सीमायें अपनी अपनी !
"अरे,अरे भाई वहाँ कहाँ जा रहे हो? वह अपना हिस्सा नहीं है वह तो दुश्मन का हिस्सा है।"
"अरे
यह दुश्मन का हिस्सा क्या होता है? हर तरफ एक ही जैसा तो है । क्या यह
लकड़ी के बाड़ लगा देने से जमीन के टुकड़े हो जाते हैं, आकाश के टुकड़े हो
जाते हैं, हवा के टुकड़े हो जाते हैं या फिर माँ के टुकड़े हो जाते हैं। सब तो अपने ही है।"
"अरे
नहीं भाई तुम नहीं समझोगे हमारे मन और इन इंसानों के मन में बड़ा अंतर है।
इन्हें दिल को बाँटने में भी समय नहीं लगता यह तो दिल में भी पत्थर की
दीवार खड़ी कर लेते हैं, फिर यह तो जमीन है इस पर तो खड़ी कर ही सकते
हैं।"
"कितनी ऊँची?"
"अरे ऊँची क्या, यही बहुत है। इसी से हिस्से बाँट हो गए।"
"लेकिन
हम लोग क्यों मानेंगे? पानी हम यहाँ पियेंगे और फल वहाँ है तो वहाँ
खायेंगे। हम चहचहायेंगे तो हमारी आवाज दोनों तरफ जाएगी। कोई मारेगा क्या
हमको?"
"नहीं तुम्हें या हमें तो नहीं शायद, लेकिन अगर आदमी आने लगे तो जरूर मार दिए जाएंगे क्योंकि उनके दिमाग में भी हिस्से हो गए हैं। कोई लड़ाई में विश्वास रखता है और कोई शांति में।"
"तो इस तरह तो दुनिया ना चलने वाली।"
"चल
तो रही है मेरे भाई कौन सी कमी दिख रही है, जिनके घरवालों को मार देते
हैं, वे रोकर रह जाते हैं और यह कसाई खुश होते है, जश्न मनाते हैं।"
"तब तो भाई इस बाड़ से अंदर उड़ चलो क्योंकि इन्होंने तो पेड़ न बचने दिए, पानी न बचने दिया हम कहाँ जाएंगे?"
"किस तरफ जाओगे।"
"वहाँ चलो जहाँ सुख-शाँति हो, हँसी खुशी हो। वही हमारा जहाँ है।"
"सच
भाई हम उसके हैं, जिसे न नीचे बँटवारा चाहिए और न ऊपर बँटवारा चाहिए।
हमारी दुनिया तो दरख्तों में बसी है हमें तो हरे भरे दरख़्तों का आशियाना
चाहिए।"
रेखा श्रीवास्तव