सावन के झूले!
बगीचे में पड़ा झूला भी सावन का इंतजार करता है कि कब उस पर झूलने बच्चे आयेंगे पार्क खिलखिलाहटों से गूँजने लगेगा।
हरियाली तीज को तो झूला खाली नहीं रहता है।
पर ये क्या सारा दिन गुजरा जा रहा है, बच्चियाँ न आईं झूलने। सारे पेड़ प्रश्नवाचक दृष्टि से एक दूसरे को देख रहे थे।
"क्यों भाई सावन आधा निकल गया और झूले खाली पड़े है।" शीशम का पेड़ बोला।
"क्यों भाई जमाने से बेखबर हो क्या?" नीम के पेड़ ने समझाया।
झूला झूलने की ललक ललक ही रह जाती हैं, लेकिन माँ-बाप डर के मारे न भेजते है। समाज के वहशी दरिंदों का डर समाया है।"
"बात तो सही है, पता नहीं क्यों भटक गया इंसान, न उम्र, न रिश्ते और न ही पास पड़ोस का लिहाज रह गया है।"
"अब तो ऐसा ही होना है कि मेले, झूले सब सूने ही रहेंगे और वे जंगली कुत्ते ही मंडराया करेंगे।"
"बस कर भाई अब सुना नहीं जाता है।"
"देख और सुन सब रहे हैं, बस बच्चों का नैसर्गिक विकास छीन कर उन्हें नेट से बाँध दिया है।"
अब इन झूलों के दिन गये, कहो कल म्यूजियम में दिखलाये जायें ।
-- रेखा श्रीवास्तव
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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.