निवेदन : एक लम्बे अन्तराल के बाद कहानी की अगली कड़ी दे रही हूँ क्योंकि इस कथा के वास्तविक अंत के इन्तजार में थी और कई बार मेरे पहले दिए गए निर्णय ही किसी का सत्य बन चुके हैं सो नहीं चाहती थी कि फिर ऐसा हो. इस विलम्ब के लिए क्षमा.
***********************************************************************************************
नितिन तो चला गया लेकिन उस फोटो को उठा कर मैंने अपने सामने रख लिया, मैं जी भर कर पापा को देख लेना चाह रह था. दी ने बीच में हो टोक दिया - 'क्या सोचा है आशु तुमने इन लोगों के लिए?'
'इन लोगों से मतलब?" मेरी कुछ समझ नहीं आया कि दी क्या कहना चाह रही हैं?
"इन लोगों से मतलब नितिन और उसकी बहन के बारे में." दी ने अपनी बात स्पष्ट की.
"नितिन के बारे में तो मैं देख लेता हूँ, लेकिन उसकी बहन के बारे में हमें कुछ भी नहीं पता है , फिर हम क्या कर सकते हैं?" मुझे दी की चिंता कुछ अच्छी नहीं लगी क्योंकि अभी नितिन फिर उसकी बहन हम कहाँ खोजेंगे? लेकिन मैं कुछ बोलना नहीं चाहता था.
"पहले इसको तो देखो फिर उसे भी देखेंगे, पता तो करना ही पड़ेगा की किस हाल में है?" दी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थीं.
"देखो दी, अभी हम हाल में तो कुछ नहीं कर सकते हैं, आप अच्छी तरह से सोच कर प्लान बना लें कि कैसे क्या हो सकता है? फिर बाद में देख लेते हैं." मैं चाहता था कि दीदी अभी इस चिंता से मुक्त हो लें.
वाकई दी यहाँ से जाने से पहले मुझे नितिन के लिए ढेर सी हिदायतें देकर चली गयीं.
* * * * * *
मैंने नितिन को किचेन में काम में सहायता करने को बोल दिया और सबको कह दिया कि दिन में नितिन मेरे साथ ऑफिस जायेगा और सुबह शाम किचेन में काम करेगा. इस तरह से मैंने उसको कॉलेज में पढ़ने के लिए समय दे दिया. समय के साथ हम सभी अपने अपने काम में व्यस्त रहे. मेरा यही प्रयास रहता कि नितिन अपने कमरे में जाने से पहले यही पर खाना भी खा ले. मैं नहीं चाहता था कि वह काम के बाद अपने लिए खाना बनाये , मैं जानबूझ कर देर से डिनर लेता और नितिन को रुकने को कह कर बाकी को भेज देता. उन लोगों को कुछ भी ऐसा नहीं लगना चाहिए था कि मैं अपने ही नौकरों के बीच में किसी को अधिक सुविधा दे रहा हूँ और किसी को कम. सब को पता था कि नितिन सबसे अधिक काम करता है. सुबह शाम किचेन में और दिन में साहब के साथ , रात में भी साहब देर तक काम करवाते हैं. क्या करवाते हैं ये उन्हें नहीं पता था? लेकिन वे जानते थे कि नितिन नया लड़का है और हो सकता है कि उन लोगों से अधिक पढ़ा लिखा भी हो, इसी लिए साहब उससे ऑफिस का काम भी लेते हैं.
कब ३ साल बीत गए पता नहीं चला और नितिन पढ़ाई करके अधिक मेहनती हो रहा था. वह बी ए में आ चुका था और मैं चाहता था कि वह ग्रेजुएट हो जाए और इसके बाद उसको पापा के बेटे के रूप में कोई नौकरी मिल जाये. उसके बाद उसके घर और पैसे की बात देखूँगा. मेरा ट्रांसफर उन्नाव से हो गया और मैं इसके बाद जिस जगह पर जा रहा था वह उसके नाना के घर का ही जिला था. जब उसको पता चला तो उसने बड़े खुश हो कर बताया कि उसके नाना का गाँव वही पास में है. इसको ही आत्मा का और उस मिट्टी का जुडाव कहते हैं जहाँ से उसकी माँ जुड़ी थी. उसने भी तो माँ के बाद वही कुछ साल गुजारे थे. फिर वह मेरे जाने के दिन जैसे जैसे नजदीक आ रहे थे उदास रहने लगा. एक चिंता मुझे भी लगी थी कि पता नहीं मेरे बाद इसके साथ कैसे व्यवहार किया जाए? इसको पढ़ने का मौका मिले या न मिले वैसे अब इतना तो हो ही चुका था कि वह अपनी पढ़ाई के प्रति छूटी हुई रूचि फिर से पा चुका था. इंटर में भी उसने अच्छी रेंक निकाली थी. उम्मीद थी कि वह इसी तरह से पढ़ा तो अगले दो सालों में वह ग्रेजुएट हो जायेगा.
जब मैंने अपना चार्ज नए डी एम को दिया तो मैंने उन्हें नितिन का चार्ज भी दिया और उनसे कहा कि अभी इस बच्चे के भविष्य के लिए मैंने ऐसी व्यवस्था कर दी है ताकि इस उम्र से यह सिर्फ माली ही बन कर न रह जाए. उसे पढ़ने का मौका इसी तरह देते रहें.
उन्होंने ने भी मुझे पूरा आश्वासन दिया कि निश्चित रूप से जैसे मैंने उसको पढ़ने का मौका दिया है, वे भी उसको अवश्य देंगे.
मेरे जाने के तीन दिन पहले से नितिन ने आना बंद कर दिया था. पता चला कि वह कमरे में ही रहता है लेकिन आ नहीं रहा है. मैंने जाने के एक दिन पहले उसको बुलवाया तो वह उदास सा चेहरा लिए आ कर खड़ा हो गया. मुझे लगा कि उसकी कोई तबियत ख़राब होगी.
"नितिन तुम्हें क्या हुआ है? आ भी नहीं रहे हो और कॉलेज जा रहे हो या नहीं."
"नहीं, अब पता नहीं क्या होगा? पढ़ पाऊंगा या नहीं? " उसने धीमे स्वर में बोला.
"तुम पढ़ पाओगे और तुम्हें पूरा पूरा समय मिलेगा. इसी तरह से, मैंने नए साहब से बात कर ली है." मैं उसको आश्वस्त करना चाह रहा था कि उसको इस बात का भय न रहे कि नए साहब कैसे होंगे? और उसको क्या पढ़ने की सुविधा देंगे या नहीं.
"ठीक है, फिर तो मैं पढता रहूँगा." एक मंद सी स्वीकृति की ख़ुशी दिखी लेकिन कुछ पल बाद ही उसके चेहरे से गायब भी हो गयी.
"ठीक है तुम जाओ."
दूसरे दिन जब मैंने जाने लगा तो नितिन सबसे बाद में आया और मेरे पैर छू कर रो पड़ा. बिल्कुल बच्चों की तरह से बिलख बिलख कर और मैं भी उस समय अपने को सभांल नहीं पा रहा था. मैंने उसके सिर पर हाथ फिरा कर और जल्दी से गाड़ी में बैठ गया. काले चश्मे के भीतर मेरी आँखें चुगली न कर दें , मैंने ड्राइवर से गाड़ी चलने के लिए कहा. उस काले चश्मे ने मुझे सबकी नज़रों से तो बचा लिया लेकिन क्या मैं खुद अपनी नज़रों से बच पाया. हाँ मैं अपने को इस समय कमजोर पा रहा था. नितिन से खून का रिश्ता चीख चीख कर कह रहा था कि ये मेरी जिम्मेदारी है कि इसके भविष्य के प्रति चिंता करूँ. उसको उसका हक़ दिलवा ही दूं. वर्ना शायद पापा की आत्मा उसके और मेरे गिर्द भटकती न रहे. सोचा तो मैंने भी था कि यहाँ से निकल कर ही पापा के सारे पुराने बैंक एकाउंट और घर के बारे में सब पता लगवाऊंगा और फिर उसको कैसे भी सही उसके हक़दार को दिलवा कर ही रहूँगा.
(क्रमशः)
सोमवार, 18 अक्तूबर 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कहानी की रोचकता बनी हुई है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंaage ???????????????
जवाब देंहटाएंrekha mem
जवाब देंहटाएंpranam !
aap ki kahani padhi ,agli kadi ki pratikhsa hai , aap ki kahani ek print patrika me bhi padhi , aur main aap ko message se apni pratikriya bhi pradan ki thi , jab tak kaanikaar apne paatro se naa uljhe mazaa nahi aata rachnakaar ko ,pura mantahn karne ko vivash ho jaata hai rachnakaar .
kahaani ke liye , badhai
sadhuwad
saadar
ab jaldi se aage ki batao........
जवाब देंहटाएंआज पढ़ी ये कड़ी...पता नहीं कैसे छूट गयी थी..
जवाब देंहटाएंअब अगली पढने जा रही हूँ