सोमवार, 20 मई 2024

घर की मुर्गी .....!

        सारी उम्र आरामतलबी भी गुजारने वाले गुप्ता जी रिटायरमेंट के बाद और ज्यादा सिरदर्द बन गए थे।  पहले तो लंच लेकर ऑफिस चले जाते तो उनकी पत्नी सारे दिन अपनी इच्छानुसार आराम और काम कर लेती, लेकिन अब तो वह भी भारी पड़ने लगा था।  वह अपने समय के अनुसार एक समर्पित  बहू , गृहणी, पत्नी और माँ बनी रहीं। वैसे यह समर्पण उनको जीवन भर कष्ट ही देता रहा और अब ?

"देखो अब मेरी उम्र हो चुकी है , जरा ज्यादा ध्यान दिया करो।"  गुप्ता जी की नसीहत होती। 

"पहले कौन सा तख्ता पलट रहे थे और आपकी उम्र हो रही है तो मम्मी जी की तो जैसे कम होती जा रही है। " बहू किचेन में सुन रही थी और मन ही मन बुदबुदाई. 

"हाँ देखती हूँ, मेरे भी पैरों में बहुत दर्द रहने लगा है , बैठ कर उठूँ  तो सीधे चल ही नहीं पाती हूँ। "  पत्नी बोली। 

"इतना कहता हूँ कि कैल्शियम लिया करो और हमें भी देती रहो , वह तो सुनती नहीं हो। छलनी में दूध दुहो और कर्मों को रोओ  " गुप्ता जी बड़बड़ाये। 

            कमरे से उठकर सुनीता जी चल दीं उनके पास और बहू ने वहीं उनका हाथ पकड़ लिया और बोली- " आप नहीं जायेंगी, अब तो घर  रहकर अपने कुछ काम करने दीजिये।  आपने ही आदतें ख़राब की हैं। "

"फिर वो चिल्लाना शुरु कर देंगे। " 

" करने दीजिये, अब मैं हूँ न। " बहू दृढ़ता से बोली. 

                    शाम को बेटे के ऑफिस से आते ही शुरू  हो गए - "रजत क्या मुझे समय से चाय-पानी भी नहीं मिलेगा ?"

"क्यों नहीं ? आप बोलिये सब समय से मिलेगा, रूचि किस लिए है ? लेकिन मम्मी को अब भी अब आराम की जरूरत है। " रजत  आदतों से वाकिफ था सो बोल दिया। 

  " ऐसा करो मेरे लिए किसी वृद्धाश्रम में एक सीट बुक करा दो , मैं अकेला रहना चाहता हूँ और मैं किसी पर आश्रित भी नहीं हूँ । " तैश में अगर गुप्ता जी बोले। 

"मुझे कोई परेशानी नहीं है , आप ही सोच लीजिये रह पाएंगे। "

"हाँ हाँ क्यों नहीं ? अभी इतनी दमखम है मुझमें। "

          रजत ने बिना बहस किये ही शहर के एक 'सांध्य जीवन' में पंद्रह दिन के लिए एक कमरा बुक करा दिया।  अगर अच्छा लगेगा तो और बढ़ा देंगे।  वैसे उसे पूरी उम्मीद थी कि इनका गुजारा कहीं नहीं होने वाला है।  

         पत्नी ने एक बैग तैयार कर दिया और अपनी दवा वगैरह उन्होंने खुद ही रख लीं। 

"क्या तुम नहीं चल रही हो?" गुप्ता जी ने एक बैग देखा तो तुनक पड़े। 

"नहीं मम्मीजी को कल से बुखार है , आप दो चार दिन रहकर वहाँ का माहौल वगैरह देख लीजिये फिर अगर इनका मन होता है तो आ जाएंगी नहीं तो कोई बात नहीं।"  अब की बार बहू बोली थी। 

"मैं अकेला जाकर क्या करूँगा?" 

"फिर ये तो निर्णय आपका ही था न , घर से अच्छा कुछ भी नहीं हो सकता है।  हाँ घर में घर वालों का के सुख दुःख सब साथ रहता है और उसका ध्यान भी रखना पड़ता है।  वहां आपके ऊपर कोई दबाव नहीं होगा। "

       शाम  को जाने की बात कहकर गुप्ता जी घर से निकल गए और दो घंटे बाद वापस आकर चुपचाप लेट गए।  रजत ऑफिस आया - " पापा आप गए नहीं ?"

"नहीं और जाना भी नहीं है."

"क्यों क्या हुआ?"

"मैं उसे वृद्धाश्रम में होकर आया हूँ बहुत बढ़िया सुविधा है लेकिन सब समय पर होता है , ये नहीं कि हमें जब चाय चाहिए तब ही मिलेगी वह समय से ही मिलेगी। सुबह उठ कर योग का प्रोग्राम  भी होता है , जो अपने से उतने सबेरे होने से रहा।"

"आप पंद्रह दिन रहकर  ,कुछ बदलाव  हो जाएगा।  कुछ आदतें नई बन जाएँगी और पुरानी छूट जायेंगी ।"

"मैं घर में ही रहकर बदल लूँगा लेकिन घर छोड़ कर नहीं जाऊँगा।" 

                     रजत, रूचि और सुनीता जी मन ही मन खुश हो रहे थे।  

मंगलवार, 14 मई 2024

वक्त वक्त की बात !

         

                                     वक्त वक्त की बात !           

                         

              "माँ मैं मेंहदी लगवाने के लिए जा रही हूँ।" बहू ने अपनी सहेलियों के आते ही अपनी सास से कहा और अपना बैग उठाकर वह बाहर निकल गई। 

            कल करवा चौथ है तो आज ही सारे काम निपटा कर कल घर में रहेगी। घर में ही बहुत काम हो जाते हैं। वह तो बताती भर जाती है। ऐसा नहीं उसने भी बहुत किया है। 
           
           बहू के जाते हैं तिवारी जी बोले- "अरे बहू कहाँ निकल गई अपनी सहेली के साथ?"

         "पार्लर गई है, मेंहदी लगवाने , कुछ शॉपिंग करना होगा। कल व्रत है न।"
        
         "तुमने तो कभी ना करवाया, न कभी मेंहदी लगाई, बस वही आलता लगा लिया और सिंदूर लगा लिया और शादी का लहँगा पहन कर ली पूजा। मुझे तो उसी में अच्छी लगती थी तुम, पर आजकल के बच्चे तो शौकीन है।"

        "क्यों ना हो उन्हें बराबर का साथ मिलता है, बेटा भी तो उसके हर काम में साथ खड़ा रहता है। यह तो नहीं छोड़ दिया अकेले और फिर मतलब नहीं सँभालो सारी घर गृहस्थी।"

        "तुम मुझे उसी में सुंदर लगती हो।"

       "क्यों नहीं? मेंहदी रचा कर बैठती तो काम कौन करता?"

        "छोड़ो भी पुरानी शिकायतें, कल मेरे लिए व्रत रहोगी।" कहकर तिवारी जी बाहर निकल गये। करीब आधा घंटे बाद आये। कुछ लाए थे जिसको उन्होंने छुपा के रख दिया। रात में खाना खाने के बाद उन्होंने निकाला और पत्नी से बोले -  "आज में तुम्हारे हाथ में मेहंदी लगाऊँगा।"  पत्नी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गई । 

       "क्या?"

       "जी हाँ मैडम ।"

      "अरे! आपने आज ये नया चोचला क्यों? अभी तक तो कभी नहीं लगाई।"
 
       "लेकिन मैं इस बार लगाऊँगा।"

        इस पर पत्नी को बहुत तेज हँसी आई। 
 
      "अरे आज देख तो लो मैं भी कुछ कर सकता हूँ।"  

       तिवारी जी ने पत्नी के दोनों हाथों में सुंदर सी मेंहदी लगाई । कोन से मेंहदी लगाना कोई कठिन काम नहीं था। 

          बहू ससुरजी को चाय देने आई तो उसने सास के हाथों में मेंहदी देखकर आश्चर्य से कहा -  "मम्मी मेंहदी आपने कब लगवाई?"

         ये सुनकर सास के चेहरे पर लज्जा की लहर दौड़ गई।
 
रेखा श्रीवास्तव  वक्त वक्त की बात !

गुरुवार, 2 मई 2024

नाम का सवाल !amar ujala men

 

                                                      नाम का सवाल !

 

               सार्थक अपनी शादी का कार्ड लेकर अपने मित्र समर्थ के यहाँ गया और उसने अपनी शादी का कार्ड उसकी माँ को दिया। उसकी माँ ने जिज्ञासावश कार्ड खोलकर देखा और उसमें उसके पिता का नाम संजीव देखा।  संजीव तो सार्थक के चाचा थे, जो भाभी से शादी के बाद पिता बने। 
        
              उनको ये तो पता था कि सार्थक के पिता राजीव थे और उनकी आकस्मिक मौत के बाद दीक्षा की शादी देवर संजीव के साथ कर दी गई थी। उसने सार्थक को टोक दिया कि तुम्हारे पिता के नाम की जगह यह चाचा का नाम क्यों लिखा गया है क्योंकि तुम्हारे पिता का नाम तो राजीव था और इसमें संजीव लिखा हुआ है।
              
              सार्थक को अपनी आँखें खोलते ही पिता के रूप में संजीव ही मिला था, उसने पापा को बहुत संघर्ष करते हुए देखा और उसकी पढ़ाई के लिए हर संभव प्रयास किया ताकि उसका अच्छा भविष्य बन सके और वाकई उसका भविष्य उज्जवल हुआ। तब जाकर आज उसके घर में खुशी का यह मौका आया था । 
        
              सब बड़े खुश थे कि अचानक इस घर में उठाये गए प्रश्न से सार्थक के दिमाग में उथल-पुथल मच गई। उसने उन्हीं से पूछा कि यह बात आप कैसे कह सकती हैं? क्या कोई मुझे बता सकता हैं कि ऐसा क्यों है?"
 
             उन्होंने कहा - "हाँ अपने पापा की चाचीजी से पूछो, वही बता सकती हैं।"          
        
                सार्थक के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका था, वह दादी चाची के पास आया, जो कि एक डॉक्टर थी और उसने उनसे बगैर किसी भूमिका के पूछा - दादी जी क्या मेरे पापा मेरे पापा नहीं है मेरे पापा कोई और थे?" 
          
               चाची जी अकस्मात इस प्रश्न से चौंकी और बोली -  "यह बात तुमसे कही किसने?"
        
               उसने कहा -  "मैं कार्ड देने गया था तो मुझे एक आंटी ने बताया कि मैं राजीव का बेटा हूँ,  फिर यहाँ संजीव क्यों लिखा है? और उन्होंने ही कहा कि इसका कारण आप ही मुझे बता सकती हैं ।"
        
              "ठीक है अगर तुमको यह बात जाननी है तो एक बात मुझे बताओ कि तुमने अपने जीवन में कभी भी यह महसूस किया कि तुम्हारे पापा ने तुम्हारी परवरिश, तुम्हारी पढ़ाई लिखाई में, तुम्हारे प्यार में कभी कोई कमी की ? अगर नहीं तो फिर यह सवाल क्यों ?"
 
             "बस मैं जानना चाहता हूँ कि क्या वास्तव में ऐसा है।"
 
              "हां वास्तव में ऐसा ही है क्योंकि जब तुम 6 महीने के थे, तभी तुम्हारे पापा राजीव का एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था। उस समय तुम्हारी माँ की उम्र 22 वर्ष थी , उनकी पूरी जिंदगी का और तुम्हारे भविष्य का सवाल था।  फिर तुम्हारी दादी ने यह निर्णय लिया कि माँ की शादी चाचा के साथ कर दी जाए ताकि दोनों का भविष्य सुरक्षित हो। उनकी सोच बहुत अच्छी थी और फिर माँ की शादी चाचा के साथ कर दी गई। उसके बाद तुम्हारी बहन का जन्म हुआ । जब तुमने स्कूल जाना शुरू किया तब यह प्रश्न उठा कि अगर तुम्हारे पिता के स्थान पर राजीव का नाम लिखा गया और बहन के पिता के स्थान पर संजीव का नाम लिखा जाएगा तो बड़े होने पर तुम्हारे मन में एक प्रश्न आएगा। सगे भाई बहन होने के बाद भी हमारे पिता के नाम अलग क्यों है? और उस समय तुम्हारे बाल मन पर क्या प्रभाव पड़ता यह कोई नहीं जानता था। इसीलिए यह निर्णय लिया गया कि जब परवरिश से लेकर हर चीज संजीव ही कर रहा है तो पिता के नाम पर भी संजीव का ही नाम होना चाहिए इसीलिए संजीव का नाम पिता की जगह पर है लेकिन एक वादा मैं तुमसे चाहूँगी कि तुम अब पूरी तरह मैच्योर हो और इस परिवर्तन से जीवन में तुम्हारी माँ ने भी बहुत संघर्ष और मानसिक यंत्रणा सहन की है तो तुम कभी इस बात को अपनी माँ से नहीं पूछोगे।"
 
                      " याद रखना कि तुम संजीव और दीक्षा के बेटे हो और वही रहोगे।"  


रेखा श्रीवास्तव

रविवार, 28 अप्रैल 2024

सीमायें अपनी अपनी !

          

                                 सीमायें अपनी अपनी !

          "अरे,अरे भाई वहाँ कहाँ जा रहे हो? वह अपना हिस्सा नहीं है वह तो दुश्मन का हिस्सा है।"

         "अरे यह दुश्मन का हिस्सा क्या होता है? हर तरफ एक ही जैसा तो है । क्या यह लकड़ी के बाड़ लगा देने से जमीन के टुकड़े हो जाते हैं, आकाश के टुकड़े हो जाते हैं, हवा के टुकड़े हो जाते हैं या फिर माँ के टुकड़े हो जाते हैं। सब तो अपने ही है।" 

"अरे नहीं भाई तुम नहीं समझोगे हमारे मन और इन इंसानों के मन में बड़ा अंतर है। इन्हें दिल को बाँटने में भी समय नहीं लगता यह तो दिल में भी पत्थर की दीवार खड़ी कर लेते हैं,  फिर यह तो जमीन है इस पर तो खड़ी कर ही सकते हैं।"

"कितनी ऊँची?" 

"अरे ऊँची क्या, यही बहुत है। इसी से हिस्से बाँट हो गए।"

"लेकिन हम लोग क्यों मानेंगे? पानी हम यहाँ पियेंगे और फल वहाँ है तो वहाँ खायेंगे। हम चहचहायेंगे  तो हमारी आवाज दोनों तरफ जाएगी।  कोई मारेगा क्या हमको?" 

"नहीं तुम्हें या हमें तो नहीं शायद, लेकिन अगर आदमी आने लगे तो जरूर मार दिए जाएंगे क्योंकि उनके दिमाग में भी हिस्से हो गए हैं। कोई लड़ाई में विश्वास रखता है और कोई शांति में।" 

"तो इस तरह तो दुनिया ना चलने वाली।" 

 "चल तो रही है मेरे भाई कौन सी कमी दिख रही है, जिनके घरवालों को मार देते हैं, वे रोकर  रह जाते हैं और यह कसाई खुश होते है, जश्न मनाते हैं।"
 
"तब तो भाई इस बाड़ से अंदर उड़ चलो क्योंकि इन्होंने तो पेड़ न बचने दिए, पानी न बचने दिया हम कहाँ जाएंगे?" 

"किस तरफ जाओगे।" 

"वहाँ चलो जहाँ सुख-शाँति हो, हँसी खुशी हो। वही हमारा जहाँ है।" 

"सच भाई हम उसके हैं, जिसे न नीचे बँटवारा चाहिए और न ऊपर बँटवारा चाहिए। हमारी दुनिया तो दरख्तों में बसी है हमें तो हरे भरे दरख़्तों का आशियाना चाहिए।"
 
रेखा श्रीवास्तव 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

कैसा रिश्ता !

 
                              कैसा रिश्ता !
 
"मैं जो कहता हूँ , तुम  सुनती क्यों नहीं?" पेड़ ने कहा।
 
"क्या सुनूँ?" चिड़िया ने बड़े शांत स्वर में कहा।
 
"उड़ जाओ यहाँ से, क्यों शहीद होना चाहती हो।"
 
"अपना घर छोड़ कौन जाता है?"
 
"आपातकाल में पहले परिवार बचाया जाता है, सो यहाँ से दूर उड़ जाओ।"
 
"कहाँ? बताओ न, कहाँ बचे हैं ऐसे पेड़, जहाँ सिर छिपा लूँ और लू, धूप न लगे।"
 
"जाओगी तो शरण भी मिल जायेगी। खोजना पड़ेगा।"
 
"बच्चों का जीवन तो देखो, उन्होंने अभी दुनिया नहीं देखी है।"
 
"उन्हें न रोकूँगी, सक्षम कर दिया जहाँ चाहे जा सकते है।"
 
"तो तुम मेरे साथ ही जलोगी। मेरे पास भागने का विकल्प होता भाग जाता, तुम तो जा सकती हो।"
 
"नहीं दादा, जब से इस पेड़ पर हूँ, कितने अण्डे दिये, बच्चे हुए अपनी छाँव में बचाकर रखा। इन्हीं डालियों और पत्तों पर विष्ठा करके मलिन किया। अब चली जाऊँ और आप जल जायें। नहीं अब तो साथ ही जलेंगे।"
 
"अरी मूर्ख समझती क्यों नहीं? उड़ जा।"
 
"नहीं, नहीं, नहीं। " चिड़िया अपने घोंसले में चुपचाप लेट गयी !

-- रेखा श्रीवास्तव