रविवार, 22 अगस्त 2010

कौन कहाँ से कहाँ ? (२)

                  डिनर से लौटते लौटते बहुत देर हो गयी. कालेज टाइम का दोस्त था उसका परिवार बस चुका था फिर भी ऐसा लगा नहीं कि मैं उससे बहुत दिनों के बाद मिला हूँ. पुरानी पुरानी बातें याद करके हम सब हँस रहे थे. उसकी पत्नी भी बहुत अच्छी थी. बहुत जल्दी ही हमें अपने परिवार के सदस्य की तरह स्वीकार कर लिया.
"यार मलय जब भी समय खाली हो तो चला आया कर." नितीश ने कहा.
"हाँ भाई साहब हम भी तो अकेले ही रहते हैं, आप आ जायेंगे तो हमारा भी समय बढ़िया कट जाएगा." अब बारी उसकी पत्नी की थी. 
"हाँ , सोच तो मैं भी यही रहा हूँ, क्योंकि यहाँ मेरा कोई और तो बैठा नहीं है. ऑफिस से फ्री हुआ तो बस यार दोस्तों का ही सहारा रहेगा." मैं उन लोगों को इस बात से आश्वस्त करके रात १२ बजे घर पहुंचा.
                सारे नौकर सो चुके थे सिर्फ चौकीदार  जाग रहा था. अन्दर जाकर देखा तो बैडरूम सही ढंग से तैयार था और मैं हाथ मुँह धोकर बिस्तर में लेट गया. बिस्तर में लेट जाने से ही तो आदमी सो नहीं जाता. मुझे नींद नहीं आ रही थी.  पहला दिन हर किसी जगह तो अच्छा नहीं लगता और जगह बदलने से नींद भी तो नहीं आती है. मेरा दिमाग फिर उन्हीं सब बातों में भटकने लगा   ---- मैं और दीदी नाना नानी के पास चैन से रहने लगे थे. जब पापा किसी काम से आते तो हम लोगों के पास जरूर आते और एक दो  दिन रुक कर वापस चले जाते. हमारे खर्च के लिए पापा पैसे हर महीने बैंक में डाल देते . हम लोगों को किसी भी बात की कमी न थी. वैसे हमारे नाना और नानी भी बहुत सम्पन्न थे फिर भी पापा को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास रहे इसलिए उन्होंने कह रखा था की बच्चों के लिए  कुछ पैसा हर महीने बैंक में डाल दें.
                  अचानक एक दिन पापा का फ़ोन आया की वे शादी कर रहे हैं - नानी ने तब बहुत बखेड़ा खड़ा किया था. मम्मी के न रहने के बाद पापा ने तीन साल तक  अकेले रह कर जीवन जिया इसके बाद हमारी दादी का भी निधन हो गया और पापा बिल्कुल अकेले रह गए. हाँ मीना मौसी अब भी उनके घर में खाना आदि के लिए रहती थीं. नाना नानी के बवाल मचने से कुछ नहीं हुआ पापा का निर्णय तो अपना निर्णय था और उन्होंने अपना फैसला सुना दिया था. नाना नानी को हम लोगों का भविष्य खतरे में पड़ता नजर आया होगा तो उन्होंने पापा के सामने ये शर्त रखी कि वे हम लोगों के नाम कुछ लाख रुपये फिक्स कर दें . पापा ने उन्हें लाख समझाया कि ये हमारे बच्चे हैं और इनकी मेरी जिम्मेदारी है. सब अच्छी तरह से सेट होते ही मैं अपने बच्चों को अपने साथ ही रखूंगा. लेकिन नाना नानी नहीं माने उन्होंने हम दोनों के नाम पैसा जमा करवा ही लिया. 
                   पापा ने अपनी शादी में किसी को नहीं बुलाया. उन्होंने सिर्फ कोर्ट में शादी की थी. जिनसे शादी हुई उनके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं थी. शादी के बाद पापा नयी माँ को लेकर नाना के घर आये थे और नानी से कहा कि अब मंजू की जगह ये ही आपकी बेटी है और बच्चों की माँ. नानी ने तो उन्हें अपनी बेटी स्वीकार कर लिया था. उनकी जाते समय उसी तरह से विदाई की जैसे बेटी कि होती है. पर नई माँ को शायद ये अच्छा नहीं लगा क्योंकि उनकी कुछ अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी और इस के बाद ही नानी ने सोच लिया था कि बच्चों को वह पापा के पास कभी नहीं भेजेंगी.
                    पापा के फ़ोन उसी तरह से आते रहते थे. उनका प्यार हम लोगों के लिए वही था. लेकिन वह नई माँ को तो विवश नहीं कर सकते थे. ये जरूरी नहीं था कि वे पापा के साथ उनके बच्चों को भी स्वीकार कर लें. पापा कि शादी के  दो साल बाद उस साल गर्मियों की छुट्टी में पापा हमको  अपने साथ ले गए. नई माँ को कुछ अच्छा नहीं लगा. पापा हम लोगों को घुमाने ले जा रहे थे. नई मम्मी एक दो बार हमारे साथ गयीं लेकिन फिर बहाना कर देतीं. ऐसा नहीं कि पापा उनकी इस बेरुखी को नहीं पहचान रहे थे लेकिन वे हमें इस बात का अहसास न हो इसलिए हम लोगों पर पूरा ध्यान देते थे. कभी पिकनिक कभी हिल स्टेशन और कभी क्लब ले जाते . हमें सिर्फ पापा कि वजह से वहाँ अच्छा लग रहा था और अगर पापा के अलावा मैं और दीदी अकेले होते तो शायद नहीं रह सकते थे.  पापा ने सोचा था कि पहले नई माँ बच्चों के साथ हिल मिल जाये तो फिर वे यहीं ले आयें. एकदम  से नहीं लाना चाहते थे क्योकि नई माँ और हम लोगों के बीच पनपने वाले रिश्ते की गहराई भी तो मापनी थी उनको. 
           और फिर एक रात वह भी आई जब कि वह और पापा डिनर करने के बाद सोने चले गए. हम लोगों को नीद नहीं आ रही थी तो हंम लोग लूडो खेलने लगे. काफी रात हो गयी होगी कि पापा के बैडरूम से तेज तेज आवाजें आने लगीं --
"मुझे तुम्हारे बच्चों का यहाँ रहना बिल्कुल पसंद नहीं है."
"क्यों  वे गर्मियों में ही तो आ जाते हैं, तुम्हें क्या परेशानी है?"  पापा का स्वर बड़ा ही संयत था. 
"मुझे परेशानी ही परेशानी है - मैं इनको बर्दास्त नहीं कर पा रही हूँ." नई माँ खीज रहीं थी.
"उनको मैं एंटरटेन करता हूँ, तुम्हें दखल देने की जरूरत नहीं है." 
"तुम कहो तो मैं खुद यहाँ से चली जाऊं , फिर तुम रहो और तुम्हारे ये बच्चे."
"हाँ, जा सकती हो लेकिन ये सोचकर जाना कि फिर कभी इस घर में नहीं आ सकती हो." पापा का स्वर गुस्से में लग रहा था.
"हाँ , हाँ, मुझे तो तुमसे शादी करनी ही नहीं थी, वो तो मेरे घर वालों ने तुमसे अपने बनते कामों के लिए मेरी बलि चढ़ा दी." 
                       और फिर पापा चुप हो गए और आवाजें आनी बंद हो गयीं. मैं और दीदी बहुत बड़े न थे लेकिन दीदी सयानी हो गयी थी. हम लोग इस के लिए अपनी बुद्धि के अनुसार हल खोजने में लग गए. हम लोगों ने सोचा कि अगर वाकई नई माँ पापा को छोड़ कर चली गयीं तो पापा फिर अकेले हो जायेंगे. हम लोगों को तो नाना नानी का घर है ही और फिर हमको यहाँ कितने दिन रहना होगा. इससे तो अच्छा ये होगा कि हम लोग अभी ही नाना के यहाँ लौट जाएँ और फिर कभी यहाँ न आयें. पापा तो हम लोगों से मिलने आते ही रहेंगे. 
                     सुबह ब्रेकफास्ट पर सिर्फ पापा और हम  लोग थे, मीना मौसी ने सब कुछ तैयार करके लगा दिया था. नई माँ नाश्ते के लिए नहीं आयीं थी. पापा का खामोश चेहरा यह बता रहा था कि पापा बहुत तनाव में हैं.
       बात दीदी ने शुरू की - "पापा , हमें रमेश अंकल के साथ वापस भेज दीजिये."
"क्यों? अभी तो काफी छुट्टियाँ बाकी हैं " पापा दीदी के बात सुनकर चौंक गए थे. उनको कहाँ पता था कि उनकी सारी बातें हम लोगों ने सुन ली हैं. हमें भी पापा से उतना ही प्यार है जितना कि पापा को हम लोगों से.
"अभी अभी तो तुम लोग आये हो, अभी हम ठीक से साथ रह और घूम भी नहीं पाए हैं कि तुम लोग जाने की बात कर रहे हो. पापा को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था.
"इस बार हम लोग अपना होम वर्क करके नहीं आये हैं और न ही साथ लाये हैं - अभी कम्प्लीट भी नहीं हुआ था. फिर हम उसको पूरा भी नहीं कर पाएंगे." दीदी ने बात को बड़े चतुराई से मोड़ कर जाने के लिए वजनदार कारण पापा के सामने प्रस्तुत कर दिया.
"हाँ, आशु तुम्हारा क्या कहना है?" पापा ने मेरी ओर मुखातिब होकर पूछा .
"हाँ पापा दीदी ठीक कह रही है, इस बार हम लोग पूजा की छुट्टियों में आ जायेंगे." मैंने भी तो दीदी की बात की पुष्टि कर दी थी.
                 फिर पापा तैयार हो गए . मीना मौसी ने हमारी तैयारी कर दी और हमें गले लगा कर विदा किया. पापा ने रमेश अंकल के साथ हमारे जाने की तैयारी पर मुहर लगा दी. जब हम लोग चले तो पापा के चेहरे की वह उदासी और गीली आँखें हम दोनों से छिपी नहीं रहीं और अंत में पापा गाड़ी में बिठाते वक्त हम लोगों को गले से लगा कर रो पड़े. पापा के उस दिन के दर्द को हम दोनों ने भी  सहा था. नई माँ कमरे से बाहर निकल कर नहीं आयीं थी. ये बात हमने नाना नानी को नहीं बताई थी लेकिन मीना मौसी ने फ़ोन पर मेरी मौसी को बता दी.
                      फिर हम पापा के पास रहने के लिए कभी नहीं गए . पापा जरूर जब भी टाइम मिलता हमसे मिलने आ जाते थे. कई सालों तक ये सिलसिला चला और फिर उसके बाद पापा को भी नई माँ से एक बेटा और एक बेटी मिल गए और पापा का प्यार भी दो की बजाय चार में बँट गया . फिर वे दो जो चौबीस घंटे उनके साथ रहते थे , स्वाभाविक है कि उनका पापा के प्यार पर अधिकार ज्यादा  ही होगा . फिर पापा का ट्रान्सफर लखनऊ हो गया और उन्होंने वहीं पर एक मकान भी खरीद लिया. जब गृह प्रवेश किया तो हम लोगों को यानि नाना नानी, मामी और मौसी सबको बुलाया था. वे बहुत खुश थे लेकिन नई माँ के घर वाले मुझे जरा से भी अच्छे न लगे, सब लोग गुंडे मावली लग रहे थे किन्तु हमको कुछ लेना देना तो था नहीं सो हम लोग गृह प्रवेश के बाद अपने घर वापस आ गए. 
                   पापा हम लोगों का खर्च बराबर डाल देते थे लेकिन अब उनका आना कम हो गया था. हो सकता है कि नई माँ के कारण न आ पाते हों. मीना मौसी से ही पाता चलता था की उनके घर वाले डेरा डाले रहते थे इस लिए पापा ने गृह प्रवेश के बाद भी अपना सरकारी बंगला नहीं छोड़ा . वे परिवार के साथ वही रहते थे और नई माँ के भाई वगैरह इस नए घर में.
                सोचते पता  नहीं कब नींद आ गयी ये पता ही नहीं चला,. सुबह जब बैड टी के लिए पूछने के लिए नौकर आया तो लगा कि सवेरा हो चुका है.

5 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी ही बार इस तरह की कहानी घटित होती रही है इस दुनिया में...आगे इन्तजार है. अच्छा लेखन.

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  2. दोनों कड़ियाँ एक साथ पढ़ीं ....अभि तो विगत जीवन की कथा ही चल रही है ...बहुत सशक्त लेखन ...प्रवाह बना हुआ है ..अब देखें आगे क्या होता है ..

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  3. सब जाना जाना सा लग रहा है. अच्छी लग रही है यह कहानी. पहला भाग भी पढ़ लिया. आगे का इंतज़ार रहेगा.

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  4. भाई-बहिन के पावन पर्व रक्षा बन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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    आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है!
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/255.html

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  5. आज दूसरी कड़ी पढ़ी..बेचारे पिता की विवशता देख...मन भर आया

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.