पति का फर्ज़ !
सरोज अकेले रहते रहते बुरी तरह त्रस्त हो चुकी थी, सिर्फ बेटियां ही उसकी आशा का केंद्र बिंदु थीं। आधी रात को उसने दर्द से तड़पते हुए शरीर छोड़ दिया। उसके पास बेटी ही थी।
पत्नी के न रहने की खबर सुनकर सोचा कि पति होने का फर्ज पूरा नहीं किया चलो अंतिम समय दुनिया के दिखावे के लिए ही चला जाय, जब तक देव आया तैयारी हो चुकी थी।
"ऋतु इनका पूरा श्रृंगार करवा दो, सधवा औरतों की अर्थी ऐसे नहीं उठाई जाती है। सिन्दूर लाओ मैं इसकी माँग भर दूँ। "
"रहने दीजिये , अब चली गयीं और माँग भरना तो उन्होंने वर्षों पहले छोड़ दिया था , फिर ये दिखावा क्यों ?"
"मेरे रहते तो ऐसे नहीं ही जायेगी।"
"वह जा कहाँ रहीं हैं ?"
"अंत्येष्टि के लिए, वह तो मेरे होते कोई नहीं कर सकता।"
"वह अपनी देह दान कर चुकी हैं , अभी मेडिकल कॉलेज की टीम आती ही होगी। "
"बगैर मेरे पूछे ये निर्णय लिया कैसे गया ?"
"जैसे आपने उनके रहते दूसरा घर बसने का लिया था।"
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कथानक इसी धरती पर हम इंसानों के जीवन से ही निकले होते हैं और अगर खोजा जाय तो उनमें कभी खुद कभी कोई परिचित चरित्रों में मिल ही जाता है. कितना न्याय हुआ है ये आपको निर्णय करना है क्योंकि आपकी राय ही मुझे सही दिशा निर्देश ले सकती है.