जब तक नितिन रहे नीलिमा ने श्राद्ध के दिनों में रोज ही कुछ नहीं तो दुकान के लिए निकलते हुए एक पैकेट जरूर देती और कहती इसे किसी गरीब को देते जाना।
नितिन को पता था कि श्राद्ध तो माँ और बाबूजी की तिथि पर ही कराती है, लेकिन ये पंद्रह दिन तक रोज ही इस तरह से सीधा निकाल कर और पाँच रुपये किसी न किसी गरीब को भेजती रहती है। वह चुपचाप लेकर चला जाता। उसको इन सब से ज्यादा मतलब नहीं था, ये काम महिलाओं के हैं कि क्या क्या करना है?
अचानक नितिन के चले जाने पर नीलिमा ने सब बंद कर दिया क्योंकि श्राद्ध बहू बेटे के वश की बात नहीं है और वह किसी को यहाँ जानती नहीं तो किसको देगी ? गाँव में होती तो और बात होती। फिर भी संस्कार कहाँ जाते हैं ? नितिन की तिथि उसको याद हमेशा रहती है और इस बार उसने सोचा कि तीसरी साल है , बेटा - बहू कुछ करने वाले नहीं है तो वह ही कुछ नितिन की पसंद की चीज बना कर बाहर निकल कर किसी गरीब को दे आएगी।
सुबह बहू बेटे के ऑफिस निकलने के पहले ही उसने कहा कि - "बेटा कुछ पैसे चाहिए , आज तेरे पापा की पुण्य तिथि है तो मैं किसी गरीब को कुछ फल दान करना चाहती हूँ। "
"क्या माँ आप कब तक इस को मानती रहेंगी ? इंसान मरने के बाद भी खाने आता है क्या ?" बेटे ने पलट कर कहा।
इससे पहले कि नीलिमा कुछ कहती बहूरानी बोल उठी - "हम दिन भर मेहनत करते इस लिए नहीं कमाते कि इसे मुर्दों के नाम पर खर्च किया जाय। सो इसे तो आप भूल ही जाइये कि जो आप अब तक पापा की कमाई से उड़ाती रही हैं , हम भी आप को उड़ाने देंगे। "
बहू - बेटा के जाने के बाद नीलिमा के कानों में नितिन के लिए "मुर्दा" शब्द देर तक गूंजता रहा।