सोमवार, 23 मई 2011

अग्नि-परीक्षा !whole

           कुछ ही दिन पहले वह मुझे नर्सिंग होम कि लिफ्ट में टकरा गयी। एक लम्बे अरसे बाद मिली । सारी चीजें वही लेकिन बस चेहरे से उम्र झलकने लगी थी और हो भी क्यों न करीब १९ वर्ष के लम्बे अंतराल के बाद वह मुझे मिली थी।
इस बीच कभी उसकी कोई सहेली मिल गयी और जिक्र हुआ तो कुछ समाचार उसका मिलता रहा , बस इतना जानती थी कि निमिषा बेंगलोरे में किसी संस्थान में प्रोफेसर है।
"निमिषा" मैं तो उसको देख कर चीख ही पडी थी।
"हाय दीदी, आप यहाँ कहाँ?"
"यहाँ मेरा भांजा एडमिट है - उन्हीं के साथ हूँ और तुम?"
"सासू माँ एडमिट है - उनसे पास हूँ।" उसकी मंजिल आ गयी और वह रूम नं बता कर आगे बढ़ गयी और मैं ऊपरचली गयी।
लिफ्ट तो ऊपर जा रही थी और मैं अतीत के सागर में गोते लगाने लगी। हम भूल जाते हैं कभी कभी ऐसे लोगों को जिनको कुछ कहा जा सकता है और ऐसी ही निमिषा थी। ३ वर्षों तक वह मुझसे बराबर मिलती रही थी जिसमें से एक साल तो हम साथ ही बैठते थे और हर बात भी शेयर करते थे लेकिन तब वह सिर्फ एक पढ़ने वाली लड़की ही थी।
          आज से २४ साल पहले कि बात है तब मैंने अपनी नौकरी नई नई ज्वाइन की थी। आई आई टी के मानविकी विभाग में मेरी पहली नियुक्ति हुई थी। निमिषा वहीं पर मनोविज्ञान  में पी एच डी कर रही थी । उसके गाइड का कमरा मेरे कमरे के ठीक सामने था और वह अक्सर आती और वहाँ से निकल कर हमारे कमरे में बैठ जाती और कभी अपना काम करती और कभी बातें करने लगती।
              इस दुनियाँ में उपहास करने वाले बहुत होते हैं और उसकी फिजिक कुछ ऐसी थी कि अक्सर लड़के कम लड़कियाँ यहाँ तक की उसके साथ ही पढ़ने वाली उसकी हंसी उड़ाया करती थीं। मैं सुनती सब रहती लेकिन मेरी बोलने की आदत कम ही है तो उनके प्रति मेरे भाव कभी अच्छे न रहे। वह सामान्य से कुछ अलग थी । चेहरा में उसके भोलापन और छोटा सा चेहरा लेकिन कंधे से लेकर नीचे तक उसका शरीर काफी बेडौल और मोटा था। कंधे पर बैग टांग कर वह अक्सर आकर बैठ जाती। धीरे धीरे वह कब इतनी करीब आ गयी पता नहीं लगा। फिर उसने ही बताया कि बचपन में एक बार उसे रीढ़ की हड्डी में कोई समस्या हुई थी और डॉक्टर ने आपरेशन किया जिसमें कोई गड़बड़ी आ गयी और फिर उसका शरीर इस तरह से बेडौल हो गया। वह अच्छे सम्पन्न घर की लड़की तीन बहनों में सबसे छोटी थी और भाई उससे भी छोटा। सोच और व्यवहार से बड़ी समझदार और सहृदय थी। भगवान ने उसे सोने सा दिल दिया था , तभी उसे किसी से कोई शिकायत नहीं होती और अगर किसी ने कह दिया तो उसने कभी उसका काम करने से इनकार नहीं किया। संस्थान के नियमानुसार उसने हॉस्टल में ही कमरा लिया था और छुट्टी में वह घर चली जाती ।
              मैं घर से लंच बना कर ले जाती और गर्मियों में वह इतनी धूप में पैदल हॉस्टल जाने के डर से अपना खाना पैक करवाकर वहीं मंगवा लेती थी। फिर हम लोग साथ बैठ कर खाना खाते। अपनी कमी पर विजय पाने के लिए ही उसने आईआईटी से पीएचडी करने का संकल्प लिया और उसमें सफल भी हुई। आलोचना करने वालों कि कहीं भी कमी नहीं होती है और ऐसे ही मेरे ही साथ काम करने वाली और भी लड़कियाँ और महिलायें थी। जिनकी चर्चा का विषय कभी कभी निमिषा ही होती थी।
"कौन करेगा इससे शादी? अच्छे अच्छों का तो ठिकाना नहीं है।"
"कोई दुहाजू या फिर तलाकशुदा मिल जायेगा। कुंवारा तो मिलने से रहा और न कोई करेगा। "
"इसकी शादी हो ही नहीं सकती है।"
"बाकी बहनों की हो जायेगी और ये उनके घर में बच्चे सँभालेगी।"
           इस तरह से जुमले मेरे ही कमरे में उछाले जाते थे और जब वह न होती तो हमारे कमरे में बैठने वाली लड़कियाँ ही ऐसा करती । मेरी सोच शुरू से ही ऐसी ही रही , किसी की आलोचना या फिर उसकी कमी पर कमेन्ट करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा। प्रपंच और गाशिप भी मुझे कभी पसंद नहीं रही। मैं सोचती कि भगवान ने उसके लिए भी तो कुछ सोचा होगा , ईश्वर करे इसको भी मनचाहा वर मिले आख़िर उसके भी तो सपने होंगे। फिर ये ईश्वर के दिए यह  दंड उसके जीवन का अभिशाप क्यों बने?
              सारे लोग लंच में घर या फिर हॉस्टल चले जाते मैं ही कमरे में अकेली रहती थी और निमिषा आ जाती क्योंकि वह साइकिल नहीं चला पाती और हॉस्टल विभाग से बहुत दूर था। वह अकेले में बैठ कर बातें करने लगती।
        "मम्मी पापा को मेरी ही चिंता है, दीदी की शादी हो गयी , दूसरी की भी हो जाएगी। मुझसे कौन करेगा?"
"ऐसा नहीं होता है, कोई तो वर तेरे लिए भी रचा गया होगा।"
"हाँ है न, पर मम्मी पापा पता नहीं माने या न माने?"
"क्यों?"
"वह हमारे दूर का रिश्ते का है, उसकी एक्सीडेंट में एक हाथ कट गया था और उसने नकली लगवाया हुआ है। वैसे सब अच्छा है।
"फिर"
":नहीं लगता कि घर वाले राजी होंगे, घर आता जाता है, एक दिन उसने ही प्रस्ताव रखा - "निमिषा, हम लोगों को कोई सामान्य तो समझता नहीं है , फिर क्यों न हम लोग एक दूसरे का हाथ थाम लें।" मैंने उससे सोचने का समय माँगा और उससे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कहा है।
"फिर परेशानी क्या है?"
"मेरे और उसके घर वाले कभी राजी नहीं होंगे। मेरी शादी न हो ये तो घर वालों को मंजूर है लेकिन कुमार से नहीं।"
"कभी पूछा तुमने इस बारे में?"
"पूछना क्या है? मैं जानती हूँ न, अभी तो अपनी डिग्री पर ध्यान देना है फिर कुछ और सोचूंगी।"
ये बात आई गयी हो गयी। उसने एक बार कुमार से मुझे मिलवाया भी था। उसके हॉस्टल की  कुछ लड़कियों ने बताया भी कि इसके पास कोई इसका रिश्तेदार आता है, शायद दोनों में कुछ चल रहा है। एक साल तक मैं उस विभाग में रही और फिर मशीन अनुवाद में कंप्यूटर साइंस में आ गयी। रोज का मिलना बंद हो गया और फिर वह कभी कभी आ जाती। उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी तो फिर कभी बहुत  दिनों तक उससे मुलाकात नहीं हुई।
                   वह यहाँ रही समय मिलने पर मिलने के लिए  जाती थी लेकिन मेरा विभाग दूसरा और साथ के लोग भी दूसरे तो वह उतने खुल कर बात नहीं कर पाती थी। फिर एक दिन वह अपनी थीसिस जमा करके चली गयी । महीनों के बाद जब उसका डिफेंस हुआ तब आई थी । उसमें उसने लंच पर मुझे भी बुलाया था। लंच में कुमार भी था किन्तु आगे के विषय में  मैंने कुछ पूछना ठीक समझा और  इतने लोगों के बीच कुछ बताना उसने सही समझा होगा उसके बाद बहुत लम्बे समय तक उससे मुलाकात नहीं हुई और  कोई समाचार ही मिला। उन दिनों मोबाइल भी  थे कि एक दूसरे से संपर्क कर पाते और नहीं नेट कि सुविधा इतनी अच्छी थी। सफर के मुसाफिर की तरह से हम बिछुड़ चुके थे         
                         कई वर्ष के बाद मुझे उसकी एक सहेली मिली तो उसने बताया कि निमिषा और कुमार ने कोर्ट मैरिज कर ली और दोनों घरों के दरवाजे दोनों के लिए बंद हो गए। शादी करके वह सीधे मेरे ही घर आई थी और फिर मेरी मम्मी ने उसका बेटी कि तरह से स्वागत किया और विदाई की। सुनकर बहुत अच्छा लगा कि उसको मंजिल तो मिली लेकिन वह मन्जिल थी या फिर अग्नि परीक्षा देना अभी बाकी था ये तो मुझे पता ही नहीं था।
        फिर एक लम्बा अंतराल और कोई खोज खबर नहीं। उसकी अपनी व्यक्तिगत बातों को तो उसके अलावा और कोई नहीं बता सकता था और मैं उससे बिल्कुल ही अनभिज्ञ थी। फिर एक बार दुबारा उसकी मित्र से मुलाकात हुई क्योंकि वह कैम्पस की ही रहने वाली थी तो कभी जब भी आती तो आ जाती थी। उससे ही पता चला कि निमिषा की जॉब लग गयी बेंगलोरे में और उसके एक बेटी भी है। कुमार ने भी वही पर जॉब कर ली है। उसका फ़ोन नंबर तो मैंने लिए लेकिन फिर भूल गयी ।
इधर कुछ महीने पहले ही फेसबुक पर
 उसका कमेन्ट देखा - हाय दी मैंने आपको खोज ही लिया। उसमें ही उसके परिवार के फोटो भी देखे और एक दो बातें हुई लेकिन फिर सब अपने अपने में।

             हम लोगों को कई दिन तक नर्सिंग होम में रहना पड़ा लेकिन अधिक मुलाकात नहीं हो सकी। एक दिन वह आ गयी कि चलिए कहीं बैठते हैं। उसे शायद कहने के लिए बहुत कुछ था और मुझे उससे सुनने के लिए भी। नहीं तो शायद ये कहानी भी न लिखी जाती। हम सामने एक कैफेटेरिया में जाकर बैठ गए।
"और सुनाओ कैसे कट रही है? "
"अब तो सब ठीक हो चुका है, लेकिन बहुत झेला है मैंने।"
"वही तो सुनने कि इच्छा है, कहाँ तो दोनों के परिवार इतने खिलाफ थे और कहाँ सब ठीक ।"
"आप सुनेंगी तो कहेंगी कि तुमने इतना सारा किया कैसे?"
"ये तो मैं जानती थी कि निमिषा तेरे में बहुत सहनशक्ति है और तू विपरीत धाराओं को भी मोड कर ला सकती है। "
"वो कैसे?"
"बस इंसान को परखने की समझ होनी चाहिए।"
"अब छोड़ ये सब बस मुझे शॉर्ट में बता दे कि कैसे ये सब हुआ?"
"दी , मैंने अपनी पीएचडी पूरे होते ही, सबसे पहले अपने घर में कहा, लेकिन घर में तो कोई सवाल ही नहीं था। मैंने घर छोड़ कर कुछ महीने हॉस्टल में ही बिताये। मैं इस चक्कर में थी कि यहीं कोई प्रोजेक्ट में मुझे जॉब मिल जाय तो मैं फिर अपनी बात के लिए इन्तजार कर सकती हूँ लेकिन जॉब नहीं मिली और फिर एक दिन मैंने कुमार से कहा कि अब हमें निर्णय लेना ही पड़ेगा नहीं तो कब तक हम सबके मुँह को देख कर बैठे रहेंगे।
           कुमार ने भी खुद को तैयार कर रखा था , उसने अपनी माँ से पहले ही बात कर ली थी और वे कतई राजी नहीं थीं। वे नौकरी करती थी और बहुत ही तेज तर्रार थीं। हम दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली और शादी करके मैं  शुभ्रा के घर सीधे आई थी। आंटी ने मुझे सपोर्ट दिया था और उन्होंने मुझे माँ की तरह से ही लिया। उन्होंने कहा भी कि तुम कुछ दिन यहाँ रह सकती हो लेकिन मैंने इसके लिए मना कर दिया ।
हम यहाँ से बाहर जाकर रह नहीं सकते थे क्योंकि कुमार की जॉब यही पर थी लेकिन हमने अपने घरों से दूर एक घर लेकर रहना शुरू कर दिया। कुमार की माँ का कहना था कि वह रोज वहाँ आएगा। कुमार अपने घर दिन में एक बार जरूर जाते। कुछ महीने के बाद उनकी माँ ने कहा कि तुम उसको ला  सकते हो लेकिन मैं उससे कुछ भी कहूं या करूँ तुम बोलोगे नहीं। कुमार को ये मंजूर नहीं था। उन्होंने मना कर दिया और मेरे पास आकर ये बात बतलाई। मैंने कुमार से कहा कि क्यों नहीं मान लेते उनकी बात।
"इस लिए कि मैं जानता हूँ कि मेरी माँ कितनी जिद्दी और कड़क स्वभाव की है। उसने अगर दुर्व्यवहार किया तो मैं सहन नहीं कर पाऊंगा और फिर जो लिहाज के पर्दा बना हुआ था वह उठ जाएगा। "
"ऐसा कुछ भी नहीं होगा, मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि मैं सब कुछ सह लूंगी।"
"तुम सह लोगी ये मैं जानता हूँ लेकिन शायद मैं सहन नहीं कर पाऊँगा। हमने शादी की है कोई गुनाह नहीं किया, जिसकी सजा तुमको मिले। मैं भी तो बराबर का हकदार हूँ। फिर वही मेरे लिए होना चाहिए।"
             "कुमार, एक बार उन्हें मौका दो, घर छोड़ कर हम भी तो सुख से नहीं रह पा रहे हैं, उनकी आत्मा भी मुझे कोसती होंगी कि मेरे बेटे को छीन लिया।"
"अगर मुझसे सहन नहीं हुआ तो फिर मैं उस घर को जीवन भर के लिए त्याग दूँगा। अगर इस बात पर तुम राजी होतो मैं तुम्हें वहाँ ले जा सकता हूँ। "
"ठीक है, मुझे मंजूर है."
"दी हम लोग उस घर में चले गए लेकिन लगता ऐसा था कि वे मुझसे कोई बदला लेने की सोच रखी थी। उन्होंने सारे काम वाले निकाल कर बाहर कर दिए। मैं अपने शरीर के कारण नीचे बैठ कर कोई काम नहीं कर पाती थी. फिर मैंने अपने को इसके लिए तैयार किया। वह जल्दी अपने ऑफिस चली जाती थी और फिर कुमार भी मेरे साथ काम करवा लेते । इस जंग में कुमार ने जिस तरह से मेरा साथ दिया है तभी मैं उनकी माँ की परीक्षा में सफल हो पाई नहीं तो शायद मैं कब की टूट जाती?"
                 " मैंने दो साल उस घर में नौकरानी से भी बदतर स्थिति में गुजारे और मैं अकेले मैं खूब रोती कि क्या मैं इतनी पढ़ाई करके यही करती रहूंगी। मेरे पास जो डिग्री थी उसकी बहुत कीमत थी लेकिन जब तक कुछ नहीं तो बेकार ही थी। फिर शायद ईश्वर को मेरे ऊपर तरस आ गया और मुझे बेंगलोर से इंटरव्यू के लिए कॉल आ गयी। घर में मचा बवंडर कि इतनी दूर क्यों जाएगी यही कहीं कॉलेज में मिले तो कर लेना। लेकिन नहीं मुझे यहाँ से निकलने का मौका मिल रहा था और मैं उसको छोड़ना नहीं चाहती थी। ईश्वर ने भी साथ दिया और मुझे वहाँ जॉब मिल गयी। मैं वहाँ से वापस ही नहीं लौटी , पहले वहीं पर गेस्ट हाउस में रहने की जगह मिल गयी। कुमार ने यहाँ आकर सबको बता दिया। घर में कुहराम मच गया कि क्या जरूरत थी इतनी दूर जाने की। मैं तुमको तो वहाँ जाने नहीं दूँगी। कुमार तुरंत ही आने को तैयार थे कि वहीं कोई जॉब देख लूँगा लेकिन मैंने उसको मना किया कि मुझे कन्फर्म हो जाने दो फिर कोई कदम उठना । मैं कन्फर्म हो गयी और फिर कुमार भी यहीं आ गए। यही क्षिति का जन्म हुआ। लोगों को ये था कि मेरे शरीर के वजह से मैं कभी माँ नहीं बन पाऊँगी लेकिन ईश्वर ने वह भी रास्ता खोल दिया।
         
              क्षिति के जन्म के बाद सासु माँ ने वहाँ बुलाना चाहा लेकिन मैं ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया - "वे यहाँ आकर रह सकती हैं लेकिन मैं वापस नहीं आऊँगी।"
"तेरे मम्मी पापा का क्या रूख रहा।"
"मेरे मम्मी पापा भी सालों तक माफ नहीं कर सके लेकिन जब पापा को कैंसर हुआ तो भाई तो बाहर जाकर बस गया था। दीदी लोग भी बाहर ही थी लेकिन उनको भरोसा था अपनी बच्ची पर सो मेरे पास खबर भेजी - "क्या आखिरी समय भी नहीं आएगी?"  
         
                 "मैं वहाँ रहती थी तो छुट्टी नहीं लेती थी इसलिए मैं लम्बी छुट्टी लेकर आई और फिर पापा की बहुत सेवा की किन्तु वह उनका आखिरी समय था और वे भी चले गए । "
         
             "बहनें  मेरी पहले भी मेरी बहुत विरोधी न थी , सबके साथ औपचारिक सम्बन्ध बने हुए थे और आज भी बने हुए हैं।"

         फिर हम लोग उठ कर जब नर्सिंग होम आये तो मैंने सोचा कि निमिषा की सासू माँ से मिलती ही चलूँ। और मैं उसके साथ उसकी सास के पास चली गई। उनसे मेरा परिचय करवाया - "मम्मी जी, ये कीर्ति दी है, आईआईटी में ही काम करती थी, ये तो अभी भी वहीं है। ऊपर इनका कोई घर वाला भर्ती है तो मिल गयी औरआपसे मिलने के लिए आयीं है।"

           उनसे नमस्ते करके मैं वहीं बैठ गयी। चेहरे से बड़ी ही खुर्राट लग रही थी, इस उम्र में भी उनके चेहरे पर चमक थी। मैं इतना कुछ इनके बारे में सुन चुकी थी कि मुझे लग रहा था कि निमिषा कैसे इनके साथ रह रही है?

"आप की तबियत कैसी है?"

"हाँ अब तो ठीक हूँ, काफी आराम हो रहा है।"

"ये आपकी सेवा करती है या फिर ऐसे ही।"

"नहीं, ये मेरी बेटी है तो और बहू है तो इसने मेरी बहुत सेवा की है। मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये मेरी इतनी सेवा करेगी।"
                  
          उनके इन्हीं शब्दों के साथ मुझे लगा कि निमिषा ने वाकई अग्नि परीक्षा पास ही नहीं की बल्कि उसमें तपकर खरा सोना बन कर निकली। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. कथा बहुत अच्छी है!
    इसका प्रवाह ऐसा था कि एक साँस में पूरा अंक पढ़ लिया!
    अगली कड़ी की प्रतीक्षा है!

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  2. लिफ्ट तो ऊपर जा रही थी और मैं अतीत के सागर में गोते लगाने लगी"
    दीदी जितना पढ़ा उससे मानव स्वभाव के बिभिन्न पहलुओं को देखने का मौका तो मिला ही साथ ही सच से आपका साक्षात्कार भी देखा. जब कोई जाना-पहचाना अतीत सामने आ खड़ा होता है तो ऐसा ही होता है.
    इस समाज ने तो अष्टावक्र जैसे ज्ञानी ऋषि को नहीं छोड़ा तो निमिषा क्या चीज है."
    इन्सान की परख उसके चेहरे या रूप से नहीं बल्कि उसके आतंरिक सौन्दर्य से होती है तभी कोई आप जैसा कह उठता है कि"धीरे धीरे वह कब इतनी करीब आ गयी पता नहीं लगा",क्योंकि आपने उसका मन देख लिया था. आपके क्रमशः कि प्रतीक्षा रहेगी.

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  3. धन्यवाद शास्त्री जी एवं राजीव भाई,

    हाँ बहुत जल्दी ही इसकी अगली कड़ी दूँगी.

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  4. बाँध कर रख दिया है कहानी में.मन में है कि काश निमिषा को सफलता का वो मुकाम मिले तो सामान्य कहे जाने वालों को भी नहीं मिलता. पर लगता है नियती कुछ ओर है.देखते हैं आगे .

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  5. रोचक कहानी , आगे जानने की उत्कंठा है...

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  6. आप इतना रोचक लिखती हैं कि आगे का बेसब्री से इंतज़ार शुरु हो जाता है।

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  7. मेरे ब्लॉग पर आकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    बहुत सुन्दर, शानदार और रोचक कहानी! पढ़कर बहुत अच्छा लगा!

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.