सारी उम्र आरामतलबी भी गुजारने वाले गुप्ता जी रिटायरमेंट के बाद और ज्यादा सिरदर्द बन गए थे। पहले तो लंच लेकर ऑफिस चले जाते तो उनकी पत्नी सारे दिन अपनी इच्छानुसार आराम और काम कर लेती, लेकिन अब तो वह भी भारी पड़ने लगा था। वह अपने समय के अनुसार एक समर्पित बहू , गृहणी, पत्नी और माँ बनी रहीं। वैसे यह समर्पण उनको जीवन भर कष्ट ही देता रहा और अब ?
"देखो अब मेरी उम्र हो चुकी है , जरा ज्यादा ध्यान दिया करो।" गुप्ता जी की नसीहत होती।
"पहले कौन सा तख्ता पलट रहे थे और आपकी उम्र हो रही है तो मम्मी जी की तो जैसे कम होती जा रही है। " बहू किचेन में सुन रही थी और मन ही मन बुदबुदाई.
"हाँ देखती हूँ, मेरे भी पैरों में बहुत दर्द रहने लगा है , बैठ कर उठूँ तो सीधे चल ही नहीं पाती हूँ। " पत्नी बोली।
"इतना कहता हूँ कि कैल्शियम लिया करो और हमें भी देती रहो , वह तो सुनती नहीं हो। छलनी में दूध दुहो और कर्मों को रोओ " गुप्ता जी बड़बड़ाये।
कमरे से उठकर सुनीता जी चल दीं उनके पास और बहू ने वहीं उनका हाथ पकड़ लिया और बोली- " आप नहीं जायेंगी, अब तो घर रहकर अपने कुछ काम करने दीजिये। आपने ही आदतें ख़राब की हैं। "
"फिर वो चिल्लाना शुरु कर देंगे। "
" करने दीजिये, अब मैं हूँ न। " बहू दृढ़ता से बोली.
शाम को बेटे के ऑफिस से आते ही शुरू हो गए - "रजत क्या मुझे समय से चाय-पानी भी नहीं मिलेगा ?"
"क्यों नहीं ? आप बोलिये सब समय से मिलेगा, रूचि किस लिए है ? लेकिन मम्मी को अब भी अब आराम की जरूरत है। " रजत आदतों से वाकिफ था सो बोल दिया।
" ऐसा करो मेरे लिए किसी वृद्धाश्रम में एक सीट बुक करा दो , मैं अकेला रहना चाहता हूँ और मैं किसी पर आश्रित भी नहीं हूँ । " तैश में अगर गुप्ता जी बोले।
"मुझे कोई परेशानी नहीं है , आप ही सोच लीजिये रह पाएंगे। "
"हाँ हाँ क्यों नहीं ? अभी इतनी दमखम है मुझमें। "
रजत ने बिना बहस किये ही शहर के एक 'सांध्य जीवन' में पंद्रह दिन के लिए एक कमरा बुक करा दिया। अगर अच्छा लगेगा तो और बढ़ा देंगे। वैसे उसे पूरी उम्मीद थी कि इनका गुजारा कहीं नहीं होने वाला है।
पत्नी ने एक बैग तैयार कर दिया और अपनी दवा वगैरह उन्होंने खुद ही रख लीं।
"क्या तुम नहीं चल रही हो?" गुप्ता जी ने एक बैग देखा तो तुनक पड़े।
"नहीं मम्मीजी को कल से बुखार है , आप दो चार दिन रहकर वहाँ का माहौल वगैरह देख लीजिये फिर अगर इनका मन होता है तो आ जाएंगी नहीं तो कोई बात नहीं।" अब की बार बहू बोली थी।
"मैं अकेला जाकर क्या करूँगा?"
"फिर ये तो निर्णय आपका ही था न , घर से अच्छा कुछ भी नहीं हो सकता है। हाँ घर में घर वालों का के सुख दुःख सब साथ रहता है और उसका ध्यान भी रखना पड़ता है। वहां आपके ऊपर कोई दबाव नहीं होगा। "
शाम को जाने की बात कहकर गुप्ता जी घर से निकल गए और दो घंटे बाद वापस आकर चुपचाप लेट गए। रजत ऑफिस आया - " पापा आप गए नहीं ?"
"नहीं और जाना भी नहीं है."
"क्यों क्या हुआ?"
"मैं उसे वृद्धाश्रम में होकर आया हूँ बहुत बढ़िया सुविधा है लेकिन सब समय पर होता है , ये नहीं कि हमें जब चाय चाहिए तब ही मिलेगी वह समय से ही मिलेगी। सुबह उठ कर योग का प्रोग्राम भी होता है , जो अपने से उतने सबेरे होने से रहा।"
"आप पंद्रह दिन रहकर ,कुछ बदलाव हो जाएगा। कुछ आदतें नई बन जाएँगी और पुरानी छूट जायेंगी ।"
"मैं घर में ही रहकर बदल लूँगा लेकिन घर छोड़ कर नहीं जाऊँगा।"
रजत, रूचि और सुनीता जी मन ही मन खुश हो रहे थे।