शनिवार, 21 अगस्त 2010

कौन कहाँ से कहाँ?

                         मेरी पहली  पोस्टिंग उन्नाव में हुई, इस जगह के बारे में सिर्फ सुना ही था। यहीं पर मेरा जन्म हुआ था और संयोग देखिये कि सिर्फ जन्मभूमि ही नहीं बल्कि वह प्रथम कर्मस्थल भी वही मिला।  जिस घर में पैदा हुआ, फिर वहीं आकर उस सीट पर बैठने का संयोग भी मिला, जहाँ कभी पापा बैठते होंगे। आज मुझे बहुत ही रोमांचक लग रहा था। वही जगह जहाँ पापा बैठे लेकिन क्या उन्होंने कभी ये सोचा होगा कि उनका जो बेटा इस जगह पैदा हुआ है, एक दिन उसी घर में उसी जगह आकर बैठेगा। शायद नहीं क्योंकि ये संयोग तो हजारों नहीं लाखों में हुआ करते हैं।
            अपने जन्म की कहानी तो नानी के मुँह से ही सुनी थी। मौसी बताया करती थी कि मम्मी बहुत सुन्दर थी और पापा से उनकी शादी तो एक बहुत ही अच्छा संयोग था। सबको मम्मी के भाग्य से बहुत ईर्ष्या होती थी, कितना अच्छा लड़का मिला वह भी आई ए एस और फिर पहले घर में लक्ष्मी आई यानि कि दीदी पैदा हुई थी और फिर उसके बाद पापा का प्रमोशन उसके दो साल के बाद मेरा जन्म होना तो जैसे ईश्वर ने सारी मुँह माँगी मुराद पूरी कर दी थीं। दोनों घरों में खूब खुशियाँ मनायीं गयीं थी। पता नहीं किस मुँह जले की नजर लग गयी और फिर मम्मी को मेनिन्जाइटिसस हुआ और फिर उनको बचाया नहीं जा सका। तब मैं  बहुत ही छोटा था शायद तीन साल का रहा होऊँगा और दीदी थी ५ साल की। दोनों ही दूसरों की  दया पर निर्भर हो गए. हमारे घर में एक मीना मौसी थी जो कि मम्मी से साथ नानी के घर से हमको देखने के लिए यहाँ आयीं थी। ऐसा कब तक चलता - पापा को कभी बाहर और कभी देर रात तक मीटिंग में रहना होता तब मैं और दीदी शायद बहुत रोते थे। नाना ने पापा को मनाकर हम लोगों को अपने पास ले जाने का निर्णय ले लिया और हम फिर नाना के घर आ गए।
                                     ***
                         नौकर गाड़ी से सामान उतार रहे थे और अन्दर लाकर लगाने के लिए बार बार पूछने लगते तो मेरे विचारों का तारतम्य टूट जाता और लगता कि मैं वहीं जीता रहूँ। 
"साहब, ये सामान कहाँ लगा दूं?" अर्दली ने पूंछा तो मेरी तन्द्रा टूट गयी।
"हाँ क्या पूछा तुमने?" मैंने उससे फिर से पूछा.
"ये सामान साहब कहाँ लगेगा?"
"इसको अभी पीछे कि लॉबी में रखवा दो फिर बाद में लगाते  रहना।"
               मैं अपने बचपन के बारे में सोचते ही रहना चाह रहा था, लगा रहा था कि मैं शायद मम्मी की गोद में यहाँ बैठा होऊँगा और दीदी के साथ यहाँ खेला होऊँगा। सब कुछ वहीं ख़त्म हो गया। पापा का साथ भी छूट गया और हम नाना के साथ चले गये। नाना नानी ने मम्मी और पापा का प्यार ही नहीं बल्कि उससे ज्यादा दुलार दिया, लेकिन पापा के आगोश में खेलने का अहसास कब मिला मुझे? माँ के आँचल की तपिश, ममता की छाँव तो कहीं दूर छूट गयी और फिर कभी नहीं मिली। दीदी ने जरूर मम्मी की तरह से मुझे प्यार दिया। वह मुझसे 3 साल ही  तो बड़ी थी, फिर भी उसने अपनी गोद में वह अहसास दिया था।  सिर पर माँ के साया न होने का अहसास को उसने होने नहीं दिया। मेरी छोटी सी माँ ही बनी रही - अपना बचपन उसने कब जिया? पता नहीं मुझे तो वह बड़ी ही लगी जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ वह सदा मुझसे बड़ी ही तो रहेगी। मैंने माँ को नहीं देखा था उसको ही तो देखा है और समझा है। यहाँ तक पहुँचने में भी उसी ने मुझे उँगली पकड़ कर सहारा दिया है, दिशा निर्देश दिया है। मैं उसके बाद किसी का ऋणी नहीं। 
"साब, खाना क्या बनेगा?" कुक ने आकर पूछा
"क्या?" मैं विचारों में झटका लगा तो धरा पर आ गया.
"देखो, मैं तो नहीं खाऊँगा, मेरा खाना कहीं और है।  तुम लोग जैसा चाहो कर लो।" 
"ठीक है साब।" कह  कर  वह तो चला गया लेकिन मेरा मन तो इस घर के एक एक जगह को देख कर ये सोच रहा था कि इसमें पापा मम्मी की फोटो कहाँ लगाऊँगा और पहले कहाँ लगी होगी? कहाँ माँ-पापा बैठकर बातें करते होंगे और मैं और दीदी इसी घर में दौड़ दौड़ कर  खेलते होंगे। फिर क्यों मुझे इसी घर में भगवान लाया है? यहाँ अकेले रहना क्या मुझे बुरा नहीं लगेगा? हर जगह मुझे नहीं रुलाएगी। अब मैं बच्चा नहीं हूँ, लेकिन मन क्या कभी अपने अतीत और वह भी एक अधूरे अतीत से विलग रह पाता है। वह अतीत जो मुझे ईश्वर ने देकर मेरा बचपन छीन लिया। न माँ के आँचल में मचला, न पापा की बाहों में झूला, कभी जिद भी नहीं कर पाया। दूसरे घर में रहने का अहसास कभी नहीं हुआ लेकिन वो खालीपन भी कभी नहीं भरा, जो अपने दोस्तों को स्कूल से निकलते समय माँ को बैग दे देना और खुद झूमते हुए जाना, पापा के पीछे बैठकर दोस्तों से हाथ हिलाते हुए जाना, पापा के संग कभी कभी स्कूल आना। कुछ भी तो नहीं जिया मैंने, बस बचपन से सीधा बड़ा हो गया। कुछ करने और बनने की चाह ने समय से पहले ही बड़ा बना दिया।
            "साब, बाहर कोई गाड़ी आई है?" माली ने आकर मुझे जगा दिया।
           "अच्छा बोलो मैं आ रहा हूँ।" कहकर मैं उठकर बाथरूम में जाकर अपनी आँखों में बसी  यादों को धोकर ही कहीं जाना चाहता था, कहीं आँखों में बसी ये यादें चुगली न कर दें।
                     मुझे अपने एक दोस्त के यहाँ लंच पर जाना था, वह भी यहीं पोस्टेड था। मैं यह भी सोचकर खुश था कि चलो कोई तो यहाँ अपने जान पहचान  का मिला। ऑफिशियल रिश्ते तो औपचारिक होते ही हैं।  मैं अपनेपन के रिश्तों कि तलाश में घूमता रहता हूँ। कहीं वो माँ वाला प्यार - पापा वाला दुलार मिल जाये तो उसको कस के पकड़ लूँ। सब कुछ तो मिला नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी से किन्तु ये अहसास पाता नहीं क्यों गया ही नहीं है? ये खालीपन का अहसास मेरे मन के किसी कोने में आजतक बसा है।
                                                                                                                                         (क्रमशः)



          

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहत अच्छी लग रही है.... कहानी .... अब आगे का इंतज़ार है...

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  2. कहानी अच्छी रफ़्तार पकड़ रही है..उत्सुकता बढती जा रही है.....आगली कड़ी का इंतज़ार .

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  3. अच्छी लग रही है कहानी अब आगे.

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  4. रोचक। अगली कड़ी ई प्रतिक्षा।

    *** राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.