सोमवार, 2 जुलाई 2012

भवितव्यता (४)

पूर्व कथा :

                        सावित्री अपने मइके या ससुराल दोनों में दुलारी थी। घर में लक्ष्मी मानी  जाती। उसका पति समझदार और जिम्मेदार युवक था। छोटे भाई की संगती के बिगड़ने से चिंतित रहता और उसके इसा बात के लिए रोकने पर उसके साथ कुछ ऐसा बुरा हुआ की कई जिन्दगी इसमें पिसने ला। शशिधर का दोस्त गिरीश ने अंतिम समय उसे वचन दिया की वह उसकी पत्नी और बच्चों के साथ अन्याय नहीं होने देगा और इसके लिए उसने स्कूल में पूरी भूमिका बना दी। चाचा बच्चों को  करने लगा और साथ ही सावित्री को भी। बच्चों को कसबे में  के लिए ले जाने के सवाल पर गिरीश और शशि के घर वालों के बीच कहा सुनी हो गयी और उसी बीच गिरीश ने कह दिया की शशि को  मारने वाले उसके देवर के साथ ही थे ...........


गतांक से आगे :

                            गिरीश की बात सुनकर उसके ससुर और सावित्री अवाक् रह गए। लेकिन उनके मुँह से कोई बात निकल ही नहीं सकती थी। उन दोनों के मन में क्या चल रहा था इसको कोई और नहीं जान सकता था। इस बात को सुनकर उसका देवर भी सन्न रह गया, लेकिन गिरीश को हर बात कहाँ तक पता है? इस बारे में उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा क्योंकि अब आगे से उसे गिरीश से पंगा नहीं लेना है, ये तो पक्का है। उसकी मंशा कि सावित्री और बच्चों को वह यहाँ से जाने ही नहीं देगा ताकि भैया के पैसे का पूरा पूरा लाभ उसी को मिले और सारा पैसा उसके हाथ में ही आये और खेती में हिस्सा तो बना ही रहेगा। अगर सावित्री और बच्चे यहाँ से निकल गए तो उसके हिस्से में क्या आने वाला है? वह ऐसा होने ही नहीं देगा? इसके लिए उसे चाहे गिरीश को भी धमकाना क्यों न पड़े ? मेरे पास तो मेरे सारे साथी हैं और गिरीश अकेला है डर ही जाएगा। 


                     *****                        ****                          *****              


          आखिर गिरीश ने घर जाकर ये निर्णय लिया कि वह इस बार बच्चों का नाम कस्बे में ही लिखायेगा। छोटा अभी छोटा है इसलिए वह बाकी दोनों बच्चों नाम ही लिखायेगा। यद्यपि उसको ये विश्वास ही नहीं कि शशि का छोटा भाई इस बात के लिए  राजी होगा और बच्चों को कस्बे  में पढ़ने देगा। कहीं ऐसा न हो कि वह  मेरे साथ साथ इन बच्चों का भी दुश्मन न बन बैठे, सावित्री क्या करेगी?
               
        शशिधर के पिता की भी जान सांसत में पड़ गयी कि ये नालायक बेटा कहीं उसकी पूरी जमीन- जायदाद कुसंगत में पड़ कर जुए और शराब की भेंट न चढ़ा दे। इन बच्चों को कहीं सड़क पर लाकर  खड़ा न कर दे,  फिर वे क्या करेंगे? जो अपने देवतुल्य भाई को मरवा सकता है ,वह कुछ भी कर सकता है। वे भी बच्चों को बचाने  और  भविष्य को सुरक्षित करने के लिए उन्हें अपने से दूर करने के लिए खुद को तैयार करने लगे और इसके लिए वे अपने  दिल पर पत्थर  रखने के लिए राजी थे। उन्हें इस बात पर शर्म आने लगी थी कि कहाँ एक बेटा कितना सज्जन और चरित्रवान और  दूसरा निकम्मा और  बिगडैल।  उन्होंने पत्नी से भी इस बारे में विचार किया। एक माँ वैसे भी चोट खाए बैठी थी, उसकी  जितनी आत्मा आहत थी और वह उससे ज्यादा नहीं सोचना चाहती थी। अब वे दोनों ही बेटे को खोकर पोतों को खोने की कल्पना  से भी उनकी आत्मा काँप जाती थी। इसलिए उन लोगों ने गिरीश  के प्रस्ताव को स्वीकार कर का मन बना लिया ।
                    स्कूल खुलने का समय धीरे धीरे पास आता जा रहा था, सावित्री को इस बारे में अभी नहीं बताया गया था। गिरीश ने भी सोच लिया था कि वह बच्चों का नाम बगैर उन्हें ले जाए पहले ही  एडमीशन करवा लेगा और एक दो  महीने के बाद  वह ले जाएगा। लेकिन उसको ये नहीं मालूम था कि बच्चों को यहाँ से ले जाना तो आसान होगा लेकिन उनकी परवरिश नहीं। गिरीश बच्चों को ले तो गया लेकिन उनके लिए एक कमरा लेकर रहना भी उसको वहीं पड़ेगा लेकिन मित्र की खातिर उसको कुछ न कुछ तो कष्ट उठाना ही पड़ेगा, इस बात से वह पूरी तरह से वाकिफ था और मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार भी था। बच्चों के लिए खाने की व्यवस्था, उनके कपड़े धोना , उनके लिए सारी सुविधाएँ जुटाना आसान न था। सिर्फ कुछ ही दिनों में गिरीश को लगने लगा कि  वह ये सब नहीं कर  पायेगा। वह तो घर से आकर यहाँ पर पढ़ा कर चला जाता था। कभी घर में दाल नहीं और कभी आटा नहीं। फिर रसोई के तमाम झंझट, बच्चों को क्या खाना खिलाना है और क्या नहीं" ये सब बातें कभी पुरुष भी जान सके हैं? लेकिन वह जिस आग में कूदा था उससे पीछे नहीं हटना था।
                 फिर एक दिन बड़ा बेटा मयंक बीमार पड़ा , उसको बहुत तेज बुखार था और वह बुखार के कारण बड़बड़ा भी रहा था। वह बुखार में माँ माँ की रट लगाये था। अब गिरीश के हाथ पैर फूलने लगे कि अगर बच्चे की हालत और बिगड़ती है तो वह क्या करेगा? वह अकेला दोनों बच्चों को कैसे सँभाल पायेगा। तीन दिन तक उसके बुखार रहने के बाद वह ठीक हो पाया लेकिन इस बीच गिरीश जिस अग्निपरीक्षा से गुजरा था उसने उसे अन्दर तक हिला दिया था।
              उसने रविवार की छुट्टी के दिन बच्चों को लेकर गाँव जाने की सोची , बच्चे अपने घर वालों से मिल भी आयेंगे और वह उनके बाबा से माँ को साथ भेजने के लिए बात भी करेगा। उसे इस बात का पूरा पूरा अहसास हो चुका था कि बगैर माँ के बच्चों को रखना आसान नहीं है। एक माँ तो अपने बच्चों को बाप के बिना पाल सकती है लेकिन एक बाप बिना माँ के बच्चों को नहीं पाल सकता। घर में गृहणी का रहना कितना जरूरी है इस बात को वह अच्छी तरह से जान चुका  था और इसी लिए वह शशिधर के पिता से बात करने के लिए तैयार हो चुका था।
 
                    घर पहुँच कर उसने शशिधर के पिता से बात की --

               "बाबूजी बच्चों की खातिर उनके साथ उनकी माँ का रहना बहुत ही जरूरी है, अतः आप उनकी माँ को उनके साथ रहने की अनुमति दें। 10 और 8 साल के बच्चे इतने बड़े नहीं होते कि वे अपनी माँ के बिना रह सकें।"

         "लेकिन ये तो मुश्किल है , घर में क्या होगा? शशि की माय भी अकेली रह जायेगी।"
 
        "बाबूजी बच्चों के खाने पीने की व्यवस्था करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है।"

        "बेटा तुमने कहा किबच्चों को भेज दें, मैंने वैसे ही किया लेकिन बहू को भेजना मुश्किल है।"

        "बाबूजी बच्चों के भविष्य आपको कुछ तो सोचना ही पड़ेगा।"

        "अच्छा बेटा तुम थोड़े दिन रुक जाओ मैं इस बारे में घर में बात करता हूँ ।
                      
                गाँव का मामला था, वहाँ इतना आसन नहीं होता कि कोई विधवा स्त्री अकेले कस्बे में रहने चली जाए वह भी एक गैर मर्द के कहने पर। शशिधर के पिता इस बात को महसूस कर रहे थे कि इस समय हालात ऐसे ही हैं कि  सावित्री को बच्चों के भविष्य के लिए बाहर निकलना ही पड़ेगा। इस बात को घर में उठाया गया कि छोटे अपनी पत्नी को गौना करा कर ले आये ताकि सावित्री बच्चों के साथ जा सके। जब ये बात देवर को पता चली तो वह आग बबूला हो गया और उसने गाँव के पंचायत बुलाने की सोची क्योंकि  वह इस बात के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। जिस दिन गिरीश आया छोटे पहले से ही सरपंच को बुला लाया था कि पराया मर्द उसके भाई के बच्चों को लेकर चला जायेगा फिर हम कुछ न कर पायेंगे। सावित्री भी अगर एक बार घर से बाहर निकली तो फिर घर लौट कर उसको रहना मुश्किल हो जायेगा। कस्बे की जिन्दगी सबको लुभाती है और जब पैसा उसके हाथ में होगा तो फिर वह किसी को क्यों घास डालेगी?
               
           सरपंच काफी बुजुर्ग अनुभवी और सुलझे हुए व्यक्ति थे। उन्होंने गिरीश से बात की --

         "तुम बहू को शहर ले जाओगे तो लोग क्या कहेंगे?"

          "कुछ भी कहें, वह अपने बच्चों के साथ रहेंगी, नहीं तो बच्चों का वहाँ पढ़ पाना मुश्किल हो जायेगा। वहाँ  अभी बच्चों को रखने के लिए हॉस्टल भी नहीं है कि उनको वहाँ डाला जा सके।"

           "वहाँ किसी आदमी की भी जरूरत होगी, एक गाँव की औरत कस्बे में सब कुछ कैसे कर पाएगी?"

          "इस बारे में इनके भाइयों को बुला कर बात कर लीजिए , शायद वे कुछ व्यवस्था कर सकें।"

        "इस बात को आप लोगों ने क्यों नहीं सोचा कि बच्चों और बहू के बारे में कुछ निर्णय लेने के पहले उसके मायके वालों की राय लेना भी तो उतना ही जरूरी है।" सरपंच को गिरीश की बात जँच गयी। 

                                                                                                                       (क्रमशः)


रविवार, 10 जून 2012

भवितव्यता !

                              पूरे मोहल्ले में यह खबर बिजली की तरह से फैल गयी कि बनारस में नीतू के फूफाजी का अचानक निधन हो गया। मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों ने तो उनका बचपन भी देखा था और फिर व्याह, बच्चे सभी कुछ तो सबके सामने हुआ, किन्तु सावित्री जैसा भाग्य किसी ने किसी का नहीं देखा और न सुना था। 
               एक विधवा  के लिए कितना कठिन होता है वैधव्य ढोना और सावित्री फिर एक बार विधवा हो गयी। विपत्तियों के पहाड़ तो उसने जीवन भर टूटते देखे और उनके तले दब कर जीवन जिया। कभी रोई, सिसकी, घुटी और फिर कभी चेहरे के मुस्कराहट से भरी भी नजर आई लेकिन इतने उतार -चढाव शायद किसी ने अपनी जिन्दगी में देखे होंगे। एक सीधी-सादी सात भाइयों की दुलारी बहन। कोई उससे जोर से बोला तक नहीं था और वैसी ही वह भोली भाली भी थी।         
               गाँव के हिसाब से बचपन में उसकी पास के ही गाँव में भरे पूरे परिवार में शादी कर दी गयी थी। इकलौती बेटी और सात भाइयों की इकलौती बहन, बड़ी दुलारी प्यारी - कौन सी सुविधा थी जो उसे नहीं मिली। हर कोई इसी फिराक में रहता कि कौन सी खुशियाँ अपनी बहन और बेटी के आँचल में डाल दें। वह पाँचवे में पढ़ रही थी तभी उसकी शादी कर दी गयी थी। ससुराल में भी उसको खूब सम्मान मिला। खूब सारा दहेज़ लेकर जो आई थी और फिर सबकी आँख का तारा बन कर रही। पति तब पढ़ ही रहा था - घर में अच्छी खेती बाड़ी थी। धन धान्य की कमी न थी। घर में सम्पन्न परिवारों की निशानी ट्रैक्टर और जीप दोनों ही थे। उसका पति पढ़ने में होशियार था तो उससे पिता को भी बहुत उम्मीदें थी कि वह घर में पढ़ लिख जाएगा तो फिर बाकी भाई भी पढ़ लिख जायेंगे और खेती के बारे में भी वह सब देख सकेंगे।
                 पढ़ने के बाद शशिधर की नौकरी पास के कस्बे में लग गयी, यद्यपि पिता की इच्छा न थी कि वह नौकरी करे लेकिन उसका कहना था कि घर से अधिक दूर नहीं है , घर से रोज आया और जाया जा सकता है तो फिर कोई बुराई नहीं है। इस शर्त पर कि वह घर से ही आया जाया करेगा उसके पिता मान गए।
                सावित्री के एक एक करके तीन बेटे हुए। एक तो बड़ी बहू फिर घर में बेटे ही बेटे पलकों पर बिठाया जाता। वह अधिक दिन ससुराल में न रहती कभी मायके और कभी ससुराल में बनी रहती । मन से एकदम भोली और साफ थी। पति की कमाई से कोई मतलब न था। जो पैसे दे देता बहुत था। फिर उसे पिता के घर से इतना मिलता रहता था कि खाली हाथ तो उसका कभी रहता ही न था। सास तो उसे साक्षात लक्ष्मी ही मानती थी। उसकी तरह से देवरों की शादी भी जल्दी ही कर दी गयी लेकिन अभी सास गौना लेने को तैयार न थी क्योंकि सावित्री तो बड़ी बहू थी सो शौक के मारे जल्दी ही गौना ले लिया था। उसके देवर शशिधर की तरह से पढ़ने लिखने वाले न थे। उनकी संगति बिगड़ चुकी थी। वे न तो बड़े भाई की तरह से कर्मठ और व्यवहारकुशल थे और न ही जिम्मेदार । सभी खेती के काम में लगे रहते और जो हाथ में आता उससे उनकी संगति बिगड़ने लगी। घर का पैसा जुएँ और शराब में उड़ाना शुरू कर दिया। चापलूस दोस्तों की कमी न थी । उसको घर के खिलाफ भड़का कर पैसे खर्च करवाने में किसी को बुरा न लगता था। मौज मस्ती उसके दम पर ही चल रही थी। बाकी बड़े भैया तो बने ही थे, छोटे भाइयों की फरमाइश पूरी करने के लिए।              
                   शशिधर ने एक दिन भाइयों को ट्यूबबेल पर आवारा लड़के के साथ मस्ती करते देखा तो उसके कानखड़े हो गए कि ये तो बर्बादी के ओर बढ़ रहे हैं । उसने उनको वही जाकर लताड़ा -- "यहाँ क्या तमाशा मचा रखा है।"
 
"कुछ नहीं - ये लोग आ गए तो ताश खेल रहे थे।"  जुएँ के ताश समेट रहे दोस्तों को उसने कसकर थप्पड़ लगाये और भाई को तो घसीटते हुए घर लाकर पिता के सामने खड़ा कर दिया । पिता ने भी उसको दो चार तमाचे जड़ दिए। शशिधर का ये कदम घर को बर्बादी से बचाने के लिए था लेकिन उसकी अपनी जिन्दगी और परिवार के लिए आगे मँहगा पड़ेगा ये किसी ने नहीं सोचा था।
         
             घर में ही महाभारत होने लगी। बड़े भाई की कमाई पर ऐश करना बंद हो गया। पिता ने भी अब पैसे देने के बारे में सोचना शुरू कर दिया। शायद भाई सुधर भी जाते लेकिन उनके आवारा यार दोस्तों ने तो अपनी मौज मस्ती में खलल पड़ते हुए देखी तो वे उसको भड़काने लगे -

                "तुम भी तो इस खेती के बराबर के हिस्सेदार हो और अभी तुम्हारा खर्चा ही क्या है? सारी गृहस्थी तो तुम्हारे भाई की है। सारा हिस्सा तो उसके बीबी बच्चों पर खर्च होता है। तुम अपनी खेती बंटवा लो , फिर कोई रोकने टोकने वाला नहीं होगा।"

             उन मूढ़ मगज को बरगलाना आसान था क्योंकि पढ़ाई लिखाई से उनको कोई मतलब नहीं था और फिर घर से भी अधिक उन्हें अपने दोस्तों पर भरोसा जो था कि वे सही राय देंगे। उनकी समझ आने लगा कि दोस्त सही कह रहे हैं। उसने घर में बंटवारे की बात की तो और भी धुनाई हुई। अब घर वालों को समझ आ गया था कि इसके मक्कार दोस्त ही इसको भड़का रहे हैं। मुफ्त में खाना पीना किसे बुरा लगता है? सब के सब ऐसे ही छोटे घरों के थे, चापलूसी करने में कोई पैसे खर्च तो होते नहीं है।

         शशिधर को अब पूरे घर की जिम्मेदारी निभानी पड़ रही थी। उसने अपने बचपन के दोस्त जो उसके साथ ही स्कूल में टीचर था,  उसके गाँव से होकर रास्ता जाता था, वह रोज मोटर साइकिल से आता-जाता था.  अब शशिधर ने उसके साथ घर लौटना शुरू कर दिया।  इससे वह घर जल्दी आने लगा क्योंकि साइकिल से जाते आते देर जो जाती थी। दोस्त भी उसका बचपन का दोस्त ही नहीं बल्कि अन्तरंग भी था। अंतरंगता के चलते वे आपस में अपने सारे सुख दुःख बाँट लिया करते थे।

          छोटे भाइयों को हथियार बनाकर उसके कंधे पर बन्दूक रख कर चलाने वाले और भी पैदा होने लगे क्योंकि गाँव में उनकी समृद्धि और खुशहाली से जलने वालों की कमी न थी। किसके मन में क्या पल रहा है ये सब कुछ तो जाना नहीं जा सकता है। वैसे भी ऐसे में घर और कुनबे के लोग भी दुश्मन बन जाते हैं। घर में कुछ न कहने वाले शशिधर को इस बात का अहसास होने लगा था।   कई बार उसने अपने मित्र से कहा भी - "मुझे अपने और अपने परिवार के लिए डर लगने लगा है।"

"ऐसा क्यों?"

"पता नहीं क्यों ये मेरी आत्मा को लगने लगा है, कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए ?"

"ऐसा विचार मन में मत लाया करो, उस ईश्वर पर भरोसा रखो।"  मित्र उसको दिलासा दिया करता था।
 
"उसका सहारा तो रह ही जाता है, हम कर भी क्या सकते हैं?"  वह हताश स्वर में कभी कभी बोल जाता था।

  1.            कोई नहीं जानता था की शशिधर की ये शंका इतनी जल्दी ही सत्य सिद्ध हो जाएगी और सब कुछ ऐसे बिखर जाएगा जैसे कि कभी कुछ था ही नहीं। वह सावित्री जो अभी भी एकदम भोली थी , अपने बच्चों और पति के अलावा उसकी कोई दुनियाँ थी ही नहीं।
(क्रमशः )