जीवन की गति अपने वश में कब रहती है? खासतौर पर तब, जब कि हम किसी और के नौकर हों. हाँ चाहे आप किसी के घर में नौकर हों या फिर सरकार के उतने समय के लिए आप बाध्य होते हैं कि उनके लिए जियें. ये जीना भी कोई जीना है कि अपनी मर्जी से न उठा सकता है और न बैठा . यहाँ तक कि सोचने तक का समय नहीं होता है. यही मेरे साथ हुआ. मैं फतेहपुर आकर वहाँ की समस्याओं में उलझ गया और फिर नितिन के बारे में भूल गया. जब अपने लिए सोचने की फुरसत नहीं तो दूसरों के लिए कौन सोचे?
एक दिन कुछ फाइलों के साथ कुछ ऐसे कागज़ सामने आये कि फिर मुझे चौंक जाना पड़ा. एक पेपर मेरे हस्ताक्षर के लिए रखा था. उसमें नोटेरी से जारी होने के बाद मेरे पास भेजा गया था. ये कागज मैंने पढ़ने के लिए उठाया तो देखते ही चौंक गया क्योंकि इनके बारे में जानकारी के लिए मुझे निर्देशित किया गया था. अन्दर के कागज जब मैंने खोले तो वे किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी मांग रहे थे.
उसमें लगी फोटो किसी लड़की की थी और फिर नीचे पहुंचा तो फिर वही जिन्दगी का बंद हुआ अध्याय फिर से खुलने लगा था.
शामली माथुर पुत्री स्व. प्रदीप कुमार माथुर
पत्नी संदीप माथुर
प्रमाण के लिए उसका हाई स्कूल का सर्टिफिकेट भी लगा था और साथ में लखनऊ के सिटी मोंटेसरी स्कूल का एक सर्टिफिकेट भी था. मेरे सामने तस्वीर साफ हो गई थी लेकिन ये किस लिए क्या करना चाह रहे हैं ये भी समझ आ गया था. पहले तो उन लोगों ने अपने स्तर पर सब जानकारी ली होगी लेकिन जब कुछ हाथ न लगा होगा तो ये साबित करने के लिए कि यही एक वारिस है इस तरह के प्रमाण उन लोगों को जुटाने पड़ रहे होंगे. उसके लिए ही जिलाधिकारी की संस्तुति मांगी गयी थी.
उसके आगे क्या पढता ? जो नितिन ने बताया था कि नाना ने शादी ये बता कर की थी कि मेरे पापा डी एम थे और उनकी बहुत सारी जायदाद है. उसके लालच में ही उन लोगों ने शादी कर ली थी और फिर शुरू हो गया होगा उनका प्रयास. ये एक अध्याय का पहला ही पृष्ठ था. अब याद आया कि नितिन ने कहा था कि उसकी बहन की ससुराल खागा में है. उसको बहन से मिलने भी नहीं दिया गया था. उसके ये बताने के बाद ही दी को उसकी चिंता होने लगी थी लेकिन मैं ये सब कुछ नहीं कर सकता था. मगर ये भी मेरे ही सामने आना था . कैसा अजब संयोग - पहले नितिन मुझे मिला और फिर लगता है कि ये भी मेरे सामने ही सुलझाना लिखा है. आखिर मैं ही क्यों इस उलझन का शिकार बनता हूँ.
मैंने उस फाइल को देखने के लिए अपने पास रख ली. बाकी सब निपटा कर वापस कर दीं. इस फाइल को मैं फुरसत में गहराई से देख कर ही कोई निर्णय कर सकता हूँ. जिसे मैं जानता नहीं उसको कैसे मैं सही व्यक्ति बता सकता हूँ. वह फाइल लेकर मैं घर भी आ गया. रात में उसको ही पढ़ रहा था कि दी का फ़ोन आ गया. मेरी तो संकटमोचन वही हैं. कभी वह कहती है कि तुम इस पोस्ट पर काम कर रहे हो और इस तरह से छोटी छोटी बातों के लिए निर्णय नहीं ले पाते हो. मैं निर्णय ले सकता हूँ लेकिन सिर्फ अपने ओफिसिअल कामों में , ये जो रिश्ते मेरे पापा से जुड़े होते हैं वे मुझे नर्वस कर देते हैं और फिर नहीं सोच पाता हूँ कि मैं क्या करूँ.?
"दी, फिर एक प्रॉब्लम में फँस गया हूँ."
"क्या हुआ?"
"दी , वह मुझे कुछ लग रहा है कि नितिन कि बहन के कुछ कागज वेरीफाई होने के लिए मेरे पास आये हैं और मैं उसको कैसे वेरीफाई कर सकता हूँ, जब कि मैंने तो उसको देखा ही नहीं है. "
"क्या वह खुद नहीं आई थी?"
"नहीं, वह फाइल कई महीनों से पेंडिंग में पड़ी थी और ये मेरे ही सामने आनी थी."
"आशु, हो सकता है कि कुछ अच्छा होना हो उस लड़की का, तभी वह इतने दिनों तक अटकी रही."
"लेकिन मैं क्या करूँ?"
"तुम उसको बुलावा भेजो कि वेरीफाई करने के लिए उस लड़की का होना जरूरी है और अगर हो सके तो तुम नितिन को भी बुला लेना ताकि सब पता चल सके."
"पर मैं नितिन को कैसे बुला सकता हूँ? वह अब किसी और के अंडर में काम कर रहा है." मुझे दी कि कही बात उतनी आसन नहीं लग रही थी जितनी कि वह समझ रही थी.
"तुम उस डी एम से बात करो न, वह कुछ दिन कि छुट्टी देकर भेज सकता है. " दी की बात कुछ समझ आई और फिर मैंने भी ऐसा ही करने का सोचा क्योंकि शामली को नितिन ही पहचान सकता है और वह भी नितिन को हर बात बता भी सकती है. अगर वह मेरे सामने लायी भी गयी तो मैं उसकी स्थिति के बारे में तो नहीं जान सकता हूँ.
"ठीक दी, थैंक्स अब ऐसे ही करता हूँ."
मैंने उसी समय उन्नाव के लिए फ़ोन किया और उस डी एम से कहा कि मुझे कुछ दिन के लिए नितिन को यहाँ बुलाना है, अगर वह भेज सकें तो. मैं पहले ही उनको नितिन की जिम्मेदारी देकर आया था तो उनको ये पता था कि मेरा इस लड़के के साथ अटैचमेंट है. उन्होंने बगैर किसी प्रश्न के कह दिया कि मैं जब भी कहूँगा वह भेज देंगे.
दूसरे दिन मैंने उन कागजों के पते पर आदमी को भेज कर कहला दिया कि इससे सम्बंधित व्यक्ति मुझसे आकर मिले. अधिक समय नहीं लगा और वह लड़का मेरे पास जल्दी ही आ गया. उसके हाथ में वह कागज़ भी था जिसपर मैंने मिलने का आदेश दिया था.
"नमस्कार साहब, मैं संदीप माथुर, शामली माथुर का पति आपने मुझे बुलाया था."
"हाँ, लेकिन आपकी पत्नी कहाँ है?"
"वो तो घर पर ही हैं, जो पूछना हो आप मुझसे पूछ सकते हैं. मैं उसकी पूरी कहानी बता सकता हूँ."
"आप करते क्या हैं?"
"वो प्रापर्टी डीलिंग का काम है मेरा."
"कहाँ पर"
"चारों तरफ है, लखनऊ, फतेहपुर, इलाहबाद और भी कई जगह."
"आप चाहते क्या है? ये वैरिफिकेशन क्यों आया है?"
"जी वो मेरी पत्नी के पिता और माता दोनों एक एक्सीडेंट में ख़त्म हो गए थे. उनकी वही अकेली वारिस है तो मैं चाह रहा था कि उनकी जो भी प्रापर्टी है वह उसके नाम आ जाये . कुछ बैंक में पैसा भी है. "
"तुमने उसे लेने के लिए कोई कार्यवाही की है."
"हाँ साहब उसको ही तो किया था कई साल हो गए लेकिन कुछ न कुछ कमी निकल कर वापस आ जाते हैं सारे कागज."
"इससे क्या होगा?"
"इससे साहब आपके हाथ में है, अगर आप वेरीफाई कर देंगे तो उसको उसका हक़ मिल जायेगा."
"उसके कोई भाई बहन ."
"नहीं साहब और कोई नहीं है." उसके ये कहने के साथ ही मेरा खून खौल उठा कि कितनी चालें चली जातीं है इस दौलत के लिए, इंसान सगे रिश्तों को भी ख़त्म कर देता है. मैं तो कुछ भी नहीं लेकिन नितिन के बारे में तो ये लोग जानते ही हैं फिर भी? लेकिन मैं इसको ऐसे नहीं छोड़ना चाहता था .
"आपको पता है कि किसी भी ऐसी संपत्ति के लिए पहले एक नोटिस दिया जाता है कि अगर कोई उसका वारिस हो तो दवा कर सकता है . वह नोटिस निकला क्या?"
"हाँ निकला था, कोई दावेदार नहीं है."
"वो तो सरकारी तरफ से निकाला जाएगा. बैंक अपने तरफ से और उनका ऑफिस अपने तरफ से."
"हाँ , साहब निकल चुका है, अब बस ये आखिरी कार्यवाही है. उसके बाद सब उसके नाम आ जायेगा."
"अगर वो डी एम थे तो उनके पास काफी जायदाद होनी चाहिए और पैसा भी." मैंने उससे उगलवाना चाह रहा था.
"वो तो है, लेकिन पहले कार्यवही पूरी हो तब खुलासा हो पायेगा." उसने अपनी बात सपाट स्वर में कह दी.
"ऐसा है कि आप अपनी पत्नी को लेकर आइये इसके बाद ही वैरिफिकेशन हो पायेगा." मैंने उसको आखिरी उत्तर दिया.
"साहब अब उसको कहाँ लाऊं? आप जैसा कहेंगे मैं समझ लूँगा." वह मेरे सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और मेरा क्रोध उसके शब्दों के साथ ही बढ़ गया की इंसान पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है.
"आप जा सकते हैं और समझ तो मैं आपको लूँगा." मेरा क्रोध अपनी सीमा से अधिक बढ़ रहा था. और मैं उस इंसान के बारे में इससे ही समझ चुका था कि शामली उस घर में कैसे रह रही होगी? नहीं तो उसको शामली को लाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी.
"साहब गुस्सा मत कीजिये , मैं उसको लाने की कोशिश करूंगा. अगर घर वाले उसको बाहर भेजने को तैयार हो गए." वह डर गया था.
"इसका मतलब कि वह घर से बाहर नहीं जाती. "
"नहीं साहब, मेरा काम बाहर का रहता है और उसके मायके में तो कोई बचा नहीं है तो जाएगी कहाँ? "
"ठीक है , उसको दो दिन बाद लेकर आना." मैंने अपना निर्णय सुना दिया था.
उस लड़के के बयान से ये लग रहा था कि शामली पैसे के भूखे लोगों के बीच फँस चुकी है. पता नहीं किस हाल में होगी? लेकिन ये तो निश्चित है कि अब इससे कुछ तस्वीर सामने आएगी और उसके बारे में भी पता चल सकता है. कौन कहाँ से कहाँ? (१०)
शनिवार, 23 अक्तूबर 2010
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रेखा जी आज 6-7-8-9वीं किश्त पढी तब कहानी की कुछ समझ आयी। अगर इतनी देर बाद किश्त लिखनी हो तो कृ्प्याथोडा सा पीछे का विवरण जरूर दिया करें। कहानी इतनी रोचक है कि दिल चाहता है अभी पूरी कहानी मिल जाये तो पढ लूँ । आपकी शैली,शिल्प,कथान एक सधी हुयी कलम का नतीजा हैं
जवाब देंहटाएंदेखते हैं बेचारे नितिन और उसकी बहिन का क्या बनेगा। मुझे तो डर है कहीं उसकी बहिन जीवित भी होगी कि नहीं। जल्दी से अगली किश्त डालियेगा।
aage dekhte hain, Shamali ke saath kya hota hai.......:)
जवाब देंहटाएंकहानी बढ़िया मोड पर आ गयी है....अब सारे सूत्र एक साथ जुटने लगे हैं...
जवाब देंहटाएंअच्छा लग रहा है,पढना
rekha mem
जवाब देंहटाएंpranam !
sadhuwd achchi kahani kahani ke liye . agle ank ki pratiksha hai .
thanks
खास मोड पर आ गई है कहानी .आगे देखते हैं क्या होता है.
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