको और अधिक गुस्सा आ रही थी। मैं तो जैसे सुरेश के लिए पागल हो रही थी"
             "इसके साथ ही मेरे दुर्भाग्य की कहानी शुरू हो गयी. मेरे घर वालों ने सुरेश को बहुत समझाया और धमकाया कि वह मुझे छोड़ कर कहीं और चला जाये, उसको बढ़िया नौकरी दिलवा दी जायेगी बस शर्त यही थी कि मुझे भूल जाए।  लेकिन सुरेश किसी भी कीमत पर मुझे छोड़ने के लिए तैयार न था और यही मेरे अडिग विश्वास का सबसे मजबूत स्तम्भ था। पर इन पैसे वालों का कोई जमीर नहीं होता और कब किस के विश्वास के स्तम्भ को ढहा कर ये खंडहर में बदल दें, इस के लिए कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। सुरेश के खिलाफ मुकदमा कर दिया गया कि उसने मुझको फुसला कर शादी की है और वह इसके  लिए दोषी है। शहर के सारे वकील मेरे डैडी के साथ थे - कुछ जलने  वाले लोग खुश हो रहे थे कि इनकी इज्जत कैसे सड़क पर उछाली जा रही है।  सुरेश ने अपनी पैरवी खुद ही की।" उसका गला भर आया था और भीगी आँखें पोंछ कर वह आँखें बंद करके बैठ गयी थी। शायद वह थक गयी थी। मैंने उसको एक गिलास पानी लाकर दिया ताकि वह खुद को कुछ सहज महसूस कर सके।
              "घर में तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा था, क्या वे तुमसे इस विषय में कुछ भी नहीं कहते थे?" शायद मैं एक साथ ही सब कुछ जान लेना चाहिए थी।
                    "घर में मुझे हर तरीके से समझाया जा रहा था -- प्यार से , धमका कर, परिवार की इज्जत का हवाला देकर कि मैं अपना बयान कोर्ट में ये दूँ कि सुरेश ने मुझे नशे की हालत में कोर्ट में ले जाकर शादी की थी और मुझे यह मंजूर नहीं था।  फिर ये भी नौबत आई कि घर की दुलारी प्यारी बेटी को यातनाएं भी दीं गयीं। बाकी बहनों के जीवन का हवाला भी दिया गया। मेरे सोचने और समझने की शक्ति खो चुकी थी। सुरेश से मिल पाने का तो कोई सवाल ही नहीं था।  मेरे डैडी घर बाहर कम ही निकलते थे और मम्मी जब भी मेरे सामने पड़ती मुझे कोसती हुईं - 'मैं पैदा होते ही मर क्यों न गयी? हमें पता होता कि तू ये दिन दिखलाएगी तो पैदा होते ही तेरा गला घोंट देते? तुझने हम लोगों को कहीं मुँह दिखाने काबिल नहीं छोड़ा है।'
 
                   " ये सब तो आम बातें थी, उनका बस एक ही उद्देश्य था कि मैंने कोर्ट मे वही बयान दूँ, जो वे चाहते हैं, जिससे हमारी शादी गैरकानूनी साबित हो और सुरेश को सजा हो जाए।"
            "मैंने ये नहीं सोचा था कि मेरा ये कदम इतना बड़ा बवंडर  मचा देगा अन्यथा इस कदम को उठाने से पहले एक बार सोच जरूर लेती।  मेरा ये इरादा बिल्कुल भी नहीं था और अपने घर वालों से ऐसी आशा भी नहीं थी। उनकी यातनाएं बढ़ती ही चली गयी और कुछ दिनों बाद, मैं टूट गयी क्योंकि उन लोगों को सुरेश को ख़त्म करने की साजिश रचते हुए मैंने सुना था और मैं ऐसा कभी नहीं चाह सकती थी।  आखिर मैंने कोर्ट में वह बयान दे दिया जो वो लोग चाहते थे और जज ने हमारी शादी को गैरकानूनी घोषत कर दिया। मैं बयान देकर वही बेहोश हो गयी थी और फिर सुरेश को आखिरी बार भी नहीं देख सकी. वह उस शहर में मेरा आखिरी दिन था।"
                         "मुझे कार में डालकर वहाँ से भाई साहब के घर लाया गया।  इस बीच में उन लोगों ने मेरी शादी भी कहीं तय कर दी थी और फिर क्या था मेरी शादी रातों रात कर दी गयी।  ये सब उन लोगों ने पहले से ही तय कर रखा था। और दो महीने के अन्दर मेरी दुबारा शादी भी कर दी गयी।"
                        "दूसरी शादी के वक्त मेरी मनोदशा को कोई दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सकता था और मैं तो जैसे यंत्रचालित सी हो गयी थी।  जो भी हो रहा है दूसरे की मर्जी से दूसरों की ख़ुशी के लिए हो रहा है, मेरा उससे क्या सरोकार था? सिर्फ मेरा जीवन था जो की मोहरा बना कर चला जा रहा था।  मेरे पति विनोद जूनियर इंजीनियर थे और उनके परिवार में उनकी माँ के अतिरिक्त कोई और न था। मेरे घर वालों ने शायद ऐसा लड़का इसी लिए चुना था कि बड़े परिवार में अधिक लोग होंगे और पता नहीं कौन कहाँ से जुड़ा हो? मैं विनोद को पति के रूप में बहुत दिनों तक स्वीकार नहीं कर पायी और जब किया तो विनोद ने परित्यक्ता बना दिया। उनका भी इसमें कोई दोष नहीं था और फिर मैं भी कहाँ दोषी थी? ये शतरंज की बाजी तो अपनी इज्जत के लिए बिछाई गयी थी और फिर उसमें शह और मात का कोई प्रश्न ही नहीं था। वे हर हाल  में सिकंदर थे।"
              "विनोद के साथ रहते हुए भी, मैं अपने मन से सुरेश को भुला नहीं पाई थी,  वह कोई भूलने वाला रिश्ता नहीं था। हमने अपने प्यार में कितने साल साथ गुजारे थे? फिर भी मैंने अपने दायित्वों को विनोद के प्रति पूरी तरह से निभाया था। उसको किसी प्रकार की शिकायत या फिर उपेक्षा मेरे मन में कभी नहीं रही। वह तो बस बड़े लोगों की साजिश का शिकार हुआ था. मेरे गले में पड़ी हुई ये जंजीर सुरेश के दी हुई है, जिसे पता नहीं घर वालों ने कैसे नहीं देखा? बस यही आखिरी निशानी है उसकी।  अब तो बस यही कामना है की वह जहाँ भी हो खुश हो।"
                 "क्या तुम फिर अपने घर नहीं गयीं?" मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की कैसे एक लड़की कभी मायके गयी ही नहीं।
             "नहीं, जब मन होता तो भाई साहब  लोक लज्जा के लिए अपने घर बुला लेते और फिर वही से वापस हो जाती। कभी डैडी और माँ आते तो बुला लेते लेकिन क्या मेरा उन सब लोगों से मिलने का मन होता था, नहीं वे अब मुझे अपने जन्मदाता नहीं बल्कि किसी जन्म के बैरी लगते थे।"
          "विनोद के साथ शादी होने के नवें महीने ही मैंने निधि को जन्म दिया था. उसकी सूरत एकदम सुरेश पर गयी थी. दोनों शादियों में अंतर ही कितना था? विनोद ने इस बात पर कोई टिप्पणी नहीं की लेकिन मैं इस बात को समझ गयी थी कि ये सुरेश की ही निशानी है। जब निधि कुछ बड़ी हुई तो विनोद ने एक दिन मजाक में कहा - "यार निधि की सूरत न तो मेरे जैसी है और न ही तुम्हारी जैसी ऐसा तो नहीं कि ये किसी और की बेटी हो।"  मैं उस समय क्या कहती? न सफाई में और न ही गुनाह में। मैं शादी के बाद फिर कभी मायके गयी ही नहीं थी, न ही और भाई बहनों की शादी में उन लोगों ने बुलाने की जरूरत समझी। कभी कभी भाई साहब  जरूर ले जाते ताकि विनोद को शक न हो और मेरे लिए जाना भी जरूरी हो जाता था।"
              "तुम्हें कभी इस बात का अपराध बोध नहीं हुआ?" मैं उसके मन की बात जानना चाहती थी।
           "अपराध बोध किस बात का? मैंने अपनी मर्जी से ये शादी नहीं की थी। सुरेश और हमने शादी की थी तो निधि का होना मैं तो कोई गुनाह नहीं समझती थी। हाँ यह बात और थी कि वह विनोद की बेटी कहला रही थी। लेकिन ये सच भी बहुत जल्दी ही सामने आ गया। तब निधि ४ साल की थी, मेरे एक कालेज फ्रेंड भी उसी जगह पहुँच गयी थी, कभी कभी मिलने आ जाती। लेकिन दिन में न विनोद होते और न ही निधि। और जो हुआ उसके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था। वैसे इसमें मैं किसको दोष दूं? ये तो मेरे भाग्य के लेख थे जो मेरे लिए भुगतने जरूरी थे। एक दिन  वह  छुट्टी वाले दिन आ गयी , मैं  और  वह  ड्राइंग रूम  में बैठे  बात कर रहे थे, विनोद   निधि के साथ बेडरूम में  खेल रहे थे, निधि अचानक दौड़ती हुई मेरे पास आ गयी और निधि को देखती ही मेरी सहेली मुझसे बोली -- "रीना , यह तो बिल्कुल सुरेश की तरह है, कहीं ये उसकी ही बेटी तो नहीं है?"  स्वीकार करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था लेकिन मुझे ये पता नहीं था कि निधि के साथ विनोद भी दरवाजे तक आ गया था।"
                  "उसके बाद विनोद गुमसुम रहने लगा। महीनों बीत गए, मैं सब कुछ समझ चुकी थी लेकिन मैं विवश थी।  मैंने अपने ४ साल के वैवाहिक जीवन में विनोद को पहली बार शराब पीते हुए देखा, इसके लिए मैं अपने को दोषी मान रही थी लेकिन मैं इसमें कहाँ तक दोषी थी? इसका निर्णय कोई दूसरा ही कर सकता है। मैंने उससे कारण जानना चाहा - "तुम्हें आख़िर  हुआ क्या है? क्यों पीने लगे हो? कौन सा गम है?"
              "ये तुम मुझसे पूछ रही हो, यही तो गम है कि तुमने मुझे धोखा क्यों दिया?' वह कम आहत नहीं था।
               "मैंने कोई धोखा नहीं दिया है?' इससे अधिक कहने के लिए मेरे पास कुछ था ही कहाँ?"
                 "निधि उसकी बेटी है, जिसे मैं जानता नहीं लेकिन जरूर किसी पाप का फल है।"
                "नहीं, मैंने उससे कोर्ट मैरिज की थी, निधि उसकी ही बेटी है।" मेरे सामने सच बयान करके खुद को अपराध बोध से मुक्त करने का अब अवसर आ ही गया था।
              "पहले क्यों नहीं बताया? मैं तुम्हें खुद ही मुक्त कर देता।"
             "लेकिन मैं कहीं नहीं जाना चाहती थी, जिसके लिए मैंने अपने जमीर को मार कर उनलोगों की बात मान ली थी फिर बचा क्या था? इतने वर्षों से मैं तुम्हारी हूँ और अब तुम्हारी ही रहना चाहती हूँ।"
          "लेकिन मैं अपने को कैसे समझाऊँ  कि तुम मुझसे नहीं किसी और से भी प्यार करती रही हो। तुम मेरी तरफ से स्वतन्त्र हो और कहीं भी जा सकती हो, यहाँ रहना चाहो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं लेकिन अब हमारा कोई भी सम्बन्ध नहीं रहेगा।" विनोद ने अपना निर्णय सुना दिया था। लेकिन मैं सोच रही थी कि हम इतने सालों साथ रहे हैं और एक दिन विनोद जरूर मुझे माफ कर देगा। लेकिन ये मेरा भ्रम निकला, विनोद पत्थर कि तरह से कठोर हो चुका था। उसकी पीने की सीमा बढ़ने लगी थी। और जो निधि पर अपनी जान छिड़कता था उसने निधि से बात करना बंद कर दिया। अगर कभी वह बच्ची अपनी ओर से जाकर उससे लिपट जाती तो वह बुरी तरह से झिड़क कर उसको अपने से अलग कर देता था। उस बच्ची के अभी अर्धविकसित मष्तिष्क  पर क्या असर पड़ेगा ये सोच कर मैंने उसे देहरादून के हॉस्टल में डाल दिया।"
                "इसके बाद मैंने भी उस घर को छोड़ने का फैसला कर लिया, मैं न माँ बाप के पास गयी और न ही भाई के पास - इतना अवश्य किया कि उनको एक पत्र  लिखा कि मुझे कहीं नौकरी दिलवा दीजिये।  उन्होंने मुझसे ये नहीं पूछा कि मुझे नौकरी की जरूरत क्यों है? और न ही मैंने उनको बताने कि जरूरत समझी।  भाग्य ने साथ दिया और मैं यहाँ आ गयी हूँ और अब कहीं नहीं जाना चाहती।"
              "लोगों के बीच एक पहेली बन कर रह गयी हूँ। कौन मेरा विश्वास करेगा? सिवा उपहास के कुछ न मिलेगा। निधि के लिए जिन्दा रहना होगा।  विनोद से मुझे कोई शिकायत नहीं, ईश्वर करे कि वह किसी और से शादी करके सुखी रहे। मेरे भाग्य में तो सुख लिखा ही नहीं था।  सोचती हूँ कि अगर मैं किसी गरीब घर में पैदा हुई होती तो शायद इस तरह बेघर न हुई होती क्योंकि  तब मुझे कोई सुरेश से अलग न करता। एक बड़े परिवार में जन्म लेने की सजा मैं भुगत रही हूँ - यही सौगात है एक बड़े और प्रतिष्ठित परिवार की - एक बसता हुआ आशियाँ उजाड़ कर दूसरा बसाया था और वह भी उजड़ गया।"
                                इतना कह कर रीना ने कुर्सी से सिर टिका कर  आँखें बंद  कर लीं।  बहुत थक गयी थी, इतना सब झेलते हुए या अपनी कहानी दुहराते हुए , कह नहीं सकती।                                                                                                 
                                                                                                                              

5 टिप्‍पणियां:

  1. रेखाजी
    बहुत अच्छा लगा लगा की आपका स्वास्थ सुधार पर है ईश्वर से प्रार्थना करते है की आप जल्दी जल्दी अपने सक्रीय रूप में आ जावे |इतने दिन बाद आपकी पोस्ट देखकर अच्छा लगा |
    कहानी की शुरुआत अच्छी है देखे आगे क्या मोड़ है ?

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  2. आपके शीघ्र स्वास्थ लाभ की प्रार्थना.

    रीना की कहानी जानने की उत्सुक्ता तो हमारी इस शुरुवात को पढ़कर ही बढ़ गई तो फिर आप के तो वो साथ में थी, निश्चित ही आप की स्थिति समझी जा सकती है.

    आगे इन्तजार है जानने का.

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  3. बहुत अच्छा लगा लगा की आपका स्वास्थ सुधार पर है ईश्वर से प्रार्थना करते है की आप जल्दी जल्दी अपने सक्रीय रूप में आ जावे |इतने दिन बाद आपकी पोस्ट देखकर अच्छा लगा |

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  4. कहानी पढ़ कर उत्सुक्ता बढ़ गई ..आगे क्या होगा ? इंतजार है अगली किश्त का ..सुन्दर कहानी के लिए शुक्रिया ..
    आपने सच कहा कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकलते है..झूठ बोलने वाले किरदार समाज में ज्यादा है और जो लोगों में सच बोलने का साहस नहीं वो झूठों के साथ हो जाते है और इस तरह सच बोलने वाला अलग थलग हो कर खुद को अकेला खड़ा पाता है..परिवार में भी और समाज में भी..मेरे निजी अनुभव के अनुसार .. मक्
    jo bhi de-de maalik tu kar le qubool
    kabhi-kabhi kaanton mein bhi khilte hain phool
    wahaan der bhale hain andher nahin
    ghabraa ke yoon gilaa mat keeje
    bahut diyaa dene waale ne tujhko
    aanchal hi na samaaye to kyaa keeje..

    This rare GEM is for you..my latest YT upload

    http://www.youtube.com/watch?v=y-cSeV61XBo

    http://www.youtube.com/mastkalandr
    http://www.youtube.com/9431885

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  5. आपके शीघ्र स्वास्थ लाभ की कामना.

    कहानी दिलचस्प मोड ले रही है और ये क्रमशः का आना बुरा लग रहा है. रीना के विषय में जिज्ञासा बढ़ रही है. आप की स्थिति समझी जा सकती है.

    क्रमशः के आगे की कथा शीघ्र ही आये.

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.