गतांक से आगे...
शामली और संदीप के जाने के बाद नितिन ने भी जाना चाहा तो मैंने उसको अपने पास रुकने के लिए कहा. मुझे उससे कुछ बात करनी थी क्योंकि अब तो बाजी जब ईश्वर ने मेरे हाथ में दे ही दी है तो फिर उसके निर्णय के साथ मैं अन्याय क्यों होने दूं? ये बच्चे अभी जिन्दगी के अर्थ को नहीं समझते हैं और दोनों उस नाव की तरह बहे जा रहे हैं जिसके कोई मांझी है ही नहीं. जिसके लिए जीना इस लिए जरूरी है क्योंकि ये जिन्दगी है , बाकी उन लोगों ने जीवन जिया कहाँ है? इस जीवन का भविष्य भी क्या है? इसका भी उनको नहीं पता है.
"नितिन, मुझे इस बारे में कुछ सोचना पड़ेगा, शामली की हालत तुमने देख ली है."
"पर क्या हो सकता है? मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता हूँ." नितिन जो उम्र से छोटा तो था ही और उसका बचपन से इस उम्र तक इस तरह से बीता कि शेष दुनियाँ क्या है इसके बारे में उसको कुछ भी पता नहीं है. सिर्फ सिर पर एक छत और खाने के लिए रोटी मुहैय्या हो ऐसा ही वह कर पा रहा है. अपने हक़ और शेष चीजो से वह वाकिफ ही कहाँ है?
"हो सकता है, तुम्हारे पापा का पैसा और उनके बदले कोई भी नौकरी तुमको मिल सकती हो ."
"अब इतने दिन बाद कौन देगा मुझे? फिर इसके बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ? कहाँ जाना होगा? कैसे क्या होता है? " उसने अपनी मजबूरी बता दी थी.
"ये मुझे पता है, लेकिन जब देख रहा हूँ कि तुम्हारे और तुम्हारी बहन के अधिकारों को कोई और छीनने के लिए तैयार है तो मैं जो भी कर सकता हूँ करूंगा." मैं उसको आश्वस्त कर देना चाहता था कि वह अकेला नहीं है.
"इसमें मुझे क्या करना है?" उसको लगा कि मेरा हाथ उसके भविष्य के प्रति कुछ कर सकता है.
"तुम्हें अपने हाई स्कूल के सर्टिफिकेट को लाना होगा."
"वह तो मैंने लिया ही नहीं, उसी स्कूल में पड़ा होगा."
"मार्कशीट तो होगी, वह ही लगा दो."
"हाँ , वह जरूर है. वह तो उन्नाव में है."
"ठीक है, तुम अगले सन्डे उसको लाकर मुझे दे दो , मैं कुछ करना चाहता हूँ."
"इससे दीदी के ऊपर कुछ तो नहीं होगा? वे लोग पैसे के लिए ही तो दीदी को घर में रखे हुए हैं." उसे इससे पहले अपनी बहन का ख्याल आया कि उसका क्या होगा?
"देखो, दीदी वहीं रहेगी, अगर पैसा उन लोगों ने ले लिया तब भी दीदी कि हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला है. संदीप बहुत चालाक इंसान है."
"फिर?"
"फिर कुछ नहीं, आगे देखते हैं कि क्या हो सकता है? शामली को वहाँ से निकाला भी जा सकता है."
"फिर कहाँ जाएगी वह? मैं तो अपना ही गुजारा नहीं कर पाता हूँ."
"इसकी चिंता मत करो, जब मैं शामली को वहाँ से निकालूँगा तो उसके लिए शेष चिंताएं भी कर लूँगा. पापा का पैसा उसके नाम करवा दूंगा तब तुम भाई बहन किसी के मुहताज नहीं रहोगे." मैंने अपने सोचे हुए का संक्षिप्त उसको बता दिया.
"और उसकी ससुराल वाले?"
"तुम उसको ससुराल कहते हो, पति शहर में दूसरी पत्नी के साथ रहता है और वह घर में नौकरानी बनी हुई है और वह भी पैसे की मालिक है इसलिए रखा हुआ है उसको."
अच्छा अब तुम गेस्ट रूम में जाकर सो जाओ. कल सुबह निकल जाना.
नितिन को सोने के लिए भेज दिया. मैंने भी सोने के लिए चला किन्तु आँखों में नीद कोसों दूर थी. ये नितिन और शामली दोनों ही मेरे सामने दया के पात्र बने हुए थे. वे बिना माँ बाप के बच्चे जिनके सिर पर कोई भी हाथ नहीं है. बस जिए जा रहे हैं क्योंकि उनको ईश्वर ने इस हालत में जीने के लिए छोड़ दिया है. उनके अधिकारों पर कितने लोग ऐश कर रहे हैं. उनका अपने पापा का घर कोई और कब्ज़ा करके बैठा है और उनके पैसे पर किसी और की गिद्ध निगाह लगी हुई है. उनके भाग्य में तो कुछ भी नहीं है. फिर मुझे लगा कि इनका हक़ मैं दिलवा सकता हूँ और जो कष्ट उनके भाग्य में लिखा है उसको कम किया जा सकता है. अगर जरूरत पड़ी तो कभी उनको अपने होने का आश्वासन भी देना पड़ा तो दूंगा. मगर वह वक्त आने पर.
मैंने सोचा कि दी से इस बारे में अब चर्चा की जा सकती है. और मैं दी को कॉल करने लगा.
"दी, मैंने नितिन और शामली के बारे में एक फैसला किया है."
"कैसा फैसला?"
"ये कि अब पापा के पैसों और संपत्ति के लिए शामली के पति ने अपना हक़ पेश किया है और वह भी नितिन को इग्नोर करके."
"फिर अब क्या करना है?"
"अब करना क्या है? इस पर एनओसी देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है. बल्कि इस पर नितिन , मैं और आप सभी के ऑब्जेक्शन मैं भेजने वाला हूँ. "
"मेरा और अपना क्यों?"
"इस लिए कि हम भी इसके हक़दार हैं."
"क्या बात कर रहे हो आशु?"
"मैं ठीक कह रहा हूँ, मुझे और आपको कुछ चाहिए नहीं लेकिन शामली के पति को सबक देना जरूरी है."
"तुम शामली से मिले?"
"हाँ मिला और उसके हालात भी देखे, उसको घर में नौकरानी बना कर रखा है और खुद पहली पत्नी के साथ शहर में रहता है."
"क्या?"
"हाँ , यही उसने सिर्फ संपत्ति के लालच में शादी की और उसको गाँव में अपने माँ बाप कि सेवा के लिए नौकरानी बना दिया."
"ये कैसे हो सकता है?"
"ऐसा ही है."
"फिर कैसे क्या करोगे?"
"आप एक पेपर पर साइन करके मुझे भेजिए मैं आपका और अपना ओब्जेक्शन एक साथ लगा दूंगा ."
"इससे क्या फायदा?"
"ये कि पापा के चार वारिस हैं और हम शामली और नितिन के हक़ में नो ऑब्जेक्शन दाखिल करेंगे."
"शामली के घर वाले ?"
"उनसे हमें और तरीके से निपटाना होगा. लेकिन ये काम अब मेरा नहीं बल्कि सरकारी कार्यवाही हो जाएगी कि बाकी वारिसों के होते हुए उन्होंने अकेले वारिस होने का दावा किया ये एक अपराध है."
"तब तो शामली पर मुसीबात आ सकती है."
"वो मैं देख लूँगा , मैंने सब सोच रखा है."
"अच्छा , अब आशु इतना बड़ा हो गया."
"जी, मैं ऐसे ही नहीं अपना काम संभाल रहा हूँ."
"अब समझी कि अब मेरा भाई सयाना हो गया है."
"दी, आप उतना काम करके मुझे भेजिए क्योंकि मुझे इन कागजों के साथ ही सारे ऑब्जेक्शन भी लगाने हैं."
"ठीक है, मैं भेजती हूँ."
दी को बता कर दिल कुछ हल्का भी हुआ और यह भी तय कर लिया कि आगे क्या करना है? बगैर सामने आये हुए कुछ भी नहीं होगा और इन सब चीजों को सिर्फ ओफ्फिसिअल स्तर पर ही रखना है और नितिन या शामली को कुछ भी नहीं बताने का इरादा था. फिर पता नहीं कब सोचते सोचते सो गया.