रविवार, 10 जून 2012

भवितव्यता !

                              पूरे मोहल्ले में यह खबर बिजली की तरह से फैल गयी कि बनारस में नीतू के फूफाजी का अचानक निधन हो गया। मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों ने तो उनका बचपन भी देखा था और फिर व्याह, बच्चे सभी कुछ तो सबके सामने हुआ, किन्तु सावित्री जैसा भाग्य किसी ने किसी का नहीं देखा और न सुना था। 
               एक विधवा  के लिए कितना कठिन होता है वैधव्य ढोना और सावित्री फिर एक बार विधवा हो गयी। विपत्तियों के पहाड़ तो उसने जीवन भर टूटते देखे और उनके तले दब कर जीवन जिया। कभी रोई, सिसकी, घुटी और फिर कभी चेहरे के मुस्कराहट से भरी भी नजर आई लेकिन इतने उतार -चढाव शायद किसी ने अपनी जिन्दगी में देखे होंगे। एक सीधी-सादी सात भाइयों की दुलारी बहन। कोई उससे जोर से बोला तक नहीं था और वैसी ही वह भोली भाली भी थी।         
               गाँव के हिसाब से बचपन में उसकी पास के ही गाँव में भरे पूरे परिवार में शादी कर दी गयी थी। इकलौती बेटी और सात भाइयों की इकलौती बहन, बड़ी दुलारी प्यारी - कौन सी सुविधा थी जो उसे नहीं मिली। हर कोई इसी फिराक में रहता कि कौन सी खुशियाँ अपनी बहन और बेटी के आँचल में डाल दें। वह पाँचवे में पढ़ रही थी तभी उसकी शादी कर दी गयी थी। ससुराल में भी उसको खूब सम्मान मिला। खूब सारा दहेज़ लेकर जो आई थी और फिर सबकी आँख का तारा बन कर रही। पति तब पढ़ ही रहा था - घर में अच्छी खेती बाड़ी थी। धन धान्य की कमी न थी। घर में सम्पन्न परिवारों की निशानी ट्रैक्टर और जीप दोनों ही थे। उसका पति पढ़ने में होशियार था तो उससे पिता को भी बहुत उम्मीदें थी कि वह घर में पढ़ लिख जाएगा तो फिर बाकी भाई भी पढ़ लिख जायेंगे और खेती के बारे में भी वह सब देख सकेंगे।
                 पढ़ने के बाद शशिधर की नौकरी पास के कस्बे में लग गयी, यद्यपि पिता की इच्छा न थी कि वह नौकरी करे लेकिन उसका कहना था कि घर से अधिक दूर नहीं है , घर से रोज आया और जाया जा सकता है तो फिर कोई बुराई नहीं है। इस शर्त पर कि वह घर से ही आया जाया करेगा उसके पिता मान गए।
                सावित्री के एक एक करके तीन बेटे हुए। एक तो बड़ी बहू फिर घर में बेटे ही बेटे पलकों पर बिठाया जाता। वह अधिक दिन ससुराल में न रहती कभी मायके और कभी ससुराल में बनी रहती । मन से एकदम भोली और साफ थी। पति की कमाई से कोई मतलब न था। जो पैसे दे देता बहुत था। फिर उसे पिता के घर से इतना मिलता रहता था कि खाली हाथ तो उसका कभी रहता ही न था। सास तो उसे साक्षात लक्ष्मी ही मानती थी। उसकी तरह से देवरों की शादी भी जल्दी ही कर दी गयी लेकिन अभी सास गौना लेने को तैयार न थी क्योंकि सावित्री तो बड़ी बहू थी सो शौक के मारे जल्दी ही गौना ले लिया था। उसके देवर शशिधर की तरह से पढ़ने लिखने वाले न थे। उनकी संगति बिगड़ चुकी थी। वे न तो बड़े भाई की तरह से कर्मठ और व्यवहारकुशल थे और न ही जिम्मेदार । सभी खेती के काम में लगे रहते और जो हाथ में आता उससे उनकी संगति बिगड़ने लगी। घर का पैसा जुएँ और शराब में उड़ाना शुरू कर दिया। चापलूस दोस्तों की कमी न थी । उसको घर के खिलाफ भड़का कर पैसे खर्च करवाने में किसी को बुरा न लगता था। मौज मस्ती उसके दम पर ही चल रही थी। बाकी बड़े भैया तो बने ही थे, छोटे भाइयों की फरमाइश पूरी करने के लिए।              
                   शशिधर ने एक दिन भाइयों को ट्यूबबेल पर आवारा लड़के के साथ मस्ती करते देखा तो उसके कानखड़े हो गए कि ये तो बर्बादी के ओर बढ़ रहे हैं । उसने उनको वही जाकर लताड़ा -- "यहाँ क्या तमाशा मचा रखा है।"
 
"कुछ नहीं - ये लोग आ गए तो ताश खेल रहे थे।"  जुएँ के ताश समेट रहे दोस्तों को उसने कसकर थप्पड़ लगाये और भाई को तो घसीटते हुए घर लाकर पिता के सामने खड़ा कर दिया । पिता ने भी उसको दो चार तमाचे जड़ दिए। शशिधर का ये कदम घर को बर्बादी से बचाने के लिए था लेकिन उसकी अपनी जिन्दगी और परिवार के लिए आगे मँहगा पड़ेगा ये किसी ने नहीं सोचा था।
         
             घर में ही महाभारत होने लगी। बड़े भाई की कमाई पर ऐश करना बंद हो गया। पिता ने भी अब पैसे देने के बारे में सोचना शुरू कर दिया। शायद भाई सुधर भी जाते लेकिन उनके आवारा यार दोस्तों ने तो अपनी मौज मस्ती में खलल पड़ते हुए देखी तो वे उसको भड़काने लगे -

                "तुम भी तो इस खेती के बराबर के हिस्सेदार हो और अभी तुम्हारा खर्चा ही क्या है? सारी गृहस्थी तो तुम्हारे भाई की है। सारा हिस्सा तो उसके बीबी बच्चों पर खर्च होता है। तुम अपनी खेती बंटवा लो , फिर कोई रोकने टोकने वाला नहीं होगा।"

             उन मूढ़ मगज को बरगलाना आसान था क्योंकि पढ़ाई लिखाई से उनको कोई मतलब नहीं था और फिर घर से भी अधिक उन्हें अपने दोस्तों पर भरोसा जो था कि वे सही राय देंगे। उनकी समझ आने लगा कि दोस्त सही कह रहे हैं। उसने घर में बंटवारे की बात की तो और भी धुनाई हुई। अब घर वालों को समझ आ गया था कि इसके मक्कार दोस्त ही इसको भड़का रहे हैं। मुफ्त में खाना पीना किसे बुरा लगता है? सब के सब ऐसे ही छोटे घरों के थे, चापलूसी करने में कोई पैसे खर्च तो होते नहीं है।

         शशिधर को अब पूरे घर की जिम्मेदारी निभानी पड़ रही थी। उसने अपने बचपन के दोस्त जो उसके साथ ही स्कूल में टीचर था,  उसके गाँव से होकर रास्ता जाता था, वह रोज मोटर साइकिल से आता-जाता था.  अब शशिधर ने उसके साथ घर लौटना शुरू कर दिया।  इससे वह घर जल्दी आने लगा क्योंकि साइकिल से जाते आते देर जो जाती थी। दोस्त भी उसका बचपन का दोस्त ही नहीं बल्कि अन्तरंग भी था। अंतरंगता के चलते वे आपस में अपने सारे सुख दुःख बाँट लिया करते थे।

          छोटे भाइयों को हथियार बनाकर उसके कंधे पर बन्दूक रख कर चलाने वाले और भी पैदा होने लगे क्योंकि गाँव में उनकी समृद्धि और खुशहाली से जलने वालों की कमी न थी। किसके मन में क्या पल रहा है ये सब कुछ तो जाना नहीं जा सकता है। वैसे भी ऐसे में घर और कुनबे के लोग भी दुश्मन बन जाते हैं। घर में कुछ न कहने वाले शशिधर को इस बात का अहसास होने लगा था।   कई बार उसने अपने मित्र से कहा भी - "मुझे अपने और अपने परिवार के लिए डर लगने लगा है।"

"ऐसा क्यों?"

"पता नहीं क्यों ये मेरी आत्मा को लगने लगा है, कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए ?"

"ऐसा विचार मन में मत लाया करो, उस ईश्वर पर भरोसा रखो।"  मित्र उसको दिलासा दिया करता था।
 
"उसका सहारा तो रह ही जाता है, हम कर भी क्या सकते हैं?"  वह हताश स्वर में कभी कभी बोल जाता था।

  1.            कोई नहीं जानता था की शशिधर की ये शंका इतनी जल्दी ही सत्य सिद्ध हो जाएगी और सब कुछ ऐसे बिखर जाएगा जैसे कि कभी कुछ था ही नहीं। वह सावित्री जो अभी भी एकदम भोली थी , अपने बच्चों और पति के अलावा उसकी कोई दुनियाँ थी ही नहीं।
(क्रमशः )

2 टिप्‍पणियां:

  1. अपढ़ ग्रामीण समाज की चांट,बद -सलूकी और बद खयाली को कहानी ने बढ़िया तरह से अब तक रूपायित किया है .आगे का दृश्य भयावह लग रहा है .खुदा खैर करे .

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.