शनिवार, 18 सितंबर 2010

कौन कहाँ से कहाँ (८)

               शाम को मैं ऑफिस से वापस घर आया तो सीधे ड्राइंग रूम में दीदी के पास दरवाजे पर ही पहुंचा था कि मैंने टेबल पर पापा की  फोटो रखी देख मेरे मुँह से सहसा निकल गया - 'दी, ये पा' इससे आगे मैं एक शब्द भी बोल पाता कि दीदी ने मुझे टोक दिया - "आशु मैंने  आज नितिन को बुलाया है, इसके बारे में कुछ बात करनी है." मैंने पलट कर देखा तो दरवाजे के बगल में नितिन स्टूल पर बैठा हुआ था.अब  मेरी  समझ आ चुका था कि पापा की ये फोटो या तो दीदी ने नितिन से मंगवाई होगी या फिर ये खुद ही लेकर आया होगा. विश्वास न करने की कोई गुंजाइश ही न थी क्योंकि नितिन अपने आप में खुद ही इस बात का प्रमाण था. भाग्य भी कैसे निराले खेल खेलता है? जिसकी माँ ने हमारा सब कुछ छीन लिया , जिनके आने से पापा हम दोनों से इतने दूर चले गए और रही सही कसर तो उनके ही बच्चों ने पूरी कर दी थी कि पापा को हमारी जरूरत ही नहीं रही. वही आज पापा की तस्वीर लिए हमारे सामने बैठा है और वह भी इस हाल में. कितने दुःख झेले होंगे इसने इन इतने सालों में? जबकि जो क्यारियां ये खोद रहा है, इसके घर में कोई और खोदता होगा. वह तो इतनी संपत्ति का मालिक होगा कि ऐसे कितने माली खुद रख सकता है लेकिन इसे कुछ भी नहीं मालूम और न मिला. पापा के सारे खाते सीज हो चुके होंगे और ये बचपन के अभागे इस बारे में न जानते होंगे और न ही वहाँ तक पहुँच सकते हैं. 
                जिस क्वार्टर में आज ये रह रहा है , इसके घर में और लोग रहते होंगे. कुछ भी हो  एक बंगले का मालिक तो यह आज भी है ही, यह बात और है कि भाग्य की ठोकरों ने इसको फुटबाल बना दिया. बंगले से गाँव के घर में और वहाँ से फिर बेघर होकर इस आशियाने में आकर शरण मिली. दिमाग कुछ इतनी तेजी से सोचने लगा कि मैं वहाँ  रुक नहीं सकता था और  मैंने उसको देखा तो वापस कमरे से बाहर निकल गया और दीदी को बोला - 'मैं अभी आता हूँ."
                        मैं बाहर तो निकल आया और फिर बाथरूम में चला गया बड़ी देर तक मुँह पर सिर पर ठन्डे पानी से धोता  रहा  मुझे थोड़ी  सी राहत चाहिए थी. मुझे ऐसा क्यों हुआ ? मैं खुद नहीं जानता था लेकिन कहीं कुछ अंतरमन में चल जरूर रहा था कि मैं उस कमरे में खुद को रोक पाने में असमर्थ पा रहा था. लेकिन खुद को कब तक इस स्थिति  बचा सकता था. दीदी ने उसको बुलाया है तो उसको सुनना ही पड़ेगा. मैं फ्रेश होकर कमरे में पहुँच गया, अब मैं काफी सामान्य हो चुका था. दीदी  ने नितिन को  पास आकर बैठने को कहा क्योंकि मेरे आने के बाद से वह खड़ा ही था. वह वहाँ से उठ कर मेरे सामने की तरफ आकर फर्श पर बैठने लगा. शायद इसकी मानसिकता अपने काम के अनुरुप साहब वाली थी और फिर वह कैसे ऊपर  बैठे? किन्तु मेरा जमीर इसके लिए तैयार नहीं था कि मेरे ही पापा का बेटा जमीं पर बैठा हो और उसी पिता के दो और बच्चे ऊपर बैठे हों.
"नहीं नितिन यहाँ इस कुर्सी पर आकर बैठ जाओ." मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया और उसने मेरे सामने हाथ जोड़कर 
"साहब, मैं यही ठीक हूँ." कहकर बैठने का उपक्रम किया लेकिन दीदी ने टोका -- "नितिन , वहाँ बैठो , मैं कह रही हूँ न."
"जी अच्छा." कहकर वह सकुचाते हुए कुर्सी पर बैठ गया.    
           इसके बाद मैंने दीदी की ओर देखा कि  इसको क्या कहना है? दीदी मेरे आशय को समझ गयी तो वह नितिन  की ओर मुखातिब होने से पहले मुझसे बोली - " आशु, ये नितिन के फादर की फोटो है, दिखाने के लिए लाया था. तुन्हें पता है इसके फादर डी एम थे."
"हाँ, शायद इसने मुझे भी बताया था."
"नितिन और कौन कौन है तुम्हारे घर में?" मुझे ही बात शुरू करनी चाहिए ये सोच कर मैंने उससे प्रश्न किया.
"कोई नहीं?"
"और बहन तो है न?" दीदी ने उसको बीच में ही टोका.
"है भी और नहीं भी." नितिन ने बड़े निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया था.
"क्या मतलब" मेरे और दीदी दोनों के मुँह से एक साथ निकला.
"इसकी भी बहुत अजीब कहानी है, क्या क्या  आपको बताऊंगा?" 
"फिर भी थोड़ा सा तो बता ही सकते हो." मैंने उससे थाह लेने की कोशिश की.
"नाना ने दीदी के शादी ये बता कर की थी की हमारे पापा डी एम थे और हमारी लखनऊ में काफी प्रोपर्टी है . उसके ससुराल वालों ने मुझसे लिखवा लिया था कि मैं अगर दीदी को खुश देखना चाहता हूँ तो पापा की प्रापर्टी पर अधिकार नहीं दिखाऊंगा." 
"ऐसा क्यों?" 
"शायद उन्होंने लालच में दीदी से  शादी की थी कि नाना कुछ न भी दे पायें उनको वह प्रापर्टी तो मिल ही जायेगी. फिर उन्होंने दीदी को कभी वापस नहीं भेजा. "
"तुम कभी अपनी दीदी के पास गए ही नहीं."
"नहीं, दीदी के शादी के बाद नाना जी बीमार हो गए और फिर मेरी पढ़ाई भी छूट गयी , उसके एक साल बाद नानाजी नहीं रहे."
"नाना जी के न रहने पर तो दीदी आई होगी." 
"नहीं , उन लोगों ने नहीं भेजा और खुद आ गए थे. मुझे नहीं मालूम की क्या हुआ था? मैंने उस तरफ सोचना ही छोड़ दिया है."
बड़े दुखी स्वर में वह बोला था.
"फिर, यहाँ कैसे आये?"
"नाना के न रहने के बाद मामा ने आकर गाँव की सारी जमीन और घर बेच दिया और कहा जाओ अपना कमाओ खाओ, मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है. मैं वहाँ से सीधा दीदी के घर गया क्योंकि मैं ये सोचता था कि अब मेरा सहारा दीदी के घर तो बनही सकता है . मुझे वहाँ पहन मिल जायेगी तो आगे फिर क्या करना है देख लूँगा. लेकिन उन लोगों ने मुझे दीदी से मिलने नहीं दिया और मैं वापस गाँव आ गया, कोई घर तो बचा नहीं था हाँ नाना के भाई जरूर थे उनके घर रहा और उन्होंने मुझे यहाँ पत्र देकर भेजा था कि साहब नौकरी पर रख लेंगे. यहाँ आकर मुझे काम मिल गया और तब से यहीं पर हूँ." अपनी कहानी सुना कर जैसे वह हल्का हो गया था और वह चुप हो कर अपने सिर को दरवाजे की ओर घुमा कर बैठ गया. शायद उसको सब कुछ बताना अच्छा नहीं लग रहा हो या फिर अपने एक एक कर छूटते घर और घर वालों के दर्द से आँखें नाम हो आयीं थी. जिनको छिपाने के उपक्रम में वह बाहर देखने लगा था.
                     उसकी कहानी सुनकर मेरा मन भर आया था जीवन में कौन कहाँ से कहाँ पहुँच जाएगा ये कोई नहीं जानता. जीवन के इस पहले ही मुकाम पर नितिन को भाग्य ने कहाँ से कहाँ लगा दिया. ऐसा तो मैंने कभी न सुना था और न देखा था. वह तो शानदार बंगले से निकाल कर उसी बंगले के एक क्वार्टर तक पहुंचा दिया गया. 
"आशु , मैं चाहती हूँ की नितिन आगे पढ़े." अब दीदी ने उस चुप्पी को तोडा था.
"वो कैसे?" अब मेरी बारी थी.
"अगर तुम इसके लिए कुछ कर सकते हो तो इसको बगीचे से हटा कर किचेन में लगा दो और इसको दोपहर का समय पढ़ने के लिए दे सकते हो." ये दीदी का प्रस्ताव था.
"आप ऐसा क्यों चाहती हैं." अब मेरा ये सवाल दीदी से था और दीदी मेरा मुँह देखती रह गयी शायद उन्हें मुझसे इस तरह के प्रश्न की आशा नहीं होगी लेकिन मुझे हर काम अपने नियम के अनुसार और आपसी विमर्श के बाद करना होगा.
"आशु, ये लखनऊ में सिटी मौंतेसरी स्कूल का पढ़ा है, बचपन में इसकी शिक्षा वही शुरू हुई थी और वक्त ने इसको यहाँ पहुंचा दिया है. अभी भी देर नहीं हुई है अगर ये आगे की पढ़ाई शुरू कर देगा तो जीवन भर इस काम में तो नहीं लगा रहेगा."
"नितिन तुम क्या चाहते हो?" अब मैंने नितिन की ही मर्जी जाननी चाही.
"ठीक है साहब, अगर मौका मिले तो मैं मेहनत से दोनों काम करूंगा."
"ठीक है, मैं देखता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ.?"  मैंने नितिन से कह दिया 
"ठीक है साहब." और वह हाथ जोड़ कर चला गया लेकिन पापा की फोटो वही भूल गया. मैंने पापा की तस्वीर उठा ली और फिर उसी को देखता रहा . मैंने मन ही मन पापा से वादा किया कि मुझसे जो भी होगा मैं नितिन को अच्छी जिन्दगी देने की कोशिश करूंगा और तस्वीर उठा कर फिर मेज पर रख दी.

6 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी पाठक के मन पर अपनी छाप छोड़ जाती है!
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    सुन्दर और रोचक कथा है जी!

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  2. बहुत ही रोचक चल रही है कहानी...ऐसा ही कुछ सोचा था कि आशु की दीदी आकर सब ठीक कर देंगी....और उन्होंने कोशिश शुरू कर दी है...देखें आगे नितिन के जीवन में क्या होता है..और कैसे खुशियाँ लौटती हैं...
    अगली कड़ी का इंतज़ार

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  3. बेहद रोचक कहानी... आपका ब्लोग पढ कर वाकई बेहद खुशी हुई और आपका भरा पूरा प्रोफइल देख कर काफी प्रभावित भी हूं... आशा है कि आपसे कुछ सीखने का अवसर प्राप्त होगा...

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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.