माँ तीन दिनों से बेटी के फ़ोन का इन्तजार कर रही थी और फ़ोन नहीं आ रहा था। नवजात के साथ व्यस्त होगी सोचकर वह खुद भी संकोचवश फ़ोन नहीं कर पा रह थी। एक दिन उससे नहीं रहा गया और बेटी को फ़ोन किया -
"बेटा कई दिन हो गए तेरी आवाज नहीं सुनी , कैसी हो ?"
"माँ तेरी जगह संभाली है न, तो उस पर खरी उतरने का प्रयास कर रही हूँ। इसके सोने और जागने का कोई समय नहीं होता और ये ही मेरे लिए मुश्किल है। लेकिन फिक्र न करना, विदा करते समय जैसे दायित्वों की डोर थमाई थी न , वैसे ही उसको थामे हूँ। बेटी बन उस घर में जन्मी लेकिन इस घर में बहू बन आयी और बेटी बनने का पूरा प्रयास करती रही।"
"ये तो मैं अपनी बेटी को जानती हूँ।"
"अब माँ बनी तो जो जो आपने किया और दिया, वही दे रही हूँ माँ। कुछ सुविधाएँ बढ़ गयीं है लेकिन माँ के दायित्वों में कोई कमी न हो वह कोशिश कर रही हूँ।"
"तुम्हारी बेटी बाँट गयी है माँ - एक बेटी और माँ के रिश्तों में पर चिंता मत करिए , मैं आपकी बेटी पहले हूँ और बहू और माँ बाद में। सारे रिश्तों को बखूबी निभा लूंगी। आखिर आपकी बेटी हूँ न।'
माँ के आँखों में आंसू बह निकले , माँ बनते ही बेटी बड़ी हो जाती है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-12-2016) को "शीतलता ने डाला डेरा" (चर्चा अंक-2573) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'