हमारी जड़ें !
मम्मी आपने तो गाँव देखा , मुझे भी देखना है । मेरी कुछ सहेलियों के गाँव हैं न। खूब किस्से सुनाती हैं ।
"हाँ बेटा अभी देखती चलो ।"
मीता तो मामा के न रहने के बाद से आई ही नहीं । मामी है , उनके बेटे बहू हैं। आज उसने सुबह फोन कर दिया कि वह पहली बस से आ रही है और वह अचलपुरा जीप से नहीं बैलगाड़ी से जायेगी , जैसे बचपन में जाती थी।
बस से उतरी तो सुरेश सामने खड़ा मिला । उसने मीता के पैर छुए और ऋतु की तरफ बढ़ा तो वह - "नहीं, नहीं मामाजी मेरे नहीं।" कहते हुए पीछे हट गई।
"ऐसे कैसे नईं , पहली
दफे भांनेज मिली और हम पुन्न न कमायें।" कहते हुए उसंने पैर छू ही लिए।
मीता का बैग उठा
कर उसने बैलगाड़ी में रखा। ऋतु की आँखें खुली रह गई कि बैल और बैलगाड़ी ऐसे सजे थे, जैसे फिल्मों में नजर आते हैं।
बैलगाड़ी के अन्दर गद्दे बिछे थे और तकिए भी रखे थे । ऊपर से धूप न लगे तिरपाल लगी
थी ।
जैसे गाड़ी आगे बढ़ने लगी बड़ी निवरिया के नीचे बैठे लोग पूछने लगे - "अरे भैया कौन घर के पाहुने हैं।"
"कक्का लम्बरदार की भांनेज और नातिन हैं।"
"लम्बरदार के पाहुने बैलगाड़ी में ?"
"अरे कक्का जा जिजी की मौड़ी कौ मन रहे बैलगाड़ी में
बैठन को, तासे निकारी है।"
"मम्मा यहाँ सब लोग इंट्रो लेने लगते हैं।"
गाँव में घुसते ही छोटे छोटे बच्चे बैलगाड़ी के पीछे पीछे
दौड़ने लगे। दरवाजे पर बैठे लोग पूछने लगे - "आ गई बिट्टो।"
मीता परदे से सिर निकाल सबसे मामा नमस्ते , नाना नमस्ते करती चल रही थी।
"मम्मा क्या आप सबको जानती हो?" ऋतु पूछ रही थी।
हाँ बेटा, बचपन
में रिजल्ट मिलते ही हम भाई यहाँ आ जाते और दो महीने यहीं गुजारते थे।"
तब तक पीछे से आवाज़ आई - "महन्त महाराज आये हैं का?"
"हाँ नाना नमस्ते।"
"जुग जुग जिओ बेटा, नैक जा घरऊ हो जइओ नानी न आ पैहे, बीमार है।"
"ठीक है नाना आयेंगे।"
दरवाजे पर गाड़ी रुकी तो कई औरतें खड़ी थीं और
मामी हाथ में शरबत का लोटा लिए खड़ी थीं । मीता और ऋतु के सिर सेशरबत उतार कर
बाहर ही डाल दिया गया । एक औरत जो शायद नाऊन थी, एक थाली में पैर रखवा कर पानी से पैर धोई तो
मीता ने उसे पचास का नया नोट दिया , उसने उलट पलट कर देखा - "बाई जा चूरन वालौ तो नइयाँ।"
"अरे न गढरवाली जा नऔ नोट है।" मामी ने तसल्ली दी ।
बरामदे में खूब बड़ा निवाड़ का पलंग पड़ा था। उसी
पर बिठाया गया। सबको पता था कि मीता आने वाली है , बच्चों
ने दौड़ कर खबर कर दी और औरतों ने आना शुरु कर दिया -
"दद्दा का नहीं रहे, बाई अचलपुरई छोड़ गई।"
"बाई अब शहर में रहाती है , देहात में अब का धरो । अरे बाई तुमाए सब मामई
चले गये , घरन में तारे डरे हैं। खेत
जुता गये, फिर फसल उठानई आउत हैं। लरका सबके शहरन में पढन लगे , चाहे
कछु न कर पायें लेकिन गाँव में न रहिऐं।"
"अब बखरी में कोई नहीं रहता ?" मीता को बचपन याद आ गया ।
"कहाँ की बातें बाई , अब बखरी कौ नाव भर रह गयौ। सब घर वीरान हो गये। हाँ बिके नइयां सो पुरखन कौ नाव
बनो है।"
चलते समय औरतें ऋतु को रुपये पकड़ाती
जायें तो वह मीता की ओर देखने लगे और मीता ने धीरे से इशारा किया कि ले ले ।
शाम
होने पर मीता ऋतु को लेकर गाँव घुमाने ले गई । वहाँ तो मीता सबको मामा मामी ही कह
रही थी ।
ऋतु बोली - "मम्मा आपके कितने सारे मामा मामी हैं ?"
"बेटा यहाँ सिर्फ दिल के रिश्ते होते हैं , निश्छल लोग, जाति-पाति नहीं , यही संबोधन आदर और अपनत्व के सूचक होते हैं और इसी में आज भी हमारी संस्कृति बसती है।"
"वाओ मम्मा, इंटरेस्टिंग।"